Book Title: Jain Itihas ki Purva pithika aur Hamara Abhyutthana
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

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Page 46
________________ ५४] धर्म-प्रभावना के समयोचित उपाय जैनधर्म का प्रचार किया गया था, क्योंकि ये ही भाषायें समय लमयपर जन-लाधारण के बोलचाल में प्रयुक्त होती थी, और सभी, वाल, स्त्री व मंदबुद्धि इन्हे समझते थे। प्राचीनतम, अधिकांश और उत्कृष्ट जैन साहित्य इन्ही भाषाओं में रचा गया है। ये भापायें आर्य भाषाओं के विकाश के इतिहास में एक खाल स्थान रखती हैं, इलीलिये भाषाशास्त्रियोंको जैनियों के इस साहित्य का अध्ययन करना आवश्यक होता है। किन्तु, दुर्भाग्यतः स्वयं जैन समाज में प्राकृत भाषाओं के ज्ञाताओं की बहुत कमी है इससे इस साहित्यका यथोचित रूपसे संशोधन और प्रका शन बहुत ही कम हुआ है। इस खास जैन साहित्यकी सम्पत्ति की रक्षा और उपयोग का समाज में कोई प्रबन्ध नहीं है। अतएव आवश्यकता है कि प्राकृत के ग्रंथ उत्तम संशोधन के साथ प्रकाशित किये जाय, तथा समाज में प्राकृत के विद्वानों की संख्या बढाई जावे । इस कार्य के लिये समाज की शिक्षा और परीक्षा संस्थाओं में प्राकृत के कोर्स नियत करने का प्रयत्न किया जाना चाहिये। अनेक यूनीवर्सिटियों में प्राकृत के कोर्स नियत है, किन्तु बहुत ही कम विद्यार्थी क्वचित् ही इस कोर्स को ग्रहण करते हैं, उनमें भी विशेष संख्या अजैन विद्यार्थियों की ही रहती है । जैन विद्यार्थियों का उस ओर कोई ध्यान ही नहीं है। हमारे विद्यार्थियों को उस ओर उत्तेजित करने के लिये हमें प्रत्येक शूनीवर्सिटी में प्राकृत लेनेवाले विद्यार्थियों के लिये कुछ खास छात्रवृत्तियों का तथा परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने वालों के लिये सुवर्ण व रजत पदक आदि पारितोषकों का प्रवन्ध होना चाहिये।

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