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जैन-समाजका हास क्या?
जब जैन-धर्मको राज-श्राश्रय नहीं रहा और इसके अनुयायियोंको चुन-चुन कर, सताया गया । उनका अस्तित्व खतरेमें पड़ गया, तब नव-दीक्षित करनेकी प्रणालीको इसलिए स्थगित कर दिया गया, ताकि राजधर्म-पोषित जातियाँ अधिक कुपित न होने पाएँ और जैनधर्मानुयायियोंसे शूद्रों तथा म्लेच्छों जैसा व्यवहार न करने लगें ? नास्तिक और अनार्य जैसे शब्दोंसे तो वे पहले ही अलंकृत किये जाते थे। अतः पतित और निम्न श्रेणीके लिये तो दरकिनार जैनेतर उच्च वर्गके लिये भी जैनधर्मका द्वार बन्द कर दिया गया ! द्वार बन्दन करतं तो और करत भी क्या ? जैनोंको ही बलात् जैनधर्म छोड़नेके लिये जब मजबूर किया जा रहा हो, शास्त्रोंको जलाया जा रहा हो, मन्दिरों को विध्वंस किया जा रहा हो, तब नव-दीक्षा प्रणालीका स्थगित कर देना ही बुद्धिमत्ताका कार्य था। उस समय राज्य-धर्म-बाहाणधर्मजनताका धर्म बन गया । उसकी संस्कृति आदिका प्रभाव जैनधर्म पर पड़ना अवश्यम्भावी था। बहुसंख्यक, बलशाली और राज्यसत्ता वाली जातियोंके प्राचार-विचारकी छाप अन्य जातियों पर अवश्य पड़ती है । अतः जैन समाजमें भी धीरे-धीरे धार्मिक-संकीर्णता एवं अनुदारुताके कुसंस्कार घर कर गए । उसने भी दीक्षा प्रणालीका परित्याग करके जातिवाहिष्कार-जैसे घातक अवगुणको अपना लिया ! जो सिंह मजबूरन भेड़ोंमें मिला था, वह सचमुच अपनेको भेड़ समझ बैठा !!
वह समय ही ऐसा था, उस समय ऐसा ही करना चाहिए था; किन्तु अब वह समय नहीं है । अब धर्मके प्रसारमें किसी प्रकारका