Book Title: Jain Samaj ka Rhas Kyo
Author(s): Ayodhyaprasad Goyaliya
Publisher: Hindi Vidyamandir Dehli

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Page 18
________________ . जैन-समाजका हास क्यों? इस प्रकार जाति और वर्णकी कल्पनाको महत्व न देकर जैनाचार्योंने आचरण पर जोर दिया है। , जैनपुराणों कथा-ग्रंथों या प्रथमानुयोगके शास्त्रोंको उठाकर देखने पर, उनमें पद पद पर वैवाहिक उदारता नज़र आएगी। पहले स्वयंवरप्रथा चालू थी, उसमें जाति या कुलकी परवाह न करके गुणका ही ध्यान रखा जाता था । जो कन्या किसी भी छोटे या बड़े कुल वालेको गुण पर मुग्ध होकर विवाह लेती थी, उसे कोई बुरा नहीं कहता था । हरिवंशपुराणमें इस सम्बन्धमें स्पष्ट लिखा है कि कन्या वृणीते रुचितं स्वयंवरगता वरं । कुलीनमकुलीनं वा क्रमो नास्ति स्वयंवरे ॥११-७१॥ अर्थात्-स्वयंवरगत कन्या अपने पसन्द वरको स्वीकार करती है चाहे वह कुलीन हो या अकुलीन । कारण कि स्वयंवरमें कुलीनता-अकुलीनताका कोई नियम नहीं होता है । जैनशास्त्रोंमें विजातीय विवाहके भी अनेक उदाहरण पाये जाते है । नमूनेके तौरपर कुछका उल्लेख नीचे किया जाता है: १-राजा श्रेणिक (क्षत्रिय) ने ब्राह्मण-कन्या नन्दश्रीसे विवाह किया था और उससे अभयकुमार पुत्र उत्पन्न हुश्रा था (भयतो विमकन्यायां सुतोऽभूदभयायः) बादमें विजातीय माता-पिता से उत्पन्न अभयकुमार मोक्ष गया (उत्तरपुराण पर्व ७४ श्लोक ४२३ से २६ तक) २-राजा श्रेणिक (क्षत्रिय) ने अपनी पुत्री धन्यकुमार 'वैश्य' को दी थी। (पुण्यास्त्रव कथाकोष) ३-राजा जयसेन (क्षत्रिय ) ने अपनी पुत्री पृथ्वीसुन्दरी प्रीतिकर

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