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जैन इतिहासकी पूर्वपीठिका
और
हमारा अभ्युत्थान
हिन्दी-ग्रन्थ (लाका
成品
लेखक
प्रो० हीरालाल जैन एम० ए०, एल एल० बी०
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श्रीमान् सेठ रामकरनलालजी, थाला-निवासी, की धर्मपत्नी
स्वर्गीय रामकली देवी की स्मृति में
जैन इतिहास की पूर्व पीठिका
हमारा अभ्युत्थान
लेखक प्रो. हीरालाल जैन,
एम् ए., एल एल्. वी.
प्रकाशक हिन्दी ग्रंथ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई
मुद्रक मॅनेजर-सरस्वती प्रेस, अमरावती.
१९३९]
[मूल्य
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जेन इतिहासकी पूर्व-पीठिका
जैन पुराणोंकी प्रामाणिकता जैनधर्मका सर्वमान्य इतिहास महावीर स्वामीके समयसे व उससे कुछ पूर्वसे प्रारंभ होता है। इसके पूर्वके इतिहासके लिये एक मात्र सामग्री जैनधर्मके पुराण ग्रंथ हैं। इन पुराणग्रन्थोंके रचनाकाल और उनमें वर्णित घटनाओंके कालमें हजारों, लाखो, करोडों नहीं अरबों खवौं वर्षों का अन्तर है। अतएव उनकी ऐतिहासिक प्रामाणिकता इस बातपर अवलंबित है कि वे कहांतक प्राकृतिक नियमोंके अनुकूल, मानवीय विवेकके अविरुद्ध व अन्य प्रमाणों के अप्रतिकूल घटनाओंका उल्लेख करते है । यदि ये घटनायें प्रकृति-विरुद्ध हो, मानवीय बुद्धिके प्रतिकूल हों व अन्य प्रमाणोले बाधित हो, तो वे धार्मिक श्रद्धाके सिवाय अन्य किसी आधारपर विश्वसनीय नहीं मानी जा सकती, पर यदि वे उक्त नियमों और प्रमाणोसे बाधित न होती हुई पूर्वकालका युक्ति-संगत दर्शन कराती हो तो उनकी ऐतिहासिकतामें भारी संशय करनेका कोई कारण नहीं होसकता।
जिन इतिहास-विशारदोंने जैन पुराणोंका अध्ययन किया है उनका विश्वास उन पुराणोकी निम्नलिखित तीन बातोपर प्रायः नहीं जमताः
१ पुराणों के अत्यन्त लम्बे चौड़े समय-विभागोंपर । २ पुराणों में वर्णित महापुरुषोंके भारी भारी शरीर-मापोपर व उनकी दीर्घातिदीर्घ आयुपर ।
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४]
जैन इतिहासकी पूर्व-पीठिका ३ कालके परिवर्तनसे भोगभूमि व कर्मभूमिकी रचनाओके
विपरिवर्तनपर। 'पल्य' और 'सागर' के मापोंकी यथार्थता ।
जैन पुराणोंमें अरबो खबों ही नहीं पल्य और सागरों (आधुनिक संख्यातीत) वर्षोंके माप दिये गये हैं। इनको पढकर पाठकोंकी बुद्धि थकित होजाती है और वे झट इसे असम्भव कहकर अपने मनके बोझको हल्का कर डालते हैं। किन्तु विषयपर निष्पक्षतः, वुद्धिपूर्वक विचार करनेसे इन मापोंमें कुछ असम्भवनीयता नहीं रह जाती। यह सभी जानते हैं कि समयका न आदि है और न अन्त । वैज्ञानिक शोध और खोजने यह भी सिद्धकर दिया है कि इस सृष्टिके प्रारम्भका कोई पता नहीं है और न उसमें मनुष्य जीवन के इतिहास-प्रारम्भका ही कुछ कालनिर्देश किया जासकता है। लन् १८५८ ईखीके पूर्व पाश्चात्य विद्वानोंका मत था कि इस पृथ्वीपर मनुष्यका इतिहास आदिसे लेकर अब तकका पूरा पूरा ज्ञात है, क्योंकि 'चाइबिल' के अनुसार सर्व प्रथम मनुष्य 'आदम' की उत्पत्ति ईसासे ४००४ वर्ष पूर्व सिद्ध होती है । पर सन् १८५८ ईस्वीके पश्चात् जो शूगर्भ-विद्यादि विषयोंकी खोज हुई उसले मनुष्यकी उक्त समयसें बहुत अधिक पूर्व तक प्राचीनता सिद्ध होती है। अश इतिहासकार ४००४ ईस्वी पूर्वसे भी पूर्वको मानवीय घटनाओं का उल्लेख करते है। मिश्रदेशकी प्रसिद्ध गुम्मटो (Pyramids) का निर्माण-काल ईस्वीसे पांच हजार वर्ष पूर्व अनुमान किया जाता है। खाल्दिया (Chaldea)
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जैन इतिहास की पूर्व - पीठिका
[ ५
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देशमें ईसा से छह सात हजार वर्ष पूर्वकी मानवीय सभ्यता के प्रमाण मिले हैं। चीन देशकी सभ्यता भी इतनी ही व इससे अधिक प्राचीन सिद्ध होती है। अमेरिका देशमें पुरातत्व शोधके सम्बंध में जो खुदाईका काम हुआ है उसका भी यही फल निकला है। हाल ही में भारतवर्ष के पंजाब और सिन्ध प्रदेशोंके 'हरप्पा ' और ' भोयनजोडेरो' नामक स्थानोंपर खुदाईसे जो प्राचीन ध्वंसावशेष मिले हैं वे भी ईसासे आठ दस हजार वर्ष पूर्व के अनुमान किये जाते हैं । ये सब प्रमाण भी हमें मनुष्यके प्रारम्भिक इतिहासके कुछ भी समीप नहीं पहुंचाते । वे केवल यही सिद्ध करते हैं कि उतने प्राचीन कालमै भी मनुष्यने अपार उन्नति करली थी, ऐसी उन्नति जिसके लिये उन्हें हजारों लाखों वर्षौंका समय लगा होगा। अब चीन, मिश्र, खाल्दिया, इंडिया, अमेरिका, किसी ओर भी देखिये, इतिहासकार ईसाले आठ आठ दस दस हजार वर्ष पूर्वकी मानवीय सभ्यताका उल्लेख विश्वास के साथ करते हैं । जो समय कुछ काल पहले मनुष्यकी गर्भावस्थाका समझा जाता था, वह अव उसके गर्भका नहीं, बचपनका भी नहीं, प्रौढ कालका सिद्ध होता है । जितनी खोज होती जाती है उतनी ही अधिक मानवीय सभ्यताकी प्राचीनता सिद्ध होती जाती है । कहां है अब मानवीय सभ्यताका प्रातःकाल ? इससे तो प्राचीन रोमन हमारे समसामयिकले प्रतीत होते हैं, यूनानका सुवर्ण - काल कलका ही समझ पड़ता है । मित्रके गुम्मटकारों और हममें केवल थोडेसे दिनोंका ही अन्तर पड़ा प्रतीत होता है। मनुष्यकी प्रथमोत्पत्तिका अध्याय आधुनिक इतिहास हीसे उड़ गया है। ऐसी अवस्थामें जैन पुराणकार
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जैन इतिहासको पूर्व-पीठिका मानवीय इतिहासके विषयमें यदि संख्यातीत वर्षों का उल्लेख करें तो इसमें आश्चर्यकी बात ही क्या है ? इसमें कौनसी असम्भाव्यता है ? पुरातत्वज्ञोका अनुभव भी यही है कि मानवीय इतिहास संख्यातीत वर्षोंका पुराना है।
दीर्घ शरीर और दीर्घायु । दूसरा संशय महापुरुषों के शरीर माप और उनकी दीर्घाति दीर्घ आयुके विषयका है । जो कुछ आजकल देखा सुना जाता है उसके अनुसार सैकड़ों हजारों धनुष ऊंचे शरीर के कोड़ाकोड़ी वर्षों की श्रायुपर एकाएकी विश्वाल नहीं जमता। इस विषयमें मैं पाठकोका ध्यान उन भूगर्भ शास्त्रकी गवेषणाऑकी ओर आकर्षित करता हूँ जिनमें प्राचीन कालके बड़े बड़े शरीरधारी जन्तुओका अस्तित्व लिख हुआ है । उक्त खोजोले पचास पचाल लाठ साठ फुट लस्बे प्राणियों के पाषाणावशेष ( Fossils) पाये गये हैं। इतने लम्बे कुछ अस्थिपञ्जर भी मिले हैं। जितने अधिक दीर्घकाय ये अस्थिपंजर व पाषाणावशेष होते हैं वे उतने ही अधिक प्राचीन अनुमान किये जाते हैं। इससे यही सिद्ध होता है कि पूर्वकालमें प्राणी दीर्घकाय हुआ करते थे। धीरे धीरे उनके शरीरका हास होता गया। यह हास-क्रम अभी भी प्रचलित है। इस नियमके अनुसार जितना अधिक प्राचीनकालका मनुष्य होगा उसे उतना ही अधिक दीर्धकाय मानना न केवल युक्तिसंगत ही है, जिन्तु आवश्यक है।
माणिशास्त्रका यह नियम है कि जिस जीवका भारी शारि
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जैन इतिहासकी पूर्व-पीठिका प्रकारकी आवश्यकतायें कल्पवृक्षोले ही पूरी होजाया करती थीं। अच्छे और बुरेका कोई भेद नहीं था। पुण्य और पाप दोनों भिन्न प्रवृत्तियां नहीं थीं । व्यक्तिगत संम्पन्तिका कोई आव नहीं था 'मेरा' और 'तेरा'ऐसा भेदभाव नहीं था । यह अवस्था भोगभूमिकी थी । क्रमशः यह अवस्था बदली। कल्पवृक्षोका लोप होगया । मनुष्यों को अपनी आवश्यकताओंकी पूर्तिके लिये श्रम करना पड़ा । व्यक्तिगत सम्पत्तिका भाव जागृत हुआ। कृषि आदि उद्यम प्रारम्भ हुए। लेखन आदि कलाओका प्रादुर्भाव हुआ, इत्यादि । इस प्रकार कर्मभूमिका प्रारम्भ हुआ।शुद्ध ऐतिहासिक दृष्टिसे विचार करनेपर ज्ञात होता है कि इस भोगभूमिके परिवतेनमें कोई अस्वाभाविकता नहीं है। बल्कि यह आधुनिक सभ्यताका अच्छा प्रारम्भिक इतिहास है। जिन्होंने सुवर्णकाल (Golden age ) के प्राकृतिक जीवन ( Life according to Nature ) का कुछ वर्णन पढा होगा वे समझ सकते हैं कि उक्त कथनका क्या तात्पर्य हो सकता है। आधुनिक सभ्यताके प्रारम्भ कालमें मनुष्य अपनी सब आवश्यकताओको स्वच्छन्द वनजात वृक्षोंकी उपजसे ही पूर्ण कर लिया करते थे। वस्त्रोंके स्थानमें वल्कल और भोजनके लिये फलादिसे तृप्त रहनेवाले प्राणियोंको धन-सम्पतिसे क्या तात्पर्य ? सबमें समानताका व्यवहार था। मेरे और तेरेका भेदभाव नहीं था । क्रमशः आधुनिक सभ्यताके आदि धुरंधरोंने नाना प्रकारके उद्यम और कलाओंका आविष्कार कर मनुष्योंको सिखाया। जैन पुराणों के अनुसार इस सभ्यताका प्रचार चौदह कुलकरों द्वारा हुआ। सबसे पहले कुलकर प्रतिश्रुतिने सूर्य चन्द्रका ज्ञान
