Book Title: Jain Itihas ki Purva pithika aur Hamara Abhyutthana
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

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Page 19
________________ हमारा इतिहास [१५ करके हिन्दी में प्रकाशित किये जाना चाहिये। अंग्रेजी में यह सामग्री बहुतही मंहगी है जिसे साधारण लोग खरीद नहीं सकते । हिन्दी में हो जाने ले अंग्रेजी के पाठक भी इस सस्ताई के कारण खरीदना चाहेंगे। ___ अभीतक हिन्दी साहित्य के अनेक इतिहास लिने जा चुके हैं, किन्तु उनका वह भाग अभीतक भी बहुत त्रुटिपूर्ण है जो हिन्दी की उत्पत्ति से सम्बन्ध रखता है। इसका मुख्य कारण यह है कि उनके विद्वान् लेखकों का ध्यान अपभ्रंश लाहित्य की ओर नहीं गया है जो कि प्राचीन पुस्तक-भंडारों में बहुत बडी तादाद में पडा है और पिछले दसबारह वर्षों में जिसके एक दर्जन से भी अधिक ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं। वर्तमान प्रांतीय भाषाओंका मूल इसी अपभ्रंश साहित्य में मिल सकता है, और इसलिये उसका गहराई के साथ अध्ययन किये विना न तो हिंदी साहित्य का प्रारम्भिक इतिहास लिखा जा सकता है और न उसका क्रमिक विकास ही बतलाया जा सकता है। इस विषयपर अधिकारपूर्ण लेखनी वे ही उठा सकते हैं जो संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश तथा प्रचलित देशी भाषाओका यथेष्ट ज्ञान रखते हो। इस अपभ्रंश भाषा के अनेक ग्रंथों में प्राचीन राजकीय इतिहास की भी बहुतली वार्ता मिल जाती है। एक नागकुमार चरित (णायकुमार-चरिउ) नामक अपभ्रंश काव्य के परिशीलन से मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि 'नाग' केवल किस्ले कहानी का शब्द नही, किन्तु एक जीती जागती मनुष्य जाति का नाम था। यह जाति एक लमय भारत वर्षके प्रायः सभी भागों में विखरी हुई थी और राजकीय सत्ता रखती थी। । उनकी एक अलग सभ्यता और शिष्टता थी जो अपने ढंग की

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