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जैन-समाजका हास क्यों ?
___श्रीजिनसेनाचार्यने तोमर, चौहान, साम, चदला, ठीमर, गौड़, सूर्य, हेम, कछवाहा, सोलंकी, कुरु, गहलोत, साठा, मोहिल, आदि वंशके राजपतोंको जैन-धर्ममें दीक्षित किया । जो सब खंडेलवाल जैन कहलाये और परस्पर रोटी-बेटी व्यवहार स्थापित हुश्रा।
श्री० लोहचार्यके उपदेशसे लाखों अग्रवाल फिरसे जैन-धर्मी हुये ।
इस प्रकार १६ वीं शताब्दी तक जैनाचार्यों द्वारा भारतके भिन्न-भिन्न प्रान्तों में करोड़ोंकी संख्यामें जैन-धर्म में दीक्षित किये गये ।
इन नव दीक्षितोंमें सभी वर्गों के और सभी श्रेणीके राजा-रंक सदाचारी दुराचारी मानव शामिल थे । दीक्षित होनेके बाद कोई भेद-भाव नहीं रहता था।
उक्त उद्धरणोंसे स्पष्ट होजाता है कि जैन धर्मका क्षेत्र कितना व्यापक और महान् है । उसमें कीट-पतंग, जीव-जन्तु, पशु और मनुष्य सभीके उत्थानकी महान् शक्ति है। सभीको उसकी कल्पतरु शाखाके नीचे बैठकर सुख-शान्ति प्राप्त करनेका अधिकार है । जैन-धर्म किसी वर्ग-विशेष या जाति विशेष की मीरास नहीं है । जैन-धर्मके मन्दिरोंमें सभी समान रूपसे दर्शन और पूजनार्थ जाते थे । इस सम्बन्धका उल्लेख श्रीजिनसेनाचार्य विरचित हरिवंश पुराणके २६वें सर्गमें पाया जाता है, जो कि श्रद्धय पं० जुगलकिशोरजी कृत 'विवाह-क्षेत्र प्रकाश' नामकी पुस्तकसे उद्धृत करके पाठकोंके अवलोकनार्थ यहाँ दिया जाता है :
“सस्त्रीकाःखेचरा याताः सिद्धवू.टजिनालयम् । एकदा वंदितुं सोपि शौरिमंदनवेगया ॥२॥ कृत्वा जिनमहं खेटाः प्रवन्ध प्रतिमागृहम् ।