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जैन इतिहासकी पूर्व - पीठिका
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मनुष्यको कराया। इस प्रकार वे ज्योतिष शास्त्र के आदि आदिकर्ता ठहरते हैं । उनके पीछे सम्मति, क्षेमंधरादि हुए जिन्होंने ज्योतिष शास्त्रका ज्ञान बढाया, अन्य कलाओंका आविष्कार किया व सामाजिक नियम दण्ड विधानादि नियत किये। जैन पुराणने इस इतिहासको, यदि विचार किया जाय तो सचमुच बहुत अच्छे प्रकारसे सुरक्षित रक्खा है।
धर्मके संस्थापक |
कुलकरोंके पश्चात् ऋषभदेव हुए जिन्होंने धर्मकी संस्थापना की । इनका स्थान जैसा जैन पुराणोंमें है वैसा हिन्दू पुराणों में भी पाया जाता है। वहां भी वे इस सृष्टिके आदिमें स्वयंभू मनु से पांचवी पीढीमें हुए बतलाये गये हैं, और वे ईशके अवतार गिने जाते हैं । उनके द्वारा धर्मका जैसा प्रचार हुआ उसका भी वहां वर्णन है। जैन पुराणोंमें कहा गया है कि ऋषभदेवने अपनी ज्येष्ठ पुत्री 'ब्राह्मी' के लिए लेखनकलाका आविष्कार किया । उन्हीके नामपर से इस आविष्कृत लिपिका नाम ' ब्राह्मी लिपि ' पड़ा । इतिहासज्ञ ब्राह्मी लिपिके नामसे भलीभांति परिचित हैं । आधुनिक नागरी लिपिका यही प्राचीन नाम है । ऋषभदेवके ज्येष्ठ पुत्रका नाम भरत था जो आदि चक्रवर्ती हुए । भरत चक्रवर्तीका नाम हिन्दू पुराणोंमें भी पाया जाता है, यद्यपि उनके वंशका वर्णन वहां कुछ भिन्न है । इन्ही भरत के नामसे यह क्षेत्र भारतवर्ष कहलाया ।
हिन्दू पुराणोंमें ऋषभदेवके पश्चात् होनेवाले तीर्थकरोंका उल्लेख अभीतक नहीं पाया गया, पर जैन ग्रंथों में उन सब पुरुषों का चरित्र वर्णित है जिन्होंने समय समय पर ऋषभदेव द्वार
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जैन इतिहास की पूर्व - पीठिका
स्थापित धर्मका पुनरुद्धार किया। ज्यों ज्यों हम ऐतिहासिक कालके समीप आते जाते हैं त्यो त्यो जैनधर्मके उद्धारकौका परिचय अनेक प्रमाणोंसे सिद्ध होने लगता है। बाइसवें तीर्थंकर नेमिनाथ के विषयकी अनेक घटनाओं का समर्थन हिंदू पुराणोंसे होता है । तेइसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ तो अब ऐतिहालिक व्यक्ति माने ही जाने लगे है। इनके जीवन के सम्बन्धमे नागवंशी राजाओंका उल्लेख आता है । इस वंशके विषयपर ऐतिहासिक प्रकाश पड़ना प्रारम्भ हुआ है । चौवीसवे तीर्थंकर महावीरका समय तो जैन इतिहासकी कुंजी ही है। वैज्ञानिक इतिहासने धीरे धीरे महावीरकी ऐतिहासिकता स्वीकार करके क्रमसे पार्श्वनाथ तक जैन धर्मकी शृंखला ला जोड़ी है । आश्चर्य नहीं, इसी प्रकार वैज्ञानिक शोध से धीरे धीरे अन्य तीर्थकरोंके समयपर भी प्रकाश पड़े ।
जैन भूगोल
भारतवर्षका जो भूगोल - सम्बन्धी परिचय जैन पुराणोंमें दिया है वह भी स्थूल रूपसे आजकलके ज्ञानके अनुकूल ही है । भरतक्षेत्र हिमवत् पर्वतसे दक्षिणकी ओर स्थित है। इसकी दो मुख्य नदियां हैं। गंगा और सिंधु । वे दोनो नदियां हिमवत् पर्वत परके एक ही 'पद्म' नाम सरोवर से निकलती हैं। गंगा पूर्वकी ओर बहती हुई पूर्वीय समुद्र में गिरती है और सिन्धु पश्चिम की ओर बहती हुई पश्चिम समुद्र में गिरती है। कुलकरों और तीर्थकरों का जन्म गंगा और सिन्धुके वीचके प्रदेशोंमें ही हुआ था । यह वर्णन किसी प्रकार गलत नही कहा जासकता ।
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हमारा इतिहास
इतिहास साहित्यका एक बड़ा महत्वपूर्ण अंग है, और देश व जाति का जीवन - रस है । जिस साहित्य में इतिहास नहीं, वह साहित्य अपूर्ण है । जो जाति अपना इतिहास नही जानती उसके जीवन में चैतन्य, स्फूर्ति, स्वाभिनान और आशा का अभाव सा रहेगा | जबतक हम अपनी सभ्यता और शिष्टता के विकास-क्रम से अनभिज्ञ हैं, तबतक हम उसमें वास्तविक उन्नति नही कर सकते । इसलिये यह अत्यंत आवश्यक है कि हम अपने साहित्य में इतिहास के अंगको खूब पुष्ट करें और तत्संबन्धी त्रुटियों और प्रचलित भ्रमात्मक धारणाओं को दूर करने की ओर सदैव ध्यान देते रहे ।
सभ्यता के जितने अंग हैं उन सबका इतिहास हमारे साहित्य में होना नितान्त आवश्यक है । सभ्यता के मुख्य अंग हैं समाज और राजनीति, धर्म और सदाचार तथा विज्ञान और भाषा । इन सभी विषयोंपर विद्वान् लेखकोंद्वारा हिन्दी में अबतक बहुत कुछ साहित्य तैयार हो चुका है। रायबहादुर गौरीशंकरजी ओझाने पहले ही पहल बड़े परिश्रम और खोजसे 'भारतीय प्राचीन लिपिमाला' प्रस्तुत करके शिलालेखों व ताम्रपों आदि के पढ़े जानेका मार्ग सुलभ वना दिया । उनका यह ग्रंथ डा. बुलर की Indian Palaeography से भी पूर्व बन चुका था। ओझाजी अभी जो राजपुतानेका इतिहास लिख रहे
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हमारा इतिहास हैं और जिसके तीन खंड अवतक निकल चुके हैं वह हिन्दी में भारत के इतिहास में गौरवकी चीज है । श्रीयुत काशीप्रसादजी जायसवाल का जो Hindu Polity नामक ग्रंथ इतिहास संसारमें यशस्वी हुआ है उसका विषय प्रथमतः विद्वान् लेखक द्वारा हिन्दी में ही भागलपुरमें हुए हिन्दी साहित्य सम्मेलन के चतुर्थ अधिवेशन पर एक निबन्ध के रूपमें प्रस्तुत हुआ था। जायसवालजीकी ऐतिहासिक सेवायें अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं, यद्यपि अपनी खाजों को जगद्व्यापी बनाने के हेतु उन्होने विशेषतः अंग्रेजी में ही अपने ग्रंथ रचे हैं। पं. चन्द्रधर गुलेरी ने पुरानी हिन्दी के विषयपर जो लेख नागरी प्रचारिणी पत्रिका में लिखे थे वे हिन्दी भाषाके इतिहास के लिये बड़ेही महत्वपूर्ण सिद्ध हुए, और उनके लिये उस पत्रिका का आदर युरोपीय विद्वानों में भी विशेष रूपसे हुआ। इस दिशामें गुलेरीजीने जो कार्य प्रारम्भ किया था, शोक है, वे उसे अपनी असा. मयिक मृत्युके कारण पूरा न कर पाये। स्वयं रायबहादुर डा. हीरालालजीने भारतीय पुरातत्व में जो कार्य किया उसमें यहांपर उल्लेखनीय उनके वे गजेटियर हैं जिनमें उन्होने मध्यप्रदेश के एक एक जिले का लागपूर्ण इतिहास संग्रह किया है। ये गजेटियर उन्होने सरल लोकप्रिय शैलीमें लिखे हैं। वर्तमान में महापंडित त्रिपिटकाचार्य श्री राहुल सांकृत्यायनजी तिब्बत और भारतके सम्बन्धीय इतिहास के एक बड़े भारी विद्वान हैं । उनका जो 'तिब्बत में सवा वर्ष ' नामक ग्रंथ अभी अभी प्रकाशित हुआ है उसका विद्वत्संसार में अच्छा आदर हो रहा है। वह अब अंग्रेजी में भी अनुवादित हो रहा है। बौद्ध
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हमारा इतिहास
[१३ धर्म के सिद्धों और संतोंके साहित्य और इतिहास का राहुलजी जो उद्धार कर रहे हैं वहभी उल्लेखनीय है । इस इतिहास परिषद् के मनोनीत सभापति श्री जयचंद्रजी विद्यालंकार अपनी अनुपम गवेषणाओद्वारा भारतीय इतिहास की सम्पत्तिमें असाधारण वृद्धि कर रहे हैं । आपके अभीतक जो 'भारतभूमि और उसके निवासी' तथा 'भारतीय इतिहास की रूपरेखा' नामक दो ग्रंथ प्रकाशित हुए हैं उनसे भारतका इतिहास एक तरह से बहुत ही सजीव हो उठा है। आप भारतीय इतिहासकी अनेक उलझनों और गुत्थिओंको बहुत ही उत्तमता से सुलझाने का प्रयत्न कर रहे हैं। इस समय आपका भारतीय इतिहास का दिग्दर्शन' तैयार हो रहा है।
