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जैन समाजका हास क्यों ?
मर गया और गाड़ीमें बैठी हुई सारी सवारियाँ जातिसे व्युत ! क्रोधावेशमें स्त्री कुएं में गिरी और उसके कुटुम्बी जातिसे खारिज ! किसी पुरुषने . किसी विधवा या सधवा स्त्रीपर दोषारोप किया नहीं कि उस स्त्री सहित सारे कुटुम्बी समाजसे बाहर !!
उक्त घटनाएँ कपोलकल्पित नहीं, बुन्देलखण्डमें, मध्यप्रदेशमें, और राजपतानेमें, ऐसे बदनसीब रोज़ाना ही जातिसे निकाले जाते हैं । कारज या नुक्ता न करने पर अथवा पंचोंसे द्वेष होजाने पर भी समाजसे पृथक होना पड़ता है । स्वयं लेखकने कितनी ही ऐसी कुल-बधुयोंकी यात्मकथाएँ सुनी हैं जो समाजके अत्याचारी नियमों के कारण दूसरों के घरों में बैठी हुई आहे भर रही हैं । जाति-बहिष्कारके भयने मनुष्योंको नारकी बना दिया है। इसी भयके कारण भ्रूणहत्याएँ, बालहत्याएँ, यात्महत्याएँ-जैसे अधर्म-कृत होते हैं तथा स्त्रियाँ और पुरुष विधर्मियोंके याश्रय तकमें जानेको मजबूर किये जाते हैं।
चशा पिलाके गिराना तो सबको आता है।
मज़ा तो तब है कि गिरतोंको थामले साकी ॥--इकबाल गिरते हुओंको ठोकर मार देना, मुसीबतज़दोंकों और चर्का लगा देना, बेऐबों को ऐब लगा देना, भूले हुोंको गुमराह कर देना, नशा पिलाके गिरा देना, यासान है और यह कार्य तो प्रायः सभी कर सकते हैं, किन्तु पतित होते हुए-गिरते हुए---को सम्हाल लेना, बिगड़ते हुएको यना देना, धर्म-विमुखको धर्मारूढ़ करना, चिरलोंका ही काम है । और यही बिरलेपनका कार्य जैनधर्म करता रहा है तभी तो वह पतित-पावन और अशरण-शरण कहलाता रहा है।