Book Title: Jain Sahitya Samaroha Guchha 2
Author(s): Ramanlal C Shah, Kantilal D Kora, Pannalal R Shah, Gulab Dedhiya
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay
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जैन साहित्य समारोह - गुच्छ १ . उदाहरण के लिये एक नक्षत्र को लें जो पृथ्वी से ४० प्रकाश वर्ष दूर है अर्थात् पृथ्वी से वहाँ तक प्रकाश जाने में ४० वर्ष लमते हैं। यहां से वहाँ तक पहुँचने के लिये यदि एक राकेट २४,०००० किलोमीटर प्रति सैकिण्ड की गति से चले तो साधारण गणित की दृष्टि से उसे ५० वर्ष लगेंगे। क्यों कि, प्रकाश की गति प्रति सैकिण्ड ३००००० किलोमीटर है। अतः ३०००००/४० २४०००० - ५० वर्ष लगे । परन्तु फिटजगेराल्ड वे संकुचन के नियमों के अनुसार काल में संकुचन हो जायेगा । और यह संकोच १०.६ अनुपात में होगा अर्थात् ६४ ५०/१० = ३० वर्ष लगेंगे। इससे यह फलित होता है कि काल पदार्थ के परिणमन व क्रिया को प्रमाणित करता हुआ उसकी आयु पर भी प्रभाव डालता है। पदार्थ की आयु की दीर्घता-अल्पता, पौर्वापदों में काल भाग लेता है। इस प्रकार जैन दर्शन में प्रतिपादित काल के परत्व-अपरत्व लक्षण को आधुनिक विज्ञान गणित के समीकरणों से स्वीकार करता है। तात्पर्य यह है कि जैन दर्शन मैं वर्णित काल के वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व एवं अपरत्व लक्षणों को वर्तना विज्ञान सत्य प्रमाणित करता है।
काल के स्वरूप के विषय में श्वेताम्बर और दिगम्बर आचार्यों में कुछ मान्यताभेद भी है। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार काल
औपचारिक द्रव्य है तथा जीव और अजीव की पर्याय है। यथा:'किमयंते । कालोति पवुच्चई ? गोयमा । जीवा चेव अजीवा चेत। तथा अन्यत्र ६ द्रव्यों को गिनाते समय “अद्धासमयं रूप में काल द्रव्य को स्वतंत्र द्रव्य माना है। दिगम्बर परम्परा में काल को स्पष्ट, वास्ता विक व मूल द्रव्य माना है।" यथाः -
लोगागासपदे से एक्के एक्के एक्के जेहिया हु ऐक्केक्के । गूयणाणं ससीइव ते कालापू असंख दाणा ।५८८॥
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