यह जो इतिहास-सम्बन्धी कार्य हिन्दी भाषामें अवतक हुआ है और हो रहा है उसका हमें गर्व है। किन्तु अभी भी इस साहित्य को बढानेका विपुल क्षेत्र हमारे सामने पड़ा है। देश के ज्ञान-विज्ञान व कला-कौशल सम्बंधी इतिहास हिन्दी साहित्य में अभीतक बहुत ही कम है। भापा सम्बंधी इतिहास की खोज वस्तुत अभी प्रारम्भ ही हुई है। कितने ग्रंथ हिन्दी में ऐसे हैं जिनमें देशका धार्मिक इतिहास सुन्दरता और प्रामा. णिकता से वर्णन किया गया हो ? स्कूली किताबोंको छोड़कर हिन्दी में सामाजिक व राजनैतिक इतिहासका यथार्थ परिचय करानेवाले ग्रंथ इने गिने ही हैं। इन सव विषयोंका इतिहास प्रारम्भ में एक एक कालका, शताब्दि या अर्धशताब्दि का, एक एक प्रदेश का, अलग अलग, लिखा जाना और फिर उनका सामञ्जस्य बैठाना आवश्यक है। जिस तरह महाराष्ट्रमें ऐति
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हमारा इतिहास
हासिक कागज पत्र, बखरे आदि संग्रह करके प्रकाशित की गई हैं, हिन्दी भाषी प्रान्तों में वैसा कोई उद्योग अभीतक नहीं हुआ है। बुन्देलखण्ड मालवा और राजपुताना की देशी रियासतों में इस तरह की प्रचुर सामग्री राजकीय पुस्तकालयों में पड़ी है, जो मध्यकालीन इतिहास के लिये अत्यन्त उपयोगी हो सकती है । अनेक देशी राज्यों, जैसे उदयपुर आदि में पुरातत्त्व विभागका संगठन न होनेसे वहां के महत्वपूर्ण इतिहासोपयोगी प्राचीन स्मारक विध्वंस हो रहे हैं। इसी मध्यप्रदेश में अनेक छोटी मोटी रियासतें और जागीरें हैं जिनका इतिहास यद्यपि कुछ कुछ अंग्रेजी गजेटियरों में संकलित किया गया है, पर सजीव और लोकप्रिय रीतिसे हिन्दी में बहुत ही कम लिखा गया है । हमें ऐसी लोक- रुचि ऐतिहासिक बातों में उत्पन्न करने की आवश्यकता है कि जिससे जहां कहीं भी कोई छोटे मोटे ऐतिहासिक स्मारक पाये जावें उनका विध्वंस न होकर रक्षण हो सके ! यदि ध्यान दिया जावे तो लोक कथाओं में, ग्रास्य गीतों में, पुरानी चिट्ठी पत्रियों में व ग्रंथ - प्रशस्तियों में न जाने कितनी ऐतिहासिक सामग्री बिखरी हुई मिल सकती है । जैनियों के प्राचीन ग्रंथ-भंडारों में इस तरहकी बहुत सामग्री पाई जाती है। गुजरात में इस दिशा में बहुत कुछ कार्य हुआ है ।
देशी और विदेशी विद्वानोंद्वारा भारतीय इतिहास के सम्बन्ध में जो कुछ खोजें होती हैं वे प्रायः अंग्रेजी पाठकों को ही सुलभ होती हैं । आवश्यकता है कि उन सब खोजों का हिन्दी पाठकों को भी परिचय कराया जाय । अंग्रेजी में जो इतिहास के साधन, शिलालेख, ताम्रपत्रादि प्रकाशित हुए हैं वे भी संग्रह
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हमारा इतिहास
[१५ करके हिन्दी में प्रकाशित किये जाना चाहिये। अंग्रेजी में यह सामग्री बहुतही मंहगी है जिसे साधारण लोग खरीद नहीं सकते । हिन्दी में हो जाने ले अंग्रेजी के पाठक भी इस सस्ताई के कारण खरीदना चाहेंगे। ___ अभीतक हिन्दी साहित्य के अनेक इतिहास लिने जा चुके हैं, किन्तु उनका वह भाग अभीतक भी बहुत त्रुटिपूर्ण है जो हिन्दी की उत्पत्ति से सम्बन्ध रखता है। इसका मुख्य कारण यह है कि उनके विद्वान् लेखकों का ध्यान अपभ्रंश लाहित्य की
ओर नहीं गया है जो कि प्राचीन पुस्तक-भंडारों में बहुत बडी तादाद में पडा है और पिछले दसबारह वर्षों में जिसके एक दर्जन से भी अधिक ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं। वर्तमान प्रांतीय भाषाओंका मूल इसी अपभ्रंश साहित्य में मिल सकता है, और इसलिये उसका गहराई के साथ अध्ययन किये विना न तो हिंदी साहित्य का प्रारम्भिक इतिहास लिखा जा सकता है और न उसका क्रमिक विकास ही बतलाया जा सकता है। इस विषयपर अधिकारपूर्ण लेखनी वे ही उठा सकते हैं जो संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश तथा प्रचलित देशी भाषाओका यथेष्ट ज्ञान रखते हो।
इस अपभ्रंश भाषा के अनेक ग्रंथों में प्राचीन राजकीय इतिहास की भी बहुतली वार्ता मिल जाती है। एक नागकुमार चरित (णायकुमार-चरिउ) नामक अपभ्रंश काव्य के परिशीलन से मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि 'नाग' केवल किस्ले कहानी का शब्द नही, किन्तु एक जीती जागती मनुष्य जाति का नाम था। यह जाति एक लमय भारत वर्षके प्रायः सभी भागों में विखरी हुई थी और राजकीय सत्ता रखती थी। । उनकी एक अलग सभ्यता और शिष्टता थी जो अपने ढंग की
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हमारा इतिहास
चढी बढी और निराली थी, तथा जो आर्य लोगों को प्रारम्भ में कुछ विलक्षण सी जँचती थी। पर धीरे धीरे आर्य लोग उनसे मिलने जुलने लगे और उनकी कन्याओं को भी विवाहने लगे । ये कन्यायें बड़ी सुन्दर और शिष्ट समझी जाती थीं । नागों का एक उन्नति-शील और राजकीय सत्ता रखनेवाला दल एक समय उस स्थान पर भी प्रतिष्ठित था जहां हम और आप आज उनका ऐतिहासिक विवेचन करने के लिये सम्मिलित हुए हैं। यह बात अन्य प्रमाणों के अतिरिक्त ' नागपुर ' नाम और उसके आसपास की भूमि से अबतक गूंज रही है । नागपुर के पास ही रामटेक पर शायद नागों की वह राजधानी रही है जो पुराणों में पाताल लोक की राजधानी भोगवती के नाम से प्रसिद्ध है । यहीं पर कदाचित् नागों का एक बड़ा भारी विद्या का केन्द्र था जिसे हम यदि नाग यूनीवर्सिटी कहें तो अनुचित न होगा। वहां कैसी कैसी कलायें सिखाई जाती थीं उनका नागकुमार-चरित में उल्लेख है । वहां उक्त काव्य के नायक नागकुमार के समान दूसरे दूसरे प्रदेशों से विद्यार्थी विद्यो पार्जन के लिये आते थे। नागों का ध्वज - चिन्ह सर्प था जिससे 'नाग' सर्प का पर्यायवाची शब्द बन गया । इस इतिहास की दृष्टि से यह बहुत ही उपयुक्त जँचता है कि नागों के विद्याकेंद्र के स्थानापन्न नागपुर विश्वविद्यालय ने भी सर्प को अपना विशेष चिन्ह स्वीकार किया है । दूसरे अपभ्रंश व इतर काव्यों व शिलालेखों से यह भी सिद्ध होता है कि इस नाग राज्य की सीमा से लगे हुए विद्याधर व असुर वंशों के राज्य भी थे, इत्यादि । इस प्रकार इस अपभ्रंश साहित्य के परिशीलन और अध्ययन से हिन्दी भाषा और देशीय इतिहास दोनों पर अच्छा प्रकाश पड़ता है ।
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प्राचीन इतिहास निर्माण के साधन
लभ्यता का पूरा इतिहास नहीं लिखा जा सकता। रोम और ग्रीस (यूनान) की प्राचीन सभ्यता का पूरा चित्र-पट खींचना भी इसी कारण बहुत कठिन हुआ है, क्योंकि उसका भी सिलसिला आज से बहुत पहिले टूट गया है । किन्तु भारतवर्ष की आर्यजाति का हाल दूसरा ही है । यहां के वर्तमान रीतिरिवाज, रहन-सहन, धर्म, कर्म, ज्ञान, कला-कौशल, नीति इत्यादि प्रतिदिन के कार्यों पर प्राचीनता की ऐसी छाप लगी हुई है कि भूतकाल से पृथक् वर्तमान भारत का कोई मतलब ही नहीं होता। अभी तक भारत का शृङ्खलाबद्ध इतिहास तैयार किये बिना देश की अवस्था को समझने का जो प्रयत किया गया है, उसका वही फल हुआ है, जो ऊपर कही हुई कहानी से दर्शाया गया है ।
इतिहास - निर्माण की अभिरुचि ।
जब अठारहवीं शताब्दि के मध्य भाग में कुछ पाश्चात्य विद्वानों को भारत का इतिहास तैयार करने की रुचि हुई, तब उन्हें मुसलमानी काल के पूर्व की कोई भी घटना, कोई स्मारक, कोई ग्रंथ व कोई ऐतिहासिक व्यक्ति ऐसा नहीं मिलता था जिसका कि समय सन्देहास्पद न हो । अतएव लोगों की यह धारणा हो गयी कि भारतीयों का, मुसलमानी समय से पूर्व कां, कोई इतिहास ही नहीं है, मानो आर्य सभ्यता का श्रीगणेश चारहवीं शताब्दि में ही हुआ हो । यह भूल बहुत समय तक बनी रही । इसका कारण एक तो यहां के पण्डितों की इतिहास की ओर उदासीनता थी, और दूसरा योरप के लोगों का यहाँ
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प्राचीन इतिहास निर्माण के साधन [१९ के साहित्य से अपरिचय । इस समय तक भारत के विद्वानों को देश के इतिहास का महत्व विदित नहीं हुआ था। इस कारण उनका ध्यान इतिहास की खोज की ओर नहीं गया था। अंग्रेजों का संस्कृत से अपरिचित होना स्वाभाविक ही था। कई योरपियन तो यहाँ तक भ्रम में थे कि वे संस्कृतसाहित्य को ब्राह्मणों की केवल जालसाज़ी-मात्र ही समझ बैठे थे।
