Book Title: Jain Sahitya Samaroha Guchha 2
Author(s): Ramanlal C Shah, Kantilal D Kora, Pannalal R Shah, Gulab Dedhiya
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay

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Page 445
________________ 58 जैन साहित्य समारोह - गुच्छ २ गये और काम से पूजे गये ऐसे ये लोकात्तम कृतकृत्य जिनेन्द्र मुझे परिपूर्ण ज्ञान, समाधि और बोधि प्राप्त करें । धतला में अरिहंतों के गुणानुरागरूप भक्ति को अरहंत भक्ति कहा है। पुनश्च अरिहंत के द्वारा उपदिष्ट अनुष्ठान के अनुकूल प्रवृत्ति करने को अरहंत भक्ति कहा है । . जैनधर्म में व्यवहारभक्ति के साथ निश्चयभक्ति का महत्त्व अकित है। 'नियमसार' में आचार्य कहते हैं-'निज परमात्मतत्त्व के सम्यक् श्रद्धान अवबोध आचरणस्वरूप शुद्ध रत्नत्रय परिणामों का जो भजन, वह भक्ति है धाराधना ऐसा उसका अर्थ है 14 ‘समयसार' में निश्चय नय से वीतराग सम्यगदृष्टियों के शुद्ध आत्मतत्त्व की भावनारूप भक्ति होती है। जैन धर्म के सिद्धांतानुसार वीतराग यद्यपि कुछ भला या बुरा नहीं करते, ना कुछ लेते-देते हैं, परन्तु इसी तथ्य को आचार्य समन्तभद्र ने बखूबी रखते हुए कहा है "न पूजयाऽर्थस्त्वयि वीतरागे, न निन्दया नाथ ! विवान्त-वैरे । तथाऽपि ते पुण्यगुण-स्मृतिर्नः पुनापि चित्त दुरिताज्जनेभ्यः ॥४॥ अर्थात् – हे नाथ ! न आपकी पूजास्तुति से कोई प्रयोजन है- और न निन्दा से, क्योंकि आप समस्त वैर-विरोध को परित्याग कर के परम वीतराग हो गये हैं, तथापि आपके पुण्य गुणों का स्मरण हमारे चित्त को पाप-मलों से मुक्त करके पवित्र कर देता है। जैनेतर धर्मों में भी भक्ति पर विविध शास्त्रों में अनेक व्याख्याएँ उपलब्ध है। भक्ति का अर्थ सेवा करने के संदर्भ में किया गया है। भक्ति को योग माना है। जहाँ ईश्वर की सेवा करते हुए उसके साथ नैकट्य प्राप्त किया जाये वही भक्ति योग है । संक्षिप्त में यों कहा जा सकता है कि भक्त एवं भगवान का निकट सम्बन्ध 4. दे 'नियमसार' 5. दे 'समयसार' For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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