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प्राचीन इतिहास निर्माण के साधन
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प्राचीन सिक्के प्राचीन शिलालेखों के समान प्राचीन सिक्कों से भी भारत के इतिहास-निर्माण में बहुत सहायता मिलती है। शिलालेखों के साथ ही इस साधन पर भी विद्वानों की दृष्टि पहुंची । यथार्थ में शिलालेखों के पढ़े जाने की कुजी प्राचीन-सिक्कों से ही मिली । ब्राही और खरोष्ट्री लिपि के जिन अक्षरों में प्राचीनतम लेख लिखे मिलते हैं वे प्रचलित लिपियों से इतने भिन्न है कि बहुत समय तक खूब प्रयत्न किये जाने पर भी अशोक के शिलालेख पढ़े नहीं जा सके। फारसी की तवारीखों से ज्ञात होता है कि सन् १३५६ ई० में देवली के सुलतान फीरोज़शाह तुगलक ने अशोक के दो स्तम्भ बाहरसे देहली में मँगवाये थे और उन पर खचित लेखों का आशय जानने की इच्छा की थी। परन्तु उस समय एक भी विद्वान ऐसा न मिला जो उक्त लेखों को पढ़ सकता । कहते हैं कि मुगल सम्राट अकबर को भी उक्त स्तम्भों पर के लेखों का आशय जानने की प्रवल इच्छा थी, परन्तु पढ़नेवालों के अभाव से वह पूर्ण न हो सकी। सन् १८४० ईसवी के लगभग सर जेम्स प्रिंलेप ने इन्हें पढ़ने का प्रयत्न किया। कुछ समय तक असफल होने के पश्चात् उन्हें ब्राह्मी और खरोष्ट्री वर्णमाला पहचानने की एक कुली मिल गयी । ईसवी सन के पूर्व तीसरी शताब्दि में जो यूनानी बादशाह पञ्जाब प्रान्त में राज्य करते थे उनके चलाये हुए बहुत से प्राप्त सिक्कों से जिन पर राजा का नाम तथा पदवी एक तरफ यूनानी और दूसरी तरफ ब्राह्मी व खरोष्ट्री अक्षरों में लिखी है, उनमें आये हुए बहुतेरे अक्षरों का ज्ञान हो गया और