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जैन समाजका हास क्यों ?
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महाभुजगशोभांकसंदृष्टवर भूषणाः । वृक्षमूलमहास्तंभमाश्रिता वार्तमूलकाः ॥२२॥ स्ववेषकृतसंचाराः स्वचिह्न कृतभूषणाः। समासेन समाख्याता निकायाः खचरोद्गताः ॥ २३ ॥ इति भार्योपदेशेन ज्ञातविद्याधरान्तरः। . शौरिर्यातो निजं स्थानं खेचराश्च यथायथम् ॥ २४॥
इन पद्योंका अनुवाद प० गजाधरलालजीने, अपने भाषा "हरिवंशपुराण में, निम्न प्रकार दिया है :
“एक दिन समस्त विद्याधर अपनी अपनी स्त्रियोंके साथ सिद्धकूट चैत्यालयकी वंदनार्थ गये। कुमार (वसुदेव ) भी मियतमा मदनवेगाके साथ चल दिये ॥ २॥ सिद्धकूट पर जाकर चित्र विचित्र वेषोंके धारण करने वाले विद्याधरोंने सानन्द भगवानकी पूजाकी, चैत्यालयको नमस्कार किया एवं अपने अपने स्तम्भोंका सहारा ले जुदे २ स्थानों पर बैठ गये ॥ ३ ॥ कुमारके श्वसुर विद्युद्वेगने भी अपने जातिके गौरिक निकायके विद्याधरोंके साथ भले प्रकार भगवान्की पूजा की
और अपनी गौरीविद्यायोंके स्तम्भका सहारा ले बैठ गये ॥ ४ ॥ कुमारको विद्याधरोंकी जातिके जाननेकी उत्कण्ठा हुई; इसलिये उन्होंने उनके विषयमें प्रियतमा मदनपेगासे पूछा और मदनवेगा यथायोग्य विद्याधरोंकी जातियोंका इस प्रकार वर्णन करने लगी
* देखो, इस हरिवंशपुराण का सन् १६१६ का छपा. हुआ संस्करण, पृष्ठ २८४, २८५।।