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जैन-समाजका हास क्यों ?
लोगोंने बहुधा जैनमन्दिरोंको देवसम्पत्ति न समझकर अपनी घरू सम्पत्ति समझ रक्खा है, उन्हें अपनी ही चहल-पहल तथा ग्रामोद-प्रमोदादिके एक प्रकारके साधन बना रक्खे हैं, वे प्रायः उन महौदार्य सम्पन्न लोकपिता वीतराग भगवान्क मन्दिर नहीं जान पड़ते जिनके समवशरणमें पशु तक भी जाकर बैठत थे, और न वहाँ मूर्तिको छोड़कर, उन पूज्य पिताके वैराग्य, औदार्य तथा साम्यभावादि गुणोंका कहीं कोई श्रादर्श ही नज़र आता है। इसीसे वे लोग उनमें चाहे जिस जैनीको श्राने देते हैं और चाहे जिसको नहीं । ऐसे सब लोगोंको खूब याद रखना चाहिये कि दूसरोंके धर्म-साधन.में विघ्न करना-बाधक होना-उनका मन्दिर जाना बन्द करके उन्हें देवदर्शन आदि से विमुख रखना, और इस तरह पर उनकी श्रात्मोन्नतिके कार्यमें रुकावट डालना बहुत बड़ा भारी पाप है । अंजना सुंदरीने अपने पूर्व जन्ममें थोड़े ही कालके लिये, जिनप्रतिमाको छिपाकर, अपनी सोतनके दर्शन पूजनमें अन्तराय डाला था । जिसका परिणाम यहाँ तक कटुक हुया कि उसको अपने इस जन्म में २२ वर्ष तक पतिका दुःसह वियोग सहना पड़ा और अनेक संकट तथा अापदानोंका सामना करना पड़ा, जिनका पूर्ण विवरण श्रीरविषेणाचार्यकृत 'पद्म-पुराण' के देखनेसे मालूम हो सकता है। श्रीकुंदकुंदाचार्थने, अपने 'रयणसार' ग्रंथमं यह स्पष्ट बतलाया है कि-'दूसरोंके पूजन और दानकार्यमें अन्तराय (विघ्न) करनेसे जन्मजन्मान्तरमें क्षय, कुष्ट, शूल, रक्तविकार, भगन्दर, जलोदर, नेत्रपीड़ा, शिरोवेदना श्रादिक रोग तथा शीत-उष्ण (सरदी गरमी) के आताप और (कुयोनियोंमें) परिभ्रमण आदि अनेक दुःखोंकी प्राप्ति होती है ।' यथा---