Book Title: Jain Sahitya Samaroha Guchha 2
Author(s): Ramanlal C Shah, Kantilal D Kora, Pannalal R Shah, Gulab Dedhiya
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay

View full book text
Previous | Next

Page 452
________________ भक्तामर स्तोत्र में भक्ति एवं साहित्य 65. तो उसके दर्शन से भव-भव के पातक दूर करता है । उसका नाम और गुणों के महत्त्व का स्मरण, गुणकथन करता हुआ अपने सांसारिक तावों को मिटाना चाहता है । वह आराध्य की महिमा का स्मरण करता है और वेदनार्थ उसी छवि में लीन होने लगता है । पूरे भक्तामर स्तोत्र में आचार्य ने ऐसी ही अपनी भक्तिभावना से प्रेरित होकर जिनेन्द्रदेव की स्तुति की है । ; प्रारम्भ से ही भावमंगल की कामना की गई है। जिनेन्द्रदेव के दर्शन सिद्धिदायक, विघ्नविनाशक एवं त्रिलापहारी हैं । ऐसे जिनेन्द्रदेव का चरण वंदन स्तुतिकार त्रियोग संवार कर करता है। भक्त अपने भगवान के चरणों में वंदन करके ही अपनी भक्ति प्रदर्शित करता है । आराध्य के चरण तिमिर - पाप को नष्ट करने वाले हैं, जिनके दर्शन से मनमयूर नाच ऊठता है जिनेन्द्रदेव के दर्शन से भव-भ्रमण का भटकावा रुकता है और आलंबन से पार ऊतरते हैं । फिर मानतुंग तो भवसागर पार करना चाहते हैं यही तो इस स्तोत्र का अभिप्राय है । वे 'स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथम जिन्द्रम्' कहकर इसी भाव को व्यक्त करते हैं ।1 जिनेन्द्रदेव का दर्शन ही इतना प्रभावशाली है कि वह भक्त को स्वयं भक्ति के लिये प्रेरित करता है । और उनका नाम इतना महिमामयी है कि महामंद्रित भी उसका शब्दों में वर्णन नहीं कर सकता । मात्र उसके स्मरण से ही जीवधारियों के जन्म-जन्मांतरों के पाप क्षय हो जाते हैं । अर्थात् सम्यकप की किरण से मिथ्यात्व का अधकार भाग जाता है । भक्त के अनुसार उसका नाम और गुणकथन चित्त को प्रसन्न करता है । 1. श्लोक (१) 2. श्लोक ( ७ ) जै-हि-५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471