इतिहास-निर्माण का प्रारम्भिक इतिहास ।
संस्कृत का ज्ञान प्राप्त करने की आवश्यकता पहिलेपहिल " ईस्ट इण्डिया कम्पनी " के कर्मचारियों को सन् १७७५ ईसवी में जान पड़ी। अदालतों के सुभीते के लिए उस समय के गवर्नर जनरल वारन हेस्टिंग्ज़ ने यहां के पण्डितों से स्मृतियों व अन्य धर्मशास्त्रों के आधार पर एक न्याय-कोप (कानून का ग्रन्थ ) तैयार कराया, जो स्वभावतः संस्कृत में तैयार हुआ। अब प्रश्न यह उठा कि अंग्रेज न्यायाधीशों के समझने के लिए इसका अंग्रेज़ी में अनुवाद कैसे हो । अन्त में, जव संस्कृत से अंग्रेज़ी में अनुवाद कर सकनेवाला कोई विद्वान् न मिल सका, तब वह पुस्तक फारसी में अनुवादित करायी गयी और उसपर से एक अंग्रेजी प्रति तैयार हुई। अनुभवी अंग्रेजों के हृदय पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा और उसी समय से बहुतेरे विद्वानों का ध्यान संस्कृत की ओर आकर्पित हुआ।
सन् १७८४ ईसवी में कलकत्ता-हाईकोर्ट के न्यायाधीश सर विलियम जोन्स के प्रयत्न से पशिया के इतिहास, शिल्प,
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२०] प्राचीन इतिहास निर्माण के साधन साहित्य आदि की खोज और शोध के लिए कलकत्ते में " एशियाटिक सोसाइटी आच बैंगाल" नाम की समाज स्थापित हो गयी। इसके दो ही वर्ष के उपरान्त इन्हीं जोन्स महोदय ने इस बातकी घोषणा की कि संस्कृत की बहुतसी धातुएँ तथा शब्द-रूप ग्रीक, लैटिन, फारली आदि आषाओं के शब्दों से ठीक ठीक मिलते हैं। अतएव इससे विदित होता है कि इन लब भाषाओं की उत्पत्ति का मूल एक ही है । वस, यहीं ले तुलनात्मक शब्द-विज्ञान-शास्त्र (Comparative Philology) का आरम्भ हुआ, जिससे सभी भाषाओं के प्राचीन इतिहासपर बहुत प्रकाश पड़ा है । इस चमत्कारिक खोज ने घोरप और अमेरिका के प्रायः सभी देशों में संस्कृत अध्ययन की रुचि पैदा कर दी और पचास ही वर्षों के भीतर एक के बाद एक इंग्लैण्ड, फ्रान्स, जर्मनी, इटली, अमेरिका, जापान इत्यादि देशों में "बंगाल-समाज" के समान समाएँ स्थापित हो गयीं । इन समाजों के उत्साह और आदर्श ने लोगोंमें बड़ी जागृति कर दी। बड़े बड़े अनुसन्धानकर्ता दत्तचित्त होकर प्राचीन इतिहास की सामग्री इकट्ठी करने से लग गये, जिसका फल यह हुआ है कि प्राचीन भारत की ऐतिहासिक तिमिरराशि धीरे धीरे बहुत कुछ नष्ट हो गयी है और होती जाती है।
इतिहासातीत-काल। सब देशों में प्राचीन से प्राचीन काल की मानवीय सभ्यता के जो स्मारक मिले है, उनसे पुरातत्व-विशारदों ने निश्चित किया है कि मानुपी सभ्यता का विकाल-क्रम भिन्न भिन्न काल
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प्राचीन इतिहास निर्माण के साधन [२१ में बहुतायत से उपयोग में लायी गयी धातुओं के समझने से बहुत कुछ स्पष्ट हो जाती है। उनका मत है कि सबसे प्रथम मनुष्य अपनी आवश्यकता की वस्तुएँ, जैले, औद्योगिक औजार, लड़ाई के हथियार, घड़े इत्यादि, पत्थरों की बनाया करते थे। इस काल को वे पाषाणकाल ( Stone Age) कहते है। धीरे धीरे ये ही पत्थर की वस्तुएँ सुडौल और चिकनी बनायी जाने लगीं । क्रमशः मनुष्य ने काँसा धातु का और फिर आगे चल. कर लोहे का उपयोग लीखा । ये दोनो काल क्रम से काँसाकाल ( Bronze Age) और अयस्काल व लोह-काल ( Iron Age) कहलाते हैं। इसी अयस्काल से मनुष्य की चमत्कारिक सभ्यता का इतिहास प्रारम्भ होता है।
योरप, मिसर और पश्चिमी एशिया के कुछ देशों में तो इन तीनों काली के चिन्ह मिले हैं, किन्तु भारतवर्ष में कॉस की कोई प्राचीन वस्तुएँ नहीं मिली। इसीसे माना जाता है कि भारतवर्ष में काँला-काल आया ही नहीं । काँसे के स्थान में यहाँ तांबे के उपयोग के प्रमाण उपलब्ध हुए हैं । इससे अनुमान किया जाता है कि यहाँ पापाण के पश्चात् ताँवा काम में लाया जाने लगा । यही भारत का ताम्र-काल है। उसके बाद लोहे का उपयोग बढ़ा । सवसे पहिले यहाँ सन् १८६१ ईसवी में मिले० मसुरियर ने कोई वस्तु पापाण-काल की खोज निकाली थी। इसके पश्चात् धीरे धीरे दक्षिण के प्रान्तों में बहुतेरी चीजें ऐसी मिली है, जिन्हें पुरातत्वज्ञ पाषाण-काल और लोह-काल की अनुमान करते हैं । सन् १८७० ईसवी में ताँबे के ४२४ हथियार और औजारों की एक पेटी मध्यभारत के गंगेरिया नामक स्थान
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२८]
प्राचीन इतिहास निर्माण के साधन समझते हैं, उन्हें इन ऊपर के अन्थों में कोई ऐतिहासिक महत्व दिखायी नहीं देगा। पर देश का पूरा और सच्चा इतिहाल वही है, जिसमें देश की धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक, वैज्ञानिक व आर्थिक अवस्था का सिलसिलेवार वर्णन पाया जावे। राजघरानों का लन्-संवतो-सहित वर्णन इतिहास का एक अंगमान है । इतिहास के दूसरे अंगों की पूर्ति के लिए ऊपर बताये हुए ढंग के ग्रंथों की छानबीन नितान्त आवश्यक है । देश का सच्चा गौरव इतिहास के इन दूसरे अंगों से ही विदित होता है।
पुराण ।
ब्राह्मण साहित्य में प्राचीन इतिहास के लिए सबसे अधिक सामग्री हमें पुराणों, विशेषतः विष्णु, वायु, मत्स्य, ब्रह्माण्ड, भागवत, मार्कण्डेय और भविष्यपुराण, से मिलती है। इनमें महाभारत काल से लगाकर गुप्त-काल तक के राजाओं की वंशावलियाँ और राज्य करनेकी अवधि दी है, और सुख्य मुख्य घटनाओं का भी उल्लेख आया है। शिशुनागवंश (ई० लन् के पूर्व छठवीं शताब्दि ) के पूर्व के इतिहास के लिए तो इनके कथन विशेष उपयोगी नहीं हैं, पर शिशुनाग-वंश से आगे के राजाओं का इतिहास बहुत कुछ विश्वसनीय है । बीच बीच में इनके कथनों का समर्थन दूसरे प्रमाणों, जैसे विदेशियों के वर्णन
व शिलालेख इत्यादि ले भी हो जाता है और इन्ही प्रमाणों के .प्रकाश में हमें पुराणों के कथनों में कुछ हेर फेर भी करने पड़ते हैं। पर पुराणों में कई ऐसी त्रुटियाँ पायी जाती हैं, जिनके
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प्राचीन इतिहास निर्माण के साधन कारण, यदि दूसरे प्रमाण न होते तो, इतिहास में बड़ी गड़बड़ी मच जाती । प्रथम तो कई स्थानों में एक ही समय के राजवंशों को क्रमागत चतलाया है, जिससे उनका समय बहुत बढ़ गया है। उदाहरणार्थ, चन्द्रगुप्त मौर्य से लगाकर कैलकिल यवन नरेशों तक पुराणों के अनुसार २,५०० वर्ष का समय चीता। चन्द्रगुप्त का समय ईसवी सन् के पूर्व ३२० मैं मानने से फैलकिल यवनों का समय सन् २,२०० ईसवी में पढ़ता है। पर यथार्थ में कैलकिल यवनों का राज्य ईसा की छठवीं शताब्दि के लगभग रहा है। दूसरे, कई बड़े बड़े राजवंशों का पुराणों में कोई स्पष्ट उल्लेख तक नहीं पाया जाता । कुशान-वंश के कनिकादि प्रतापी राजाओं का, व पश्चिम के शफवंशी राजाओं का पुराणों में कहीं पता नहीं है । तीसरे, इनमें कोई खास सन् संवत् नहीं दिया गया, जिससे समय-निर्णय में बढ़ी कठिनाई पड़ती है। चौथे स्वयम् भिन्न भिन्न पुराणों के राजाओं के नाम व उनके राज्य-काल के विपय में विरोध पाया जाता है। ___ इन त्रुटियों के होते हुए भी पुराणों की ऐतिहासिक उपयोगिता कुछ कम नहीं है। जिस समय के लिए दूसरे कोई ऐतिहासिक साधन नहीं मिलते, अथवा जहाँ पर इनके कथनों का कोई प्रवल विरोधी प्रमाण नहीं पाया जाता, वहाँ सर्वथा पुराण ही प्रमाण हैं। प्रायः शिशुनागवंश से लगाकर मौर्य, शुंग, कण्व, आन्ध्र आदि वंशों की पूरी पूरी नामावलियां पुराणों ही से ली जाती हैं।
पुराणों के निर्माण-काल के सम्बंध में बहुत विद्वानों का मत यह है कि इनकी रचना गुप्त राजाओं के समय में (ईसवी
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चलाया । हूणवंशी मिहिरकुल का जैन-पुराणों के कल्किराज सिद्ध हो जाने से मिहिरकुल के समय-निर्णय से बहुत सहायता मिलती है ।
काव्य-ग्रन्थ
आर्य - साहित्य में ऐतिहासिक सामग्री समय समय पर लिखे गये काव्य, नाटक, चम्पू आदि ग्रन्थों से भी मिलती है । सन् १९४९ ईसवी के लगभग लिखी गयी कल्हण पण्डित की राजतरंगिणी में पुराणों के अनुसार महाभारत काल से लगाकर लेखक के समय तक का इतिहास संस्कृत-पद्य में दिया गया है। प्रारम्भ में कल्हण ने अपनेसे पहिले के बड़े बड़े इतिहास-लेखकों के नाम दिये हैं व उनके ग्रन्थों के गुण-दोष बतलाये हैं । इसके अनुसार सुवृत्त, क्षेमेन्द्र, नीलमुनि, हेलाराज, पद्ममिहिर और छविल्लाकर नामके मुनियों ने बड़े बड़े इतिहास लिखे थे, जिनमें से, जान पड़ता है, कुछ कल्हण कवि को उपलब्ध थे । पर अब इनके ग्रन्थों का पता नही चलता ।
राजतरंगिणी के कथन छठवीं शताव्दि से लगाकर बारहवीं शताब्दि तक के लिए तो बहुत ठीक ज्ञात होते हैं, पर इसके पूर्व के इतिहास में यहाँ भी पुराणों जैसी गड़बड़ी पायी जाती है। इसके अनुसार सम्राट् अशोक ईसा के पूर्व बारहवीं शताब्दि में हुए । पर इस राजा का ईसवी सन् के पूर्व तीसरी शताब्दि में होना सिद्ध हो चुका है। इसी प्रकार मिहिरकुल के भारत- आक्रमण का समय ईसवी सन् के पूर्व छठवीं शताब्दि मैं बतलाया गया है, जो यथार्थ में इस समय से एक सहस्त्र
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३८1 प्राचीन इतिहास निर्माण के साधन उस समय के भारत का जितना हाल उसने देखा और सुना, उसको उसने अपनी एक पुस्तक में लिखा था। दुर्भाग्य-वश : वह ग्रन्थ हमें प्राप्त नहीं हुआ है, पर उसके पीछे होनेवाले बहुतसे यूनानी लेखकों ने उस ग्रन्थ से जो कुछ उद्धृत किया है, उसी से हमें मैगस्थनीज़ का भारत-वर्णन का पता चलता है। मैगस्थनीज़ का सम्बन्ध राजदरवार से था; इसलिये उसने नैतिक बातों का जो विवरण दिया है, वह बहुत यथार्थ और विश्वसनीय है, क्योंकि उसकी पुष्टि अशोक के शिलालेखों से एवम् विशाखदत्त के मुद्राराक्षस तथा हाल ही में प्राप्त उसी काल के अति प्रामाणिक ग्रन्थ चाणक्य के ' अर्थशास्त्र' ले होती है । मैगस्थनीज़ ने मौर्यवंशीय राजधानी पाटलीपुत्र, राजा की दिनचर्या, नगर, प्रान्त, गुप्तचर, सेना व न्याय आदि के प्रबन्ध का जो चित्र खींचा है, वह मुख्य-मुख्य बातों में उपर्युक्त ग्रन्थों के समान ही है। पर उसने जो केवल श्रुत बाते ही लिखी हैं, उन्हें पढ़कर आश्चर्य होता है कि मैगस्थनीज़ जैसे सूक्ष्मदर्शी इतिहास-लखक ने ऐसी असम्भव बातों का वर्णन क्यो कर किया! वह लिखता है कि भारत में कई मनुष्य-जातियाँ ऐसी हैं, जिनके मुख नहीं होता, तथा जिनके एक ही आँख होती है। यद्यपि इन बातों का इतिहास से कोई सम्बन्ध नहीं है, तथापि लेखक की सरल विश्वासपरता का परिचय कराने के लिए इन वातों का उल्लेख किया गया है। चूंकि मैगस्थनीज़ की मूल पुस्तक हमें प्राप्त नहीं है, इसलिये यह भी सम्भव है कि ये वाते उसकी रचना से उद्धृत करनेवाले लेखकों ने जनश्रुति के आधार पर जोड़ दी हो।
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वंशावली दी रहती है। प्रयाग के किले में विद्यमान समुद्रगुप्त (३२६-३७५) के एक बड़े भारी स्तस्म पर के लेख में इस राजा की दिग्विजय का वर्णन है, जिसमें उस समय के उत्तर और दक्षिण भारत के प्रायः सभी राज्यों व राजाओं का उल्लेख है। इनमें से बहुत से नामों का तो ऐतिहासिक पता लग गया है, पर कितने ही अभीतक विवादग्रस्त हैं। बहुतों का मत है कि कालिदाल ने रघुवंश के चौथे वर्ग में रघु की दिग्विजय का वर्णन समुद्रगुप्त की हनी विजययात्रा के आधार पर किया है। इस लेख की भाषा और इसके पश्चात् के कुमारगुप्त के मन्दलोर के लेख (लन् १७३-७४ ईसवी) की कविता-शैली शब्द-प्रयोग तथा वर्णन का ढंग और अलंकारों की योजना कालिदास के काव्यों ले बहुत कुछ मिलती है। इस पर खे कुछ विद्वान् अनुमान करते हैं कि यह महाकवि इन्हीं गुप्त राजाओं के समय में हुए हैं। इस मत का कुछ-कुछ समर्थन दूसरे कई प्रमाणों से भी होता है। चन्द्रगुप्त द्वितीय (सन ३७५-४१३ ई० के सिक्कों पर से उसका दूसरा नाम विक्रमादित्य भी पाया जाता है और कालिदास के विषय में भी यह जनः श्रुति है कि ये विक्रमादित्य के दरबार में थे। मेघदूत में इन्हों ने हूणों का निवास स्थान वक्षु (Oxus ऑक्लस) नदी का तीर बताया है । इतिहास से पता चलता है कि हूण लोगों का निवास ऑक्सस के किनारे सन् ४५० ईसवी के लगभग था। इसके कुछ ही पश्चात् उन्होंने भारत पर आक्रमण किया।
बहुत ले लेख मन्दिरों व देव-मूर्तियों की स्थापना के स्मारक होने से, च कई लेखों के मंगलाचरणों पर से वे उस
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प्राचीन सिक्के प्राचीन शिलालेखों के समान प्राचीन सिक्कों से भी भारत के इतिहास-निर्माण में बहुत सहायता मिलती है। शिलालेखों के साथ ही इस साधन पर भी विद्वानों की दृष्टि पहुंची । यथार्थ में शिलालेखों के पढ़े जाने की कुजी प्राचीन-सिक्कों से ही मिली । ब्राही और खरोष्ट्री लिपि के जिन अक्षरों में प्राचीनतम लेख लिखे मिलते हैं वे प्रचलित लिपियों से इतने भिन्न है कि बहुत समय तक खूब प्रयत्न किये जाने पर भी अशोक के शिलालेख पढ़े नहीं जा सके। फारसी की तवारीखों से ज्ञात होता है कि सन् १३५६ ई० में देवली के सुलतान फीरोज़शाह तुगलक ने अशोक के दो स्तम्भ बाहरसे देहली में मँगवाये थे और उन पर खचित लेखों का आशय जानने की इच्छा की थी। परन्तु उस समय एक भी विद्वान ऐसा न मिला जो उक्त लेखों को पढ़ सकता । कहते हैं कि मुगल सम्राट अकबर को भी उक्त स्तम्भों पर के लेखों का आशय जानने की प्रवल इच्छा थी, परन्तु पढ़नेवालों के अभाव से वह पूर्ण न हो सकी। सन् १८४० ईसवी के लगभग सर जेम्स प्रिंलेप ने इन्हें पढ़ने का प्रयत्न किया। कुछ समय तक असफल होने के पश्चात् उन्हें ब्राह्मी और खरोष्ट्री वर्णमाला पहचानने की एक कुली मिल गयी । ईसवी सन के पूर्व तीसरी शताब्दि में जो यूनानी बादशाह पञ्जाब प्रान्त में राज्य करते थे उनके चलाये हुए बहुत से प्राप्त सिक्कों से जिन पर राजा का नाम तथा पदवी एक तरफ यूनानी और दूसरी तरफ ब्राह्मी व खरोष्ट्री अक्षरों में लिखी है, उनमें आये हुए बहुतेरे अक्षरों का ज्ञान हो गया और
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५. प्राचीन इतिहास निर्माण के साधन
गुप्त राजाओं के सिक्कों के ही समान कुछ चाँदी के सिक्के मिले हैं, जिन पर राजा के मस्तक को छाप है और संवत् ५२ का अंक है। दूसरी तरफ विजितावनिरवनिपति श्री तोरमाण देव जयति' लिखा रहता है। यह तोरमाण वही है जिसका परिचय हम उसके दो शिलालेखों ले पा चुके हैं। जिस संवत् का यहाँ उल्लेख है वह अनुमानतः हूण संवत् है, जिसका कि प्रारम्भ सन ४४८ ईसवी के लगभग माना जाता है।
इस राजा के पुत्र मिहिरकुल के भी कुछ सिक्के मिलते हैं, जिन पर राजा की मूर्ति के साथ-साथ त्रिशूल और बैल भी बने रहते हैं। इससे इसका शैव-मतानुयायी होना सिद्ध होता है।
कुछ चाँदी और ताँबे के सिक्के भी मिले हैं, जिनपर एक तरफ 'विजितावनिरवनिपति श्री शीलादित्य दिवं जयति । और दूसरी तरफ इन्हीं पदवियों के साथ-साथ शीलादित्य के स्थान में 'श्रीहर्ष' लिखा रहता है। 'स'के आगे १ ले ३३ तक के भिन्न-भिन्न अंक भी उनपर पाये जाते हैं। इससे हर्ष' का ही दूसरा नाम शीलादित्य होना सिद्ध होता है। हर्ष ने अपने नाम का एक संवत् भी चलाया था, जिसका प्रारम्भ ( काश्मीरी पञ्चांगों के अनुसार) सन् ६०६ ईसवी से माना जाता है । संयुक्त प्रान्त और नेपाल में लगभग ३०० वर्ष तक इसके प्रचलित रहने के प्रमाण भी मिलते हैं। अतः इसमें सन्देह नहीं कि सिक्कों पर यही हर्ष-संवत् उद्धृत किया गया है।
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प्राचीन इतिहास निर्माण के साधन [५९ भारत के प्राचीन इतिहास-निर्माण के लिए मुख्यतया ये ही चार साधन उपलब्ध हैं। आर्य-साहित्य की ऐतिहासिक सामग्री का उपयोग बहुत सावधानी और आलोचनात्मक बुद्धि ले करना चाहिए, क्योंकि इसमें अतिशयोक्ति, परस्पर विरोध और कल्पनाशकि बहुत पाई जाती है। विदेशियों के कथन बहुतायत से विश्वसनीय हैं । पर कुछ काल के इतिहास पर ये साधन कुछ भी प्रकाश नहीं डालते।
शिलालेख, ताम्रपत्र इत्यादि का ऐतिहासिक वृत्तान्त सर्वथा माननीय है और जिस समय के शिलालेख अथवा ताम्र. पत्र उपलब्ध हैं, उस समय के लिए इन्हें प्रधान प्रमाण मानना चाहिए और इन्हीं के प्रकाश में अन्य साधनों के तथ्य का निर्णय करना चाहिए । सिक्कों में ऐतिहासिक वार्ता आने के लिए बहुत कम क्षेत्र है, पर फिर भी इनकी ऐतिहासिक उपयोगिता बहुत महत्व की है। ये शिलालेखों की पूर्ति करते हैं और खयम् उनसे पूर्ण किये जाते हैं।
ऊपर के लेख में यही बतलाया गया है कि इन चार साधनों से किस-किस प्रकार की ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध होती है और जो कुछ ऐतिहासिक वार्ता दी गयी है, वह केवल उदाहरण-स्वरूप है। इससे यह नहीं समझना चाहिए कि इन साधनों से अभी तक केवल इतना ही इतिहास सम्पादित किया गया है।
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जैन धर्म का प्रसार
जो लोग इतिहास के महत्व से अनभिन्न है वे प्रश्न कर लकते हैं कि बहुत समय के पुराने खंडहरों, टूटी फूटी मूर्तिओं व अस्पष्ट, अपरिचित लिपियों और भाषाओं में लिखे हुए शिलालेखों के पतों और विवरणों से पुस्तकों के सफे भरने ले क्या लाभ ? ऐसे भोले भाइयों के हितार्थ इतिहास की महत्ता बताने के लिये मैं केवल इतना ही कहना पर्याप्त लमझता हूं कि यह उज्वल इतिहास की ही महिमा है जो बौद्ध धर्म, जिसका कई शताब्दियां हुई हिन्दुस्थान से सर्वथा नाम ही उठ गया है, आज भी विद्वत् समाज में बहुत मान और गौरव की दृष्टि से देखा जाता है, और जैन धर्म, जो कि बौद्ध धर्म से कहीं अधिक प्राचीन है, जिसकी सत्ता आज भी भारतवर्ष में अच्छी प्रबलता से विद्यमान है, जिसकी फिलासफी बौद्ध व अन्य कितनी ही फिलासफियों की अपेक्षा बहुत उच्च और वैज्ञानिक है, व जिलका साहित्य भारत के अन्य किसी भी साहित्य की प्रतिस्पर्धा में मान से खड़ा हो सकता है, ऐसा जैन धर्म, अभी तक बहुत कम विद्वानों की रुचि और सहानुभूति प्राप्त कर सका है । बौद्ध धर्म के इतिहास पर इतना प्रकाश पड़ चुका कि उसपर विद्वानों की सहज ही दृष्टि पड़ जाती है। पर जैन धर्म का इतिहास अभी तक भारी अंधकार में पड़ा है जिससे उसे संसार में आज यह मान प्राप्त नहीं है जिसका कि वह न्याय से भागी है।
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जैन धर्म का प्रसार
[ ६१
आज से कोई डेढ़ सौ वर्ष पूर्व जब पश्चिमी विद्वानों ने भारत का प्राचीन इतिहास तैयार करना प्रारम्भ किया तव उन्हें इस देश की एक मुख्यजन-समाज जैन जाति के विषय मैं भी अपनी सम्मति प्रगट करने की आवश्यकता पड़ी। इस सम्मति को स्थापित करने के लिये साधन ढूंढने में उनकी दृष्टि " अहिंसा परमो धर्मः " जैसे जैनियों के स्थूल सिद्धान्तों पर पड़ी जो कई अंशों में बौद्ध सिद्धान्तों से मिलते जुलते हैं । अतः वे झट इस राय पर पहुंच गये कि जैन धर्म बौद्ध धर्म की एक शाखा - मात्र है । इस मत को सामने रखकर पीछे पीछे कई विद्वानों ने जैन धर्म के विषय में खोजें कीं, तो उन्हें इसी मत की पुष्टि के प्रमाण मिले। महावीर स्वामी और महात्मा बुद्ध के जीवन काल, जीवन- घटनाओं उपदेशों व उनके माता पिता और कुटुम्बी जनों के नाम आदि मैं उन्हें ऐसी समानतायें दृष्टि पड़ीं कि उन्हें वे एक ही मनुष्य के जीवन-चरित्र के दो रूपान्तर जान पड़े, और क्योंकि उन्हें
जैनियों के पक्ष के कोई भी ऐसे प्रमाण व स्मारक प्राप्त नहीं
ኣ
हुए जिनसे जैन धर्म की स्वतन्त्र उत्पत्ति प्रमाणित होती, अत: उनका यह मत पक्का ठहर गया कि जैन धर्म बौद्ध धर्म से निकला है । उस समय के प्रसिद्ध भारत - इतिहास लेखक एल्फिन्स्टन साहेब ने अपने इतिहास में जैन धर्म के विषय में यह लिखा " The Jainas appear to have originated in the sixth or seventh century of our era, to have become conspicuous in the eighth or ninth century, > got the highest prosperity in the eleventh and declined after the twelfth ".
1 Elphinstone History of India P. 121.
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६२]
जैन धर्म का प्रसार 'अथात् जैन धर्म ईसा की छठवीं सातवीं शताब्दि में प्रारम्भ हुआ, ८ वीं ९ वीं शताब्दि में इसकी अच्छी प्रसिद्धि हुई, ११ हवीं शताब्दि में इसने बहुत उन्नति की और १२ हवीं शताब्दि के पश्चात् इसका हास प्रारम्भ हो गया।
जैनियों ने इस मत को अप्रमाणित सिद्ध करने का कोई लमुचित प्रयत्न और उद्योग नहीं किया। इसलिये पूरी एक शतान्दि तक पाश्चात्य व कितने ही देशी विद्वानों का यही भ्रम रहा । यद्यपि इल बीच में कोलबुक' 'जोन्ल' 'विल्सन' 'टामल', 'लेसन', 'वेवर' आदि अनेक पाश्चात्य विद्वानों ने जैन ग्रन्थों का अच्छा अध्ययन किया और जैन दर्शन की खूब प्रशंसा भी की, पर उसकी उत्पत्ति के विषय में उनके विचार अपरिवर्तित ही रहे। उन्होंने जैन पुराणों में दिये हुए तीर्थंकरों के चरित्र तो पढ़े, पर उन पर उन्हें विश्वास न हुआ क्योंकि उन ग्रन्थों के काव्य-कल्पना-समुद्र में गोते लगाकर ऐतिहासिक तथ्य रूपी रल प्राप्त कर लेना एकदम सहज काम नहीं था।
ऐसे समय में भाग्यवश भारतीय इतिहास की शोध का एक नया साधन हाथ आया। देश में जगह जगह जो शिलाओं व स्तम्भों व मन्दिरों आदि की दीवारों पर लेख मिलते थे उन पर इतिहास-खोजकों की दृष्टि गई। बहुत समय के निरन्तर परिश्रम से विद्वान् लोग इन लेखों की लिपि समझने में सफल हुए जिससे उनकी ऐतिहासिक छान बीन सुलभ हो गई । गत शताब्दि के मध्य भाग में सर जेम्ल प्रिंसेप' जैसे प्रतिभाशाली व्यक्तियों के उद्योग ले अशोक सम्राट् की
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६८]
जैन धर्म का प्रसार जैन-धर्म का प्रवेश उड़ीसा में शिशुनागवंशी राजा नन्दवर्धन के समय में होगया था। खारवेल के समय से पूर्व भी उदयगिरि पर्वत पर अहंतों के मन्दिर थे, क्योंकि उनका उल्लेख खारवेल के लेख में आया है। ऐसा प्रतीत होता है कि (वारवेल के समय में) जैन धर्म कई शताब्दियों तक उड़ीसा का राष्ट्रीय धर्म रह चुका था।
इल लेख की उपयोगिता के विषय में श्रीयुक्त जायसवाल जी कहते हैं। :tions as institutions which had been in existence before Kharavela's time. It seems that Jainism had been the national religion of Orissa for some centuries. (J. B, O.R. S. Vol III. p. 448.)
† This inscription occupies a unique position amougst the materials of Indian History for the centuries preceding the Christian era. In point of age it is the second inscription after Asoka, the first being the Nanaghat inscription of Vedisri. But from the point of view of the chronology of the premauryan times and the history of Jainism, it is the most important inscription yet discovered in the country. It confirms the Puranic record and carries the dynastic chronology to C. 450 B.O. Further, it proves that Jainism entered Orissa, and probably became the State religion, within 100 years of its founder Mahavira. It affords the earliest historical instance of the unity of Bihar and Orissa (450 B.C.) For the social history of this country, we get the very important datum that the population of ancient Orissa was 3} millions in Circa 172 B. C.
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७८]
जैन धर्म का प्रसार इसी पक्ष में दी है और मि० ही स्मिथ भी अन्त में इस मत की ओर झुके हैं।
इस प्रकार श्रवण बेलगुल के लेख जैन इतिहास के लिये बड़े महत्व और गौरव के प्रमाणित हुए हैं। उनके विना महाराज चन्द्रगुप्त का जैनी होना सिद्ध करना असम्भव होता। ___यह केवल उन मुख्य मुख्य प्राचीनतम लेखों का परिचय है जिनने जैन इतिहास पर विशेष प्रकाश डाल कर उसके अध्ययन में एक नये युगका प्रारम्भ कर दिया है व इतिहासज्ञों की सम्मति-धाराय वदल दी हैं। इनके अतिरिक्त विविध स्थानों में भिन्न भिन्न समय के सैकड़ों नहीं लहस्रो जैन लेख व अन्य जैन स्मारक ऐसे मिले हैं जिनले प्राचीन काल में जैन धर्म के प्रभाव व प्रचार का पता चलता है। वे सिद्ध कर रहे हैं कि जैन धर्म का भूतकाल जगमगाता हुआ रहा है। वह बहुत लमय तक राज-धर्म रह चुका है। इसकी ज्योति क्षत्रियों ने प्रभावान् बनाई थी और क्षत्रियों द्वारा ही इसकी पुष्टि और प्रसिद्धि हुई थी। मगध के शिशुनाग वंशी व मौर्य वंशी नरेशो, व उड़ीसा के महाराजा खार बेल के अतिरिक दक्षिण के कदम्ब, चालुक्य, राष्ट्रकूट, रह, पल्लव, सन्तार आदि अनेक प्राचीन राजवंशों द्वारा इस धर्म की उन्नति और ख्याति हुई, ऐसा लेखों से सिद्ध हो चुका है। पर यह सब ऐतिहासिक सामग्री अंग्रेजी में 'एपीनाफिआ इण्डिका' 'एपीग्राफिआ कर्नाटिका' 'इण्डियन एन्टीवेरी' 'ऑकिलाजिकल सर्वे रिपोर्ट' आदि भारी भारी पत्रिकाओं में विखरी पड़ी है जो हिन्दी के पाठको
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संयुक्त प्रान्त
[७९ की पहुंच के परे होने के कारण व अनेक अंग्रेजी जानने वालों को समयाभाव व साधनाभाव के कारण बहुतायत से साधारण व्यक्तियों के परिचय में नहीं आई है। आवश्यकता है कि वह सब एकत्रित कर सुलभ और सर्वोपयोगी बनाई जावे।
संयुक्त प्रान्त। संयुक्त प्रान्त की जैनियों के लिये ऐतिहासिक प्राचीनता और धार्मिक महत्ता बहुत भारी है। यह भूमि इतिहासातीत काल में कितने ही तीर्थकरों के गर्भ, जन्म, तप ज्ञान व निर्वाण कल्याणकों से पवित्र हुई है। 'अयोध्या' पांच तीर्थ करों की जन्म-नगरी है। इस काल के धर्म-नायक जैन-धर्म प्रचारक श्री आदिनाथ भगवान का जन्म इसी नगरी में हुआ था । 'बनारस' में श्री सुपार्श्वनाथ और पार्श्वनाथ तीर्थंकर जन्मे थे । और यहां से निकट ही 'चन्द्रपुरी' चन्द्र प्रभु की व सिंहपुरी (सारनाथ) श्रेयांसनाथ की जन्म भूमि है । 'हस्तिनापुर' की पवित्रता से कौन जैनी अपरिचित होगा। यहां शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ व अरहनाथ तीर्थंकरों के गर्म, जन्म, तप और शान चार चार कल्याणक हुए हैं। यहीं के राजा श्रेयांस' ने आदिनाथ भगवान् को सब से प्रथम आहार देकर आहार दान की विधि का प्रचार किया था । 'अहिच्छन ' श्री पार्श्वनाथ भगवान् की वह तपोभूमि है जहां उन्होंने पापी 'कमठ' के घोर उपसगों को सहा था। 'प्रयाग' के विषय में कहा जाता है कि यहां आदिनाथ भगवान् ने तप किया था व यहां से समीप ही जैनियों
१ दिगंबर जैन डायरेक्टरी
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संयुक्त प्रान्त
की प्रसिद्ध नगरी 'कौशाम्बी ' है जहां पद्मप्रभ तीर्थकर का जन्म हुआ था व जिनके तप और ज्ञान कल्याणक निकटवर्ती ' प्रभाक्षेत्र ' नामक पर्वत पर हुए थे । ' पद्मप्रभ' के नाम से ही यह स्थान अब पपौला व फफौसा कहलाता है । इसी प्रकार किष्किन्धापुर ( खुखुन्दो ), रत्नपुरी कम्पिला आदि अतिशय क्षेत्र इस प्रांत में विद्यमान है। अंतिम केवली जम्बू स्वामी की निर्वाण भूमि भी इसी प्रांत के भीतर मथुरा के पास चौरासी नामक स्थान पर है जहां अब भी उनके नाम का विशाल मंदिर बना हुआ है। इनमें से कई नगरों में अब भी कुछ न कुछ जैन स्मारक पाये जाते हैं । पर अब तक जितने प्राप्त हुए हैं वे प्रान्त की प्राचीनता व जैन धर्म से घनिष्ठता को देखते हुए कुछ भी नहीं है । हमें पूर्ण आशा है कि यदि विधिपूर्वक खोज की जाय तो असंख्यात जैन स्मारक मिल सकते हैं जिनसे जैन इतिहास का मुख उज्ज्वल हो सकता है व जैन पुराणों की प्रमाणिकता सिद्ध हो सकती है। कौशाम्बी के ही विषय में सर विन्लेन्ट स्मिथ का मत देखिये । वे अपने एक लेख में लिखते हैं
"I feel certain that the remains at Kosam in the Allahabad district will prove to be Jain for the most part and not Buddhist as Cunningham supposed. The village undoubtedly represents the Kausambi of the Jains and the site where Jain temples exist is still a place of pilgrimage for the votaries of Mahavira. I have shown good reason for believing that the Buddhist Kausambi was a different place (J. R A. S., July 1898). I commend the study of the antiquities at Kosam to the special attention of the Jain community".
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संयुक्त प्रान्त
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'मुझे पूर्ण विश्वाल है कि अलाहाबाद जिले के कोसम नामक ग्राम के खण्डहर इत्यादि बहुतायत से जैन स्मारक सिद्ध होंगे, न कि बौद्ध, जैसा कि कनिंघम ने अनुमान किया था । यह ग्राम निश्चय से जैन कौशाम्बी है। जिस स्थान पर मन्दिर बने हैं वह अब भी महाबीर के उपासकों (जैनियों ) का तीर्थ-स्थान है । मैंने बौद्धों की कौशाम्बी अन्यत्र रही है, इसका ठीक ठीक कारण बतला दिया है । मैं कौशाम्बी के प्राचीन स्मारकों का जैन समाज द्वारा विशेष रूप से अध्ययन किये जाने की सम्मति देता हूं। " जैनियों द्वारा खोज के सम्बन्ध में स्मिथ साहच के विचार ध्यान देने और कार्य में परिणत करने के योग्य है । उनकी राय में
† "The field for exploration is vast, At the present day the adherents of the Jain religion are mostly to be found in Rajputana and Western India. But it was not always so. In olden days the creed of Mahavira was far more widely diffused than it is now. In the 7th century A D, for instance, that creed had numerous followers in Vaisal1 { Basenti, north of Patna ) and in Eastern Bengal, localities where its adherents are now extermely few. I have myself seen abundant evidences of the former prevalence of Jainism in Bundelkhand during the mediaeval period especially in the 11th and the 12th centuries. Jain images in that country are numerous in places where a Jain is now never seen. Further south, in the Deccan, and the Tamil countries, Jainism was, for centuries, a great and ruling power in regions where it is now almost unknown.
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जैन धर्म का प्रसार
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' खोज का क्षेत्र बहुत विस्तीर्ण है । आजकल जैन धर्म के पालने वाले बहुतायत से राजपुताना और पश्चिम भारत में ही पाये जाते हैं । पर सदैव ऐसा नहीं था । प्राचीन समय में यह महावीर का धर्म आजकल की अपेक्षा कहीं बहुत अधिक फैला हुआ था। उदाहरणार्थ, ईसा की ७ वीं शताब्दि में इस धर्म के अनुयायी वैशाली और पूर्व बंगाल में बहुत संख्या में थे । पर
आज बहुत ही कम जैनी हैं। मैने स्वयं चुन्देलखंड में वहां ११ वीं और १२ वीं शताब्दि के लगभग जैन धर्म के प्रचार के बहुत से चिह्न पाये । उस देश के कई ऐसे स्थानों पर बहुत सी जैन मूर्तियां पाई जाती हैं जहां अब एक भी जैनी कभी दिखाई नहीं पड़ता । दक्षिण में आगे को बाढ़ये तो जिन तामिल और द्राविड़ देशों में शताब्दियों तक जैन धर्म का शासन रहा है वहां वह अव अज्ञात ही सा हो गया है ' और भी उनका कहना है । :
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'मुझे निश्चय है कि जैन स्तूप अब भी विद्यमान हैं और यदि अन्वेषण किया जाय तो मिल सकते हैं । उनके पाये जाने की सम्भावना और स्थानों की अपेक्षा राजपुताने में अधिक है ' | केवल आर्किलाजिकल सर्वे रिपोर्ट के सफे उलटने से ही पता चल जाता है कि जगह जगह, गांव गांव में, प्राचीन सभ्यता की झलके हैं। अगर लोगों में प्राचीन स्मारकों के खोज करने की रुचि आ जावे तो थोड़े ही समय में न जाने कितनी ऐतिहा
I feel certain that Jain stupas must be still in existence and that they will be found if looked for. They are more likly to be found in Rajputana than elsewhere".
