Book Title: Jain Sahitya Samaroha Guchha 2
Author(s): Ramanlal C Shah, Kantilal D Kora, Pannalal R Shah, Gulab Dedhiya
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay

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Page 416
________________ जैन दर्शन में दिकू और काल की अवधारणा 2 29% स्थित है । निश्वयः काल जीब-अजीब का पर्याय है। वह लोक- अलोक व्यापी है । उसके विभाग नहीं होते, पर अद्धाकाल सूर्य-चन्द्र आदि की गति से सम्बंधित होने के कारण विभाजित किया जाता है इसका सर्वसूक्ष्म भाग समय कहलाता है। आकाश के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में परमाणु गमन करता है, इतने काल का नाम 'समय' है । समय अविभाज्य है । इसकी प्ररूपणा वस्त्र फाडने की प्रक्रिया द्वारा की जाती है । " 6 एक दर्जी किसी जीर्णशीर्ण वस्त्र को एक ही बार में एक हाथप्रमाण फाड़ डालता है। उसके फाड़ने में जितना काल व्यतीत होता है उसमें असंख्यात समय व्यतीत हो जाते हैं। क्योंकि वस्त्र तन्तुओं का बना है । प्रत्येक तन्तु में अनेक रूएँ होते हैं । उनमें भी उपर का रूँआ पहले छिदता है, तब कहीं उसके नीचे का रूँआ छिदता है । अनन्त परमाणुओं के मिलन का नाम संघात है । अनन्त संघातों का एक समुदय और अनन्त समुदयों की एक समिति होती है। ऐसी अनन्त समितियों के संगठन से तन्तु के बनता है । इन सबका छेदन कुमरा होता है उपर का एक रूँआ । तन्तु के पहले रूएँ के छेदन में जितना समय लगता है उसका अत्यन्त सूक्ष्म अंश यानी असंख्यातवाँ भाग ८ 7 कहलाता है: Jain Education International समय " संख्यात कालमान 'समय से लेकर एकपूर्व तक के संख्यात कालमान को इस प्रकार दर्शाया जा सकता है : ( देखें 'भगवती सूत्र', शतक ६, ऊ. ७, सू. ४) अविभाज्य काल ७०yms, ५७०० 'भाग : एक समय ( एक सैकिण्ड के से भी कम ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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