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जैन समाजका ह्रास क्यों ?
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ASH WANITA SAA
उत्पन्न करदी है, जिसके कारण कोई भी बाहरी आदमी उसके पास तक
का साहस नहीं करता ।
यह ठीक है कि अपराध करने पर दण्ड दिया जाय- इसमें किसीको विवाद नहीं, परन्तु दण्ड देनेकी प्रणाली में अन्तर है । एक कहते हैं-अपराधीको धर्मसे प्रथक कर दिया जाय, यही उसकी सज़ा है, उसके संसर्गसे धर्म अपवित्र हो जायगा । दूसरे कहते हैं- जैसे भी बने धर्म- च्युतको धर्म
स्थिर करना चाहिए, जिससे वह पुनः सन्मार्ग पर लगजाय । ऐसा न करनेसे अनाचारियोंकी संख्या बढ़ती चली जायगी और फिर धर्मनिष्ठोंका रहना दूभर हो जायगा । भला जिस प्रतिमाका गन्धोदक लगानेसे अपवित्र शरीर पवित्र होते हैं, वही प्रतिमा पवित्रोंके छूनेसे अपवित्र क्योंकर हो सकती है ? जिस अमृतमें संजीवनी शक्ति व्यास है, वह रोगी के छूनेसे विष कैसे हो सकता है ? रोगीके लिए ही तो अमृत की आवश्यकता है, पारस पत्थर लोहेको सोना बना सकता है— लोहे के स्पर्शसे स्वयं लोहा नहीं बनता ।
खेद है कि हम सब कुछ जानते हुए भी अन्ध- प्रणालीका अनुसरण कर रहे हैं । एक वे भी जातियाँ हैं जो राजनैतिक और धार्मिक अधिकार पानेके लिए हर प्रकारके प्रयत्न और हरेक ढंगसे दूसरोंको अपनाकर अपनी संख्या बढ़ाती जा रही हैं, और एक हमारी जाति हैं जो बढ़ना तो दूर निरन्तर घटती जा रही है । भारतके सात करोड़ अछूतोंकी जब हिन्दूधर्म छोड़ देनेकी अफवाह उड़ी तो, मिस्र से मुसलमान, अमेरिका से ईसाई, आपानसे बौद्ध और पंजाबसे सिक्ख प्रतिनिधि, अछूतों के पास पहुँचे और सबने अपने अपने धर्मोंमें उन्हें दीक्षित करनेका प्रयत्न किया; किन्तु