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मध्यप्रदेश इसका समाचार विजल नरेश के पास पहुँचा। वे रामय्य पर बहुत कुपित हुए । पर रामय्य ने वही अद्भुत चमत्कार उनके सामने भी कर दिखाया। तब तो राजा को रामय्य के देव में विश्वास हो गया, और उन्होंने जैनियों को दरवार से अलग कर उन्हें शैवों के साथ झगड़ा न करने की सख्त ताकीद कर दी।
यह मध्यप्रान्त में जैनधर्म के -हास और शैव धर्म की वृद्धि का, हिन्दू पुराणों के अनुसार, वृत्तान्त है। इसमें सत्य तो जो कुछ हो, पर इसमें संदेह नहीं कि इस समय से यहां और दक्षिण भारत में जैनधर्म को शवधर्म ने जर्जरित कर डाला। आगे मुसलमानी काल में भी इस धर्म की भारी क्षति हुई और उसे उन्नति का अवसर नहीं मिल सका । जैन धर्म राजाश्रय विहीन होकर क्षीण अवश्य हो गया, पर उसका सर्वथा लोप न हो सका। स्वयं कलचुरि-वंश में जैन धर्म का प्रभाव बना ही रहा । मध्यप्रान्त में जो जैन कलवार सहस्रों की संख्या में पाये जाते हैं, वे इन्हीं कलचुरियों की संतान है। अनेक भारी मन्दिर जो आजतक विद्यमान हैं वे प्रायः इसी गिरती के समय में निर्माण हुए हैं । जैनियों के मुख्य तीर्थ इस प्रान्त में बैतूल जिले में मुक्तागिरि, निमाड़ जिले में सिद्धवर-कूट और दमोह जिले में कुंडलपुर है। मुक्तागिरि, अपरनाम मेढागिरि, और सिद्धवरकूट सिद्ध-क्षेत्र हैं, जहां से प्राचीन काल में सैकड़ों मुनियों ने मोक्ष पद प्राप्त किया है। मुक्तागिरि में कुल अड़तालीस मन्दिर हैं जिनमें मूर्तियों पर विक्रम की चौदहवीं शताब्दि से लगाकर सत्तरहवीं शतान्दितक के उल्लेख हैं। इन मन्दिरों में पांच बहुत प्राचीन प्रतीत होते हैं, और सम्भवतः बारहवीं, तेरहवीं शताब्दि
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बम्बई भारत वा है। उसके मुख्य, कोकन और
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जैन धर्म का प्रसार बहुवार अत्याचारियों से नष्ट भ्रष्ट किये गये। पर हाय ! आज रही सही भी पोथियां यों कह रही, क्या तुम वही हो, आज तो पहचानतक पड़ते नहीं ॥२॥
बम्बई प्रान्त बम्बई भारत वर्ष का सबसे बड़ा प्रान्त है । यथार्थ में वह कई प्रदेश का समूह है। उसके मुख्य विभाग ये हैं :-सिंघ, गुजरात, काठियावाड़, खानदेश, बम्बई, कोकन और कर्नाटक । इसमें लगभग एक लाख तेईस हजार वर्ग मील स्थान है। यह प्रान्त जितना लम्बा चौड़ा है उतना महत्व-पूर्ण भी है। जैसा वह आज देशके प्रान्तों का सिरताज़ है, वैसा ही प्राचीन इतिहाल में भी वह प्रालद्ध रहा है। ईस्वी सन् से हजारों वर्ष पूर्व इस प्रान्त का बहुत दूर दूर के पूर्वी और पश्चिमी देशों से समुद्रद्वारा व्यापार होता था। भृगुकक्षा भडोच), सोपारा, सूरत आदि बड़े बड़े प्राचीन बन्दरस्थान हैं। इनका उल्लेख आज से अढाई हजार वर्ष पुराने पाली ग्रन्थों में पाया जाता है । अधिकांश विदेशी शासक, जिन्होंने इस देश पर स्थायी प्रभाव डाला, लमुद्रद्वारा इसी प्रान्त में पहले पहल आये। सिकन्दर बादशाह सिन्ध से समुद्रद्वारा ही वापिल लौटा था। अरब लोगोंने आठवीं शताब्दि के प्रारम्भ में पहले पहल गुजरात पर चढाई की थी। ग्यारहवीं शताब्दि के प्रारम्भ में महमूद गजनवी की गुजरात में सोमनाथ के मंदिर की लूटसे ही हिन्दू राजाओं की लबले बड़ी पराजय हुई और हिन्दू राज्य की नींव उखड़ गई । सत्रहवीं शतान्दि के प्रारम्भ में ईस्ट इंडिया कंपनी ने पहले पहल इसी
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जैन धर्म का प्रसार सामाजिक संकीर्णता से रहित है कि प्रत्येक धर्मवाले इसे अपना धर्म ग्रन्थ सिद्ध करने में अपना गौरव मानते हैं। पर जिन्होने निष्पक्ष हृदय से इस ग्रन्थ का अध्ययन किया है उन्होंने इसे एक जैनाचार्य की कृति ही माना है । अनेक साहित्यिक प्रमाण भी इस बात के मिले हैं कि यह ग्रन्थ एलाचार्य नाम के जैनाचार्य का बनाया हुआ है। उन्होंने अपने शिष्य 'तिरुवल्लुवर' के द्वारा इसे 'संगम' की स्वीकृति के हेतु भेजा था। नीलकेशो की टीका में इसे स्पष्ट रूप से जैन शास्त्र कहा है। हिन्दुओं की किंवदन्ती है कि एलासिंह नामक एक शैव साधु के शिष्य तिरुवल्लुवर ने 'कुरल' ग्रन्थ रचा था। इस किंवदन्ती से भी परोक्षरूपसे कुरल का एलाचार्य की कृति होना सिद्ध होता है । ये एलाचार्य अन्य कोई नहीं, दिगम्बर संप्रदायके आरी स्तम्भ श्री कुन्दकुन्दाचार्य ही माने जाते हैं। इस विषय में जिन्हे रुचि हो उन्हें कुरल ग्रन्थ का और इस सम्बंध में प्रकाशित अनेक लेखों का स्वयं अध्ययन करना चाहिये।
कुरल शास्त्र की सत्ता से ही सिद्ध होता है कि ईस्वी सन् के प्रारम्भ में जैन धर्म के उदार सिद्धान्तों का तामिल देश में अच्छा आदर होता था। फ्रेजर साहब ने अपने इतिहास में कहा है कि वह जैनियों के ही प्रयत्न का फल था कि दक्षिण भारत में नया आदर्श, नया साहित्य, नवीन आचार-विचार और नूतन
* कुरल ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित कराना जैनियों का कर्तव्य ही नहीं, उनका महत्वपूर्ण अधिकार था। हालही में इसका एक हिन्दी अनुवाद अजमेर के ' सस्ता साहित्य कार्यालय से प्रकाशित हुआ है । जैनियों को इसे अवश्य पढ़ना चाहिये।
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संस्कृति-रक्षा और दूसरी ओर ज्ञात साहित्यका प्रकाशन | अभी नागोर आदि कितनेही शास्त्र भंडार ऐसे हैं जो वर्षोंले खुले नहीं और जहां के ग्रंथोंका अभीतक हमें कुछमी परिचय नहीं है। ऐसे अंथोंको देखकर उनकी सूची आदि बनाना चाहिये और उनको आगे सुरक्षित रखनेकी व्यवस्था करना चाहिये। इस सम्बन्धमें मैं पाठकोका ध्यान इस बातपर आकर्षित करना चाहता हूं कि प्राचीन ग्रंथोको सुरक्षित रखने और उनकी कापियां सुलभ करने का हमे आजकल एक बहुत अच्छा साधन उपलब्ध है। लिखित कापी कराकर ग्रंथोद्धार करना आजकल बड़ा कठिन है। लेखकों को पुरानी लिपि पढनेका अभ्यास नहीं रहता, इससे वे शुद्ध लिख नहीं सकते। भंडारोले ग्रंथ दीर्घ समयके लिये मिलना कठिन होता है, इससे वे जल्दी में लिखे जाते हैं। और फिर एकसे दूसरी कापी करानेमें वही कठिनाई उपस्थित होती है। खर्चभी बहुत लगता है। मैने प्राकृत ग्रंथोंकी कुछ आधुनिक ऐसी अशुद्ध प्रतियां देखी हैं जिनपरसे उस ग्रंथका संशोधन करना उसी भाषामें नया ग्रंथ लिखनेलेसी अधिक कठिन है। उनके संशोधन के लिये अन्य आदर्श प्रतियोंकी आवश्यकता बनी ही रहती है । अतएव हमें प्राचीन ग्रंथोंकी कापियां अब फोटो द्वारा कराना चाहिये। ग्रंथों का फोटो बहुत जल्दी और बिलकुल उसी रूप में सुलभताले लिया जा सकता है। हजारों पृष्ठोंके ग्रंथको आप कुछ घंटों में फोटोग्राफ करा सकते है, और निगेटिव सुरक्षित रखकर जब जितनी प्रतियां आप चाहे छाप सकते हैं । इसके पश्चात् आदर्श प्रतिकीभी कुछ जरूरत शेष
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धर्म-प्रभावना के समयोचित उपाय जैनधर्म का प्रचार किया गया था, क्योंकि ये ही भाषायें समय लमयपर जन-लाधारण के बोलचाल में प्रयुक्त होती थी, और सभी, वाल, स्त्री व मंदबुद्धि इन्हे समझते थे। प्राचीनतम, अधिकांश और उत्कृष्ट जैन साहित्य इन्ही भाषाओं में रचा गया है। ये भापायें आर्य भाषाओं के विकाश के इतिहास में एक खाल स्थान रखती हैं, इलीलिये भाषाशास्त्रियोंको जैनियों के इस साहित्य का अध्ययन करना आवश्यक होता है। किन्तु, दुर्भाग्यतः स्वयं जैन समाज में प्राकृत भाषाओं के ज्ञाताओं की बहुत कमी है इससे इस साहित्यका यथोचित रूपसे संशोधन और प्रका शन बहुत ही कम हुआ है। इस खास जैन साहित्यकी सम्पत्ति की रक्षा और उपयोग का समाज में कोई प्रबन्ध नहीं है। अतएव आवश्यकता है कि प्राकृत के ग्रंथ उत्तम संशोधन के साथ प्रकाशित किये जाय, तथा समाज में प्राकृत के विद्वानों की संख्या बढाई जावे । इस कार्य के लिये समाज की शिक्षा और परीक्षा संस्थाओं में प्राकृत के कोर्स नियत करने का प्रयत्न किया जाना चाहिये। अनेक यूनीवर्सिटियों में प्राकृत के कोर्स नियत है, किन्तु बहुत ही कम विद्यार्थी क्वचित् ही इस कोर्स को ग्रहण करते हैं, उनमें भी विशेष संख्या अजैन विद्यार्थियों की ही रहती है । जैन विद्यार्थियों का उस ओर कोई ध्यान ही नहीं है। हमारे विद्यार्थियों को उस ओर उत्तेजित करने के लिये हमें प्रत्येक शूनीवर्सिटी में प्राकृत लेनेवाले विद्यार्थियों के लिये कुछ खास छात्रवृत्तियों का तथा परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने वालों के लिये सुवर्ण व रजत पदक आदि पारितोषकों का प्रवन्ध होना चाहिये।
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