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जैन-समाजका ह्रास क्यों ?
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सामाजिक रीति-रिवाजका उल्लंघन करने वालेके लिये जाति-वहिकारका दण्ड शायद कभी उपयोगी रहा हो, किन्तु वर्तमानमें तो यह प्रथा बिल्कुल ही अमानुषिक और निन्दनीय है । जो कवच समाजकी रक्षाके लिये कभी अमोघ था, वही कवच भारस्वरूप होकर दुर्बल समाजको मिट्टीमें मिला रहा है।
अपराधीको दण्ड दिया जाय, ताकि स्वयं उसको तथा औरोंको नसीहत हो और भविष्यमें वैसा अपराध करनेका किसीको साहस न होयह तो बात कुछ न्याय-संगत अँचती भी है। किन्तु अपराधीकी पीढ़ी दरपीढ़ी सहस्रों वर्ष वही दण्ड लागू रहे-यह रिवाज बर्बरताका द्योतक और • मनुष्य-समाजके लिये अवश्य ही कलंक है ।
'नानी दान करें और धेवता स्वर्ग में जाय'-इस नियमका कोई समर्थन नहीं कर सकता । खासकर जैनधर्म तो इस नियमका पक्का विरोधी है । जैनधर्मका तो सिद्धान्त है कि, जो जैसे शुभ-अशुभ कर्म करता है वही उसके शुभ अशुभ फलका भोगने वाला होता है , किनी अन्यको उसके शुभ-अशुभ कर्मका फल प्राप्त नहीं हो सकता । यही नियम प्रत्यक्ष भी देखने में आता है कि जिसको जो शारीरिक या मानसिक कष्ट है, वही उसको सहन करता है-कुटुम्बीजन इच्छा होने पर भी उसे बटा नहीं सकते । राज्य-नियम भी यही होता है, कि कितना ही बड़ा अपराध क्यों न किया गया हो, केवल अपराधीको सज़ा दी जाती है । उसके जो कुटुम्बी अपराध में सम्मलित नहीं होते, उन्हें दण्ड नहीं दिया जाता है।
* अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ।