Book Title: Jain Dharma ki Aetihasik Vikas Yatra Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Prachya Vidyapith ShajapurPage 19
________________ परम्परा में तीर्थङ्कर के रूप में मान्य हैं, के प्रति समादर भाव भी व्यक्त किया गया है। इससे यह प्रतीत होता है कि ऐतिहासिक युग के प्रारंभ से भी भारत में ये दोनों संस्कृतियाँ साथ-साथ प्रवाहित होती रही । हिन्दूधर्म की शैवधारा और सांख्य योग परम्परा मूलतः निवर्तक या श्रमण रही हैं जो कालक्रम में बृहद् हिन्दूधर्म में आत्मसात् कर ली गई है। मोहनजोदड़ों और हड़प्पा के उत्खनन में जिस प्राचीन भारतीय संस्कृति की जानकारी हमें उपलब्ध होती है, उससे सिद्ध होता है कि वैदिक संस्कृति के पूर्व भी भारत में एक उच्च संस्कृति अस्तित्व रखती थी जिसमें तप, ध्यान आदि पर बल दिया जाता था। उस उत्खनन में ध्यानस्थ योगियों की सीलें आदि मिलना तथा प्राचीन स्तर पर यज्ञशाला आदि का न मिलना यहीं सिद्ध करता है कि वह संस्कृति तप, योग एवं ध्यान-प्रदान व्रात्य या श्रमण संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती थी। यह निश्चित है कि आर्यों के आगमन के साथ प्रारंभ हुआ वैदिक युग से ये दोनों ही धाराएँ साथ-साथ प्रवाहित हो रही है और उन्होंने एक-दूसरे को पर्याप्त रूप से प्रभावित भी किया है। ऋग्वेद में व्रात्यों के प्रति जो तिरस्कार भाव था, वह अथर्ववेद में समादर भाव में बदल जाता है जो दोनो धाराओं के समन्वय का प्रतीक है। तप, त्याग, संन्यास, ध्यान, समाधि, मुक्ति और अहिंसा की अवधारणाएँ जो प्रारम्भिक वैदिक ऋचाओं और कर्मकाण्डीय ब्राह्मण ग्रन्थों में अनुपलब्ध थीं, वे आरण्य आदि परवर्ती वैदिक साहित्य में और विशेष रूप से उपनिषदों में अस्तित्व में आ गये हैं। इससे लगता है कि ये अवधारणाएँ संन्यासमार्गीय श्रमणधारा के प्रभाव से ही वैदिकधारा में प्रविष्टि हुई हैं। उपनिषदों, महाभारत और गीता में एक ओर वैदिक कर्मकाण्ड की समालोचना और उन्हें आध्यात्मिकता से समन्वित कर नए रूप में परिभाषित करने का प्रयत्न तथा दूसरी ओर तप, संन्यास और मुक्ति आदि की स्पष्ट रूप से स्वीकृति, यही सिद्ध करती है कि ये ग्रंथ वैदिक एवं श्रमणधारा के बीच हुए समन्वय या संगम के ही परिचायक हैं। हमें यह स्मरण रखना होगा कि उपनिषद् और महाभारत, जिसका एक अंग गीता है, शुद्ध रूप से वैदिक कर्मकाण्डात्मक धर्म के प्रतिनिधि नहीं हैं। वह निवृत्तिप्रधान श्रमणधारा और प्रवृत्तिमार्गी वैदिकधारा के समन्वय का परिणाम है । उपनिषदों, महाभारत और गीता में जहाँ एक ओर श्रमणधारा के आध्यात्मिक और निवृत्तिप्रधान तत्त्वों को स्थान दिया गया है, वही दूसरी ओर यज्ञ आदि वैदिक कर्मकाण्डों की श्रमण परम्परा के समान आध्यात्मिक दृष्टि से नवीन परिभाषाएँ भी प्रस्तुत की गई है। उसमें यज्ञ का अर्थ पशुबलि न होकर स्वहितो की बलि या समाजसेवा हो गया। हमें यह स्मरण रखना होगा कि हमारा आज का हिन्दूधर्म वैदिक और श्रमणधाराओं के समन्वय का परिणाम है। वैदिक कर्मकाण्ड के विरोध में जो आवाज औपनिषिदक युग के ऋषि-मुनियों ने उठाई थीं, जैन 13 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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