Book Title: Jain Itihas ki Purva pithika aur Hamara Abhyutthana
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

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Page 12
________________ जैन इतिहासकी पूर्व-पीठिका प्रकारकी आवश्यकतायें कल्पवृक्षोले ही पूरी होजाया करती थीं। अच्छे और बुरेका कोई भेद नहीं था। पुण्य और पाप दोनों भिन्न प्रवृत्तियां नहीं थीं । व्यक्तिगत संम्पन्तिका कोई आव नहीं था 'मेरा' और 'तेरा'ऐसा भेदभाव नहीं था । यह अवस्था भोगभूमिकी थी । क्रमशः यह अवस्था बदली। कल्पवृक्षोका लोप होगया । मनुष्यों को अपनी आवश्यकताओंकी पूर्तिके लिये श्रम करना पड़ा । व्यक्तिगत सम्पत्तिका भाव जागृत हुआ। कृषि आदि उद्यम प्रारम्भ हुए। लेखन आदि कलाओका प्रादुर्भाव हुआ, इत्यादि । इस प्रकार कर्मभूमिका प्रारम्भ हुआ।शुद्ध ऐतिहासिक दृष्टिसे विचार करनेपर ज्ञात होता है कि इस भोगभूमिके परिवतेनमें कोई अस्वाभाविकता नहीं है। बल्कि यह आधुनिक सभ्यताका अच्छा प्रारम्भिक इतिहास है। जिन्होंने सुवर्णकाल (Golden age ) के प्राकृतिक जीवन ( Life according to Nature ) का कुछ वर्णन पढा होगा वे समझ सकते हैं कि उक्त कथनका क्या तात्पर्य हो सकता है। आधुनिक सभ्यताके प्रारम्भ कालमें मनुष्य अपनी सब आवश्यकताओको स्वच्छन्द वनजात वृक्षोंकी उपजसे ही पूर्ण कर लिया करते थे। वस्त्रोंके स्थानमें वल्कल और भोजनके लिये फलादिसे तृप्त रहनेवाले प्राणियोंको धन-सम्पतिसे क्या तात्पर्य ? सबमें समानताका व्यवहार था। मेरे और तेरेका भेदभाव नहीं था । क्रमशः आधुनिक सभ्यताके आदि धुरंधरोंने नाना प्रकारके उद्यम और कलाओंका आविष्कार कर मनुष्योंको सिखाया। जैन पुराणों के अनुसार इस सभ्यताका प्रचार चौदह कुलकरों द्वारा हुआ। सबसे पहले कुलकर प्रतिश्रुतिने सूर्य चन्द्रका ज्ञान

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