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( viii ) का समावेश कर दिया है जो किसी काव्य पुराण, इतिहास, संगीत, छन्द, बसंकार एवं अन्य प्रकार के साहित्य में मिलते हैं। कहने का तात्पर्य है कि जैन विद्वानों ने उन सभी गुणों का समावेश कर दिया है जिससे पूजा विषयक साहित्य धार्मिक साहित्य के साथ-साथ लौकिक साहित्य भी बन गया है । ___ यह पूजा साहित्य प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत, हिन्दी आदि सभी भाषाओं में उपलब्ध होता है । जैनाचार्यों की यह विशेषता रही है कि उन्होंने जो भी जन भाषा ही उसी में अपनी लेखनी तथा देश एवं समाज को भाषा विशेष के कारण साहित्य से वंचित नहीं किया। राजस्थान के जैनशास्त्र भण्डारों की ग्रंथ सूचियों के जो पांच भाग प्रकाशित हुए है उनको हम देखें तो हमें देश की सभी भाषाओं में निबद्ध साहित्य का सहज ही पता चल सकता है । पूजा साहित्य की सैकड़ों पाण्डुलिपियों का परिचय इन ग्रंथ सूचियों में उपलब्ध होता है जिनको देखकर हमारा हृदय गद्गद हो उठता है और इन पूजाओं के निर्माताओं के प्रति हमारी सहज श्रद्धा उमड़ पड़ती है।
जैन पूजा साहित्य किसी तीर्थकर विशेष और चौबीस तीर्थंकरों तक ही सीमित नहीं रहा किन्तु विद्वानों ने बीसों विषयों पर पूजाएँ लिखकर समाज में पूजाओं के प्रति सहज आकर्षण पैदा कर दिया । पूजा साहित्य का इतिहास अभी तक क्रमबद्ध रूप से नहीं लिखा गया। यद्यपि प्राचीन आचार्यों ने पूजा के महत्व को स्वीकारा है और उसमे अष्टद्रव्य पूजा का विधान किया है लेकिन महापडित आशाधर के पश्चात् जैन सन्तों का पूजा साहित्य की ओर अधिक ध्यान गया और अकेले भट्टारक सकलकीति परम्परा के भट्टारक शुभचन्द्र ने संस्कृत भाषा में २५ से भी अधिक पूजाओं को निबद्ध करने का एक नया कीर्तिमान स्थापित किया। इनके पश्चात् तो पूजा साहित्य लिखने को विद्वत्ता पाण्डित्य एवं प्रभावना की कसौटी माना जाने लगा इसीलिए साहित्यिक रुचि वाले अधिकांश भट्टारकों एवं विद्वानों ने अपनी लेखनी चलाकर अपने पाण्डित्य का परिचय दिया।
हिन्दी में पूजा साहित्य लिखना १७वीं शताब्दी से प्रारम्भ हुआ। इस शताब्दी में होने वाले रूपचन्द्र कवि ने पंचकल्याणक पूजा की रचना समाप्त की और हिन्दी कवियों के लिए पूजा साहित्य लिखने के एक नये मार्ग को जन्म दिया । इस शताब्दी में और भी पवियों ने छोटी-छोटी पूजायें लिखी लेकिन १८वीं शताब्दी आते-आते हिन्दी में पूजायें लिखने को भी पाण्डित्य की निशानी समझा जाने लगा यही कारण है कि इस शताब्दी के दो प्रमुख