Book Title: Jain Sahitya Samaroha Guchha 2
Author(s): Ramanlal C Shah, Kantilal D Kora, Pannalal R Shah, Gulab Dedhiya
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay

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Page 451
________________ 64 जैन साहित्य समारोह - गुच्छ २ बढ़ती नहीं अपितु सदाकाल देदीप्यमान रहती है। यही मुखचन्द्र संसार को तेज देकर मोहअंधकार का भी विनाश करता है ।" अरे! आपका मुखसौन्दर्य और तेज दर्शन करने के पश्चात् सूर्य और चन्द्र दोनों की आवश्यकता ही कहाँ ?? 'स्तुतिकार' क्षितितलामल भूषण' संबोधन करके भगवान को अध, मध्य और अधोलोक के प्राणियों में शिरोमणि मानते हुए अवनीतल का शृंगार सिद्ध करता है । जिनका रूप रत्नत्रय की सुरभितमाला, अनन्त चतुष्टय के मणिमुकुट और नव केवल लब्धियों के अलांकारों से सुशोभित हो रहे हैं। जो आठ प्रतिहार्यो से और भी अधिक शोभित एवं दर्शनीय लग रहे हैं । जिनेन्द्रदेव की देदीप्यमान रश्मियाँ अशोकवृक्ष की शोभा प्रदान कर रही हैं । रत्नजड़ित सिंहासन पर कंचन काया शालीन लग रही है। देवों द्वारा ढोरे जाने वाले धवल चवर आपके शरीर की शोभा कुद पुष्प-सी धवल प्रतिभासित हो रही है। और आपका रूप वैसा ही प्रतीत होता है मानां सुमेरु पर्वत के उन्नत तट पर जलप्रपात झर रहा हो, जो उदीयचन्द्रसा कांतियुक्त है। आपके शिर पर लगे तीन क्षत्र उनकी झिलमिलाहट से रूप की झिलमिलाहट हृदय को आकर्षित कर रही है । अरहंत देव की दिव्य देह से प्रस्फुटित रश्मियों का प्रभामंडल गोलाकार भामंडल की शोभा निर्मित कर रहा है । जिसकी शोभा समस्त पुजी भूत पदार्थो को मात देती है। 10 त्रिलोकीनाथ के पावन युगलचरण नव प्रस्फुटित कमल-से हैं। उनके नखों की चमचमाती किरणें सर्वत्र बिखर रही हैं। स्तोत्र में अरहंत के दर्शन-नाम-महत्त्व का फल : अनेक उपमानों से वेष्टित सौन्दर्य के प्रतीक परमात्म जिनेन्द्र देव की रूपछटा अपनी ओर आकर्षित तो करती ही है पर आराधक 6. (१८), 7. (१९), 8. (६) 9. इलोक (३०), 10. (३०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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