Book Title: Jain Sahitya Samaroha Guchha 2
Author(s): Ramanlal C Shah, Kantilal D Kora, Pannalal R Shah, Gulab Dedhiya
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay
View full book text
________________
जैन दर्शन में दिक् और काल की अवधारणा
33
अवरा पज्जायदिदि खणमेत्तं होदि तंच समओर्ति । दोण्हमणूणमदिक्कमकाल पमाणु हवे सो दु। ५७२॥
___ ---गो. जी.
सर्व द्रव्यों के पर्याय की जघन्य स्थिति ठहरने का समय एक क्षण मात्र होता है, इसी को समय कहते हैं | दो परमाणुओं को अतिक्रमण करने के काल का जितना प्रमाण है, उसको समय कहते हैं अथवा आकाश के एक प्रदेश पर स्थित एक परमाणु मंदगीत द्वारा समीप के प्रदेश पर जितने काल में प्राप्त हो, उतने काल को एक समय कहते हैं ।
असंख्यात कालमान
__ असंख्यात कालमानों की गणना उपमा के द्वारा की गई है। इसके मुख्य दो भेद हैं - पल्योपम व सागरोपम । बेलनाकार खड्डे या कुएँ को पल्य कहा जाता है । एक चार कोस लम्बे, चौडे व गहरे कुएँ में नवजात यौगलिक शिशु के केशों को जो मनुष्य के केश के २४०१ हिस्से जितने सूक्ष्म हैं, असंख्य खण्डकर ठूस-ठूस कर भरा जाये। प्रति १०० वर्ष के अन्तर से एक एक केश खण्ड निकालते - निकालते जितने काल में वह कुआँ खाली हो, उतने काल को एक पल्य कहा गया है। दस क्रोड़ाक्रोड (एक करोड को एक करोड से गुणा करने पर जो गुणनफल आता है, उसे क्रोडाकोड कहा गया है ) पल्योपम को एक सागरोपम व २० क्रोड़ाक्रोडी सागर क एक कालचक्र तथा अनन्त काल चक्र को एक पुदगल परावर्तन कहते हैं।
कालचक्र
समा काल के विभाग को कहते हैं तथा 'सु' और 'दु' उपसर्ग जै-हि-3
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org