Book Title: Jain Sahitya Samaroha Guchha 2
Author(s): Ramanlal C Shah, Kantilal D Kora, Pannalal R Shah, Gulab Dedhiya
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay
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जैन दर्शन में नारी भावना
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को पुरुष से हेय समझना अज्ञान, अधम एवं अतार्किक है। नारी अपने असीम मातृप्रेम से पुरुष को प्रेरणा एवं शक्ति प्रदान कर समाज का सर्वाधिक हित साधन तथा वासनाविकार और कर्मजाल को काटकर मोक्ष प्राप्त कर सकती है। इसीलिये महावीर ने अपने चतुर्विध संघ में श्रमणियों-साध्वियों को श्रमण-साधु के बराबर स्थान दिया और श्राविकाओं को श्रावक के समान । उन्होंने साधु-साध्वी
और श्रावक-श्राविका चारों को तीथ' कहा और चारों को मोक्षमार्ग का पथिक बताया । यही कारण था कि महावीर के धर्मशासन में १४००० श्रमण थे, तो ३६००० श्रमणियाँ । एक लाख उनसठ हजार श्रावक थे तो तीन लाख अठारह हजार श्राविकाएँ । श्रमण संघका नेतृत्व इन्द्रभूति के हाथों में था, तो साध्वी संघ का नेतृत्व चन्दन बाला के हाथों में । पुष्पचूला, सुनन्दा, रेवती, सुलसा नामक अन्य मुख्य साध्वियां थी। आज भी साधुओं से साध्वियों की तथा श्रावकों से श्राविकाओं की संख्या अधिक है ।
महावीर से पहले के तीर्थकरों में स्त्रियों को पुरुषों के समान ही सामाजिक, धार्मिक और आध्यात्मिक क्षेत्र में समान अधिकार दिये। उन्होंने मोक्ष के द्वार भी उनके लिये खूले रक्खे । श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार सर्व प्रथम मोक्ष जानेवाली स्त्री ही थी। वह थी भगवान ऋषभदेव की माता मरुदेवी। उन्होंने हाथी पर बैठे-बैठे ही निर्मोह दशा में कैवल्य प्राप्त कर लिया। दासी प्रथा का विरोध
भगवान महावीर के समय में दास-दासीप्रथा जोरों पर थी । दास-दासियों के साथ अमानुषिक अत्याचार किया जाता था। महावीर के वैराग्य में सांसारिक सुखों की असारता और क्षणभंगुरता के साथ साथ दास-दासियों के साथ किये जानेवाले अत्याचारों से उत्पन्न
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