Book Title: Jain Sahitya Samaroha Guchha 2
Author(s): Ramanlal C Shah, Kantilal D Kora, Pannalal R Shah, Gulab Dedhiya
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay
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जैन साहित्य समारोह - गुच्छ २ वाग्भट्ट-बाहड़, त्यागभट-चाहड़ क्षेमंधर-खींवड, पृथ्वीधर-पेथड़, जसहड़ आदि में उत्तरार्थ लुप्त होकर 'ड' और 'ण' प्रत्यय लग गए, जैसे - जाल्हण, कर्मण, आल्हादन का आल्हण, प्रल्हादन का पाल्हण आदि संख्याबद्ध उदाहरण दिये जा सकते हैं। आचायों के नाम भी कक्कसरि, नत्रसूरि, जज्जिगसूरि आदि भी अपभ्रंश काल की देन है ।
आज के परिवेश में नाम के आदि पद उपर्युक्त प्रथा के साथ साथ नामान्त में जैसे राजस्थान में लाल, चंद, राज, मल्ल, दान, सिंह, करण, कुमार आदि प्रचलित हैं उसी प्रकार. गूर्जर देश का भी समझना चाहिए, क्योंकि प्राचीन काल में दोनों भाषाएँ एक ही थी। अब तो अनेक नाम प्रान्तीय सीमाओं का उल्लंघन कर सार्वत्रिक प्रचलित हो गए हैं। पूर्वकाल में वेश-भूषा और नामों से देश व जाति की पहचान हो जाती थी किंतु वह भेद आजकल गौण होता जा रहा है, अस्तु । - तीर्थंकर महावीर काल में प्रवर्जित हो जाने पर नाम-परिवर्तन की अनिवार्यता नहीं देखी जाती । इतिहास साक्षी है कि सभी श्रमणादि अपने गृहस्थ नाम से ही पहचाने जाते थे। तब प्रश्न होता है. कि. गृहस्थावस्था. त्यागकर मुनि होने पर उस के नाम परिवर्तन कर नवीन नामकरण कब से और क्यों किये जाने जगा? इस पर विचार करने से लगता है कि चैत्यवास के युग से तो यह प्रथा आरंभ हुई होगी पर इसका कारण यही लगता है कि गृहत्याग के पश्चात् मुनिजीवन एक तरहसे नया जन्म हो जाता है। गृह-संबंध विच्छेद के लिये वेश-परिवर्तन की भाँति गृहस्थ सम्बन्धी रिश्ते, स्मृतिजन्य भावनाओं का त्याग, मोह-परिहार और वैराग्य-वृद्धि के लिये इस प्रथा की उपयोगिता का अस्वीकार नहीं किया जा सकता । श्री आत्मारामजी सपने सम्यक्त्व - शल्योद्वार के पृष्ठ १३ में बतलाया है कि 'पंचवस्तु' नामक ग्रंथ में इस प्रथा का उल्लेख पाया जाता है।
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