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जैन समाजका ह्रास क्यों ?
अन्तराय कर्म बाँध रहे हैं ? जब कि जैन-शास्त्रों में स्पष्ट कथन है कि :-- श्चापि देवोऽपि देवः श्वा जायते धर्म-किल्विषात् । धर्मके प्रभावसे- धर्म सेवनसे कुत्ता भी देव हो सकता है, धर्मके कारण देव भी कुत्ता हो सकता है । चाण्डाल और हिंसक पशुओंका भी सुधार हुआ है, वे भी निर्मल भावनाओं और धर्म-प्रेमके कारण सद्गतियोंको प्राप्त हुए हैं। जैनधर्म तो कहलाता ही पतित-पावन है । जिसके णमोकार मंत्र पढ़नेसे सब पापों का नाश हो सकता है, गन्धोदक लगाने मात्र से अपवित्रसे अपवित्र व्यक्ति पवित्र हो सकता है, जिनके यहां हज़ारों कथायें पतितोंके सन्मार्ग पर आनेकी बिखरी पड़ी हैं और जिनके धर्मग्रन्थों में चींटीसे लेकर मनुष्य तककी श्रात्माको मोक्षका अधिकारी कहकर समानताका विशाल परिचय दिया है। जो जीव नरकमें हैं, किन्तु भविष्य में मोक्षगामी होंगे, उनकी प्रतिदिन जैनी पूजा करते हैं। कब किस मनुष्यका विकास और उत्थान होने वाला है -- यह कहा नहीं जासकता | तब हम बलात् धर्म-विमुख रखकर उसके विकासको रोककर - कितना धर्म-संचय कर रहे हैं ?
अशरण-शरण, पतितपावन जैन-धर्म में भूले भटके पतितों, उच्च और नीच सभी के लिये द्वार खुला हुआ है । मनुष्य ही नहीं —- हाथी, सिंह, श्रृगाल, शूकर, बन्दर, न्योले जैसे जीव-जन्तुत्रोंका भी जैन-धर्मोपदेशसे उद्धार हुआ है । पतितों और कुमार्गरत मनुष्योंकी जैनग्रन्थोंमें ऐसी अनेक कथायें लिखी पड़ी हैं, जिन्हें जैन-धर्मकी शरण में श्रानेसे सन्मार्ग और महान् पद प्राप्त हुआ है । उदाहरण स्वरूप यहाँ पं० परमेष्ठीदासजी न्यायतीर्थ की "जैनधर्मकी उदारता” नामकी पुस्तक से कुछ दिये
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