Book Title: Jain Samaj ka Rhas Kyo
Author(s): Ayodhyaprasad Goyaliya
Publisher: Hindi Vidyamandir Dehli

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Page 39
________________ जैन-समाजका ह्रास क्यों ? खयकुट्टसूलमूलो लोयभगंदरजलोदरक्खिसिरो सीदुरहबहराई पूजादाणंतरायकम्मफलं ॥३३॥ इसलिए जो कोई जाति-बिरादरी अथवा पञ्चायत किसी जैनीको जैन मन्दिरमें न जाने अथवा जिनपूजादि धर्म कार्योसे वंचित रखनेका दण्ड देती है वह अपने अधिकारका अतिक्रमण और उल्लंघन ही नहीं करती बल्कि घोर पापका अनुष्ठान करके स्वयं अपराधिनी बनती है।" --विवाह-क्षेत्र प्रकाश पृष्ठ ३१ से ३६ । जैन-धर्मके मान्य ग्रन्थों में इतना स्पष्ट और विशद विवेचन होने पर भी उसके अनुयायी आज इतने संकीर्ण और अनुदार विचारके क्यों हैं ? इसका एक कारण तो यह है कि, वर्तमानमें जैनधर्मके अनुयायी केवल वैश्य रह गए हैं, और वैश्य स्वभावतः कृपण तथा क्रीमती वस्तुको प्रायः छुपाकर रखनेवाले होते हैं । इसलिए प्राणोंसे भी अधिक मूल्यवान् धर्मको खुदके उपयोगमें लाना तथा दूसरोंको देना तो दूर, अपने बन्धुत्रोंसे भी छीन-झपट कर उसे तिजोरीमें बन्द रखना चाहते हैं । उनका यह मोह और स्वभाव उन्हें इतना विचारनेका अवसर ही नहीं देता कि धर्मरूपी सरोवर बन्द रखनेसे शुष्क और दुर्गन्धित होजायगा । वैश्योंसे पूर्व जैनसघकी बागडोर क्षत्रियों के हाथमें थी। वे स्वभावतः दानी और उदार होते हैं। इसलिए उन्होंने जैनधर्म जितना दूसरोंको दिया, उतना ही उसका विकास हुआ । भारतके बाहर भी जैनधर्म खूब फला-फूला । जैनधर्मको जबसे क्षत्रियोंका आश्रय हटकर वैश्योंका आश्रय मिला, तबसे वह क्षीरसागर न रहकर गाँवका पोखर-तालाब बन गया है। उसमें भी साम्प्रदायिक और पार्टियोंके भेद-उपभेद रूपी कीटाणुओंने सड़ाँद (महादुर्गन्ध)

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