Book Title: Jain Itihas ki Purva pithika aur Hamara Abhyutthana
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

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Page 44
________________ ११८ ] जैन धर्म का प्रसार सामाजिक संकीर्णता से रहित है कि प्रत्येक धर्मवाले इसे अपना धर्म ग्रन्थ सिद्ध करने में अपना गौरव मानते हैं। पर जिन्होने निष्पक्ष हृदय से इस ग्रन्थ का अध्ययन किया है उन्होंने इसे एक जैनाचार्य की कृति ही माना है । अनेक साहित्यिक प्रमाण भी इस बात के मिले हैं कि यह ग्रन्थ एलाचार्य नाम के जैनाचार्य का बनाया हुआ है। उन्होंने अपने शिष्य 'तिरुवल्लुवर' के द्वारा इसे 'संगम' की स्वीकृति के हेतु भेजा था। नीलकेशो की टीका में इसे स्पष्ट रूप से जैन शास्त्र कहा है। हिन्दुओं की किंवदन्ती है कि एलासिंह नामक एक शैव साधु के शिष्य तिरुवल्लुवर ने 'कुरल' ग्रन्थ रचा था। इस किंवदन्ती से भी परोक्षरूपसे कुरल का एलाचार्य की कृति होना सिद्ध होता है । ये एलाचार्य अन्य कोई नहीं, दिगम्बर संप्रदायके आरी स्तम्भ श्री कुन्दकुन्दाचार्य ही माने जाते हैं। इस विषय में जिन्हे रुचि हो उन्हें कुरल ग्रन्थ का और इस सम्बंध में प्रकाशित अनेक लेखों का स्वयं अध्ययन करना चाहिये। कुरल शास्त्र की सत्ता से ही सिद्ध होता है कि ईस्वी सन् के प्रारम्भ में जैन धर्म के उदार सिद्धान्तों का तामिल देश में अच्छा आदर होता था। फ्रेजर साहब ने अपने इतिहास में कहा है कि वह जैनियों के ही प्रयत्न का फल था कि दक्षिण भारत में नया आदर्श, नया साहित्य, नवीन आचार-विचार और नूतन * कुरल ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित कराना जैनियों का कर्तव्य ही नहीं, उनका महत्वपूर्ण अधिकार था। हालही में इसका एक हिन्दी अनुवाद अजमेर के ' सस्ता साहित्य कार्यालय से प्रकाशित हुआ है । जैनियों को इसे अवश्य पढ़ना चाहिये।

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