Book Title: Jain Sahitya Samaroha Guchha 2
Author(s): Ramanlal C Shah, Kantilal D Kora, Pannalal R Shah, Gulab Dedhiya
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay

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Page 455
________________ जैन साहित्य समारोह गुच्छ, विभोर होकर आराध्य के अतिशयों की प्रस्तुति करके स्वयं तो आनंदानुभूति करता ही है - अन्य लोगों को भी आकर्षित करता है । भक्तामर स्तोत्र में श्री जिनेन्द्रदेव की महिमा एवं अतिशयों का वर्णन किया है । जिनेन्द्रदेव के नाम की ही इतनी महिमा है कि स्वतः व्यक्ति निर्मल होकर उनके चरणाम्बुजों में नतमस्तक हो जाता है । वाणी स्तुति के लिये स्वयं पुटने लगती है । सत्य तो यह है कि उनकी ही यह महिमा है कि स्तुतिकार को प्रेरणा प्राप्त हुई है । हे नाथ ! आपके तेज की ही यह महिमा है कि उसकी एक मात्र सूर्य- -सम किरण से युग का मिथ्या - अंधकार तिरोहित होने लगता है । ' हे प्रभु! आपकी महिमा चन्द्र, सूर्य सभी से उत्कृष्ट है - आपकी महिमा के सामने किसी की महिमा ठहर नहीं पाती । समवशरण में विराजित तीर्थ कर देव का तेज अहर्निश भूमंडल को प्रकाशित करता रहता है । हे अतिशय युक्त ! आपकी विलक्षणता तो आपके जन्म के दस अतिशयों के साथ ही प्रगट होने लगती है । जिनेन्द्रदेव कभी अपने आत्मस्वरूप से च्युत नहीं होते अतः अव्यय हैं, समस्त कर्मों को क्षय करने वाले होने से विभु हैं, निर्विकल्प समाधि द्वारा आत्मानुभूति के क्षणों में अनुभवगोचर होने से अचिन्त्य हैं, संख्यातीत होने से असंख्य हैं, आत्मा में निमग्न रहने से ब्रह्मा हैं, ज्ञानादि ऐश्वय' से सम्पन्न होने से ईश्वर हैं, अनन्तचतुष्टय के धारक होने से अनन्त हैं, कामविजयी होने से अनङ्गकेतु हैं, योगियों द्वारा सेव्य होने से योगीश्वर हैं, अभ्यंग योग के ज्ञाता होने से. योगवेत्ता हैं, अनन्तगुणों की अखंडता और अभेदता के कारण आप एक हैं, विशुद्धज्ञान के परिणामन के कारण आप ज्ञानस्वरूप हैं. तथा द्रव्य, भाव एव नोकर्म के मलों से मुक्त आप अमल हैं 12 मानतुंगाचार्य पुनः पुनः नमस्कार करते हैं क्योंकि आदिदेव तीनों ' 1. श्लोक (२६) 2. दे श्लोक (३८) 68 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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