Book Title: Jain Sahitya Samaroha Guchha 2
Author(s): Ramanlal C Shah, Kantilal D Kora, Pannalal R Shah, Gulab Dedhiya
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay
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जैम, साहित्य समारोह - मुन्छ २ प्रयत्न लाघव का फल ही मध्याकर्षण होता है। देश और काल परस्पर स्वतंत्र सत्ताएँ हैं । रिमैन की ज्योतिमिति और आइन्स्टाईन के सापेक्ष्यवाद ने जिस विश्व की कल्पना को जन्म दिया है उसमें देश और काल परस्पर संपृक्त है। दो संयोगों ( इवेन्ट्स ) के बीच का अंतराल (इन्टरवल) ही भौतिक पदार्थ की रचना करने वाले तत्त्वांशों का संबंध सिद्ध हुआ है । जिसे देश और काल के तत्त्वों से अन्वित या विश्लिष्ट कर समझा जा सकता है।
विज्ञानिकों द्वारा प्रतिपादित कालविषयक उपर्युक्त उद्धरणों और जैन दर्शन में प्रतिपादित काल के स्वरूप में आश्चर्यजनक समानता. तो है ही, साथ इनमें आया हुआ दिक्-विषयक वर्णन जैन दर्शन. वर्णित आकाश द्रव्य के स्वरूप को भी पुष्ट करता है। . .
व्यावहारिक काल
ठाणांग सूत्र (४/१३४ ) में काल के ४ प्रकार बताये गये हैं:प्रमाण काल, यथायुर्निवृत्ति काल, मरण काल और अद्धा-काल | काल के द्वारा पदार्थ नापे जाते हैं, इसलिए उसे प्रमाण काल कहा जाता है । जीवन और मृत्यु, भी काल-सापेक्ष हैं, इसलिए जीवन के अवस्थान को यथायुर्निवृत्ति काल और उसके अन्त को मरण-काल कहा जाता है । सूर्य-चन्द्र आदि की गति से सम्बन्ध रखने वाला अद्धाकाल कहलाता है। काल का प्रधान रूप अद्धाकाल ही है। शेष तीनों इसी के विशिष्ट रूप हैं । अद्वाकाल व्यावहारिक काल है । यह मनुष्य लोक में ही होता है । इसीलिए मनुष्य लोक को 'समय-क्षेत्र' कहा गया है। 'समय-क्षेत्र' में वलयाकार से एकदूसरे को परिवष्ठित. करने वाले असंख्य द्वीप समुद्र, हैं। इनमें जम्बू द्वीप, लवण समुद्र, घास की खण्ड, कालोदधि समुद्र, अर्द्ध पुष्कल र द्वीप-ये पांच तिर्यग लोक के मध्य में
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