Book Title: Jain Sahitya Samaroha Guchha 2
Author(s): Ramanlal C Shah, Kantilal D Kora, Pannalal R Shah, Gulab Dedhiya
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay
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जैन दर्शन में दिक् और काल की अवधारणा
एगपदेशो अणुस्सहते ।५८५।। लोगपदेसप्पमा कालो ।५८७१
-गोम्भट सार जीवकाण्ड अर्थात् काल के अणुरत्न राशि के समान लोकाकाश के एक एक प्रदेश में एक एक स्थित है। पुद्गल द्रव्य का एक अणु एक ही प्रदेश में रहता है। लोकाकाश के जितने प्रदेश है उतने ही काल द्रव्य है।
दोनों ही परम्पराओं द्वारा प्रतिपादित कालविषयक विवेचन में जो मतभेद दिखाई देता है, वह अपेक्षाकृत ही है। वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व-अपरत्व काल के लक्षण भी है और पदार्थ की पर्यायें भी है। और यह नियम है कि पर्यायें पदार्थरूप ही होती है। पदार्थ से मिले नहीं। अतः इस दृष्टि से काल को स्वतंत्र द्रव्य न मानकर औपचारिक द्रव्य मानना ही उचित है।
___ कालाणु भिन्न भिन्न हैं । प्रत्येक पदार्थ परमाणु व वस्तु से कालाणु, आयाम रूप से संपृक्त है तथा पदाथ की पर्याय परिवर्तन में अर्थात् परिणमन व घटनाओं के निर्माण में सहकारी निमित्त कार्य के रूप में भाग लेता है। यह नियम है कि निमित्त उपादान से भिन्न होता है। अतः इस दृष्टि से काल को स्वतंत्र द्रव्य मानना उचित ही है।
. उपर्युक्त दोनों परम्पराओं की मान्यताओं के समन्वय से यह फलितार्थ निकलता है कि काल एक स्वतंत्र. सत्तावन द्रव्य है। प्रत्येक पदार्थ से संपृक्त है। पदार्थ में की क्रियामात्र में उसका योग है। आधुनिक विज्ञान भी काल के विषय में इन्हीं तथ्यों को प्रतिपादित करता है। इस शताब्दी के महान वैज्ञानिक आइन्स्टाईन ने सिद्ध किया है कि देश और काल मिलकर एक है और वे चार डायमेंशनों (लम्बाई, चौडाई, मोटाई व काल) में अपना काम करते हैं । विश्व के चतुरायाम गहरण में दिक्काल की स्वाभाविक अतिव्यक्ति से गुजरने के
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