Book Title: Jain Dharma ki Aetihasik Vikas Yatra Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Prachya Vidyapith ShajapurPage 39
________________ किन्तु इसके अन्तिम भाग में मात्र कोटिकगण की वज्री शाखा की आचार्य परम्परा दी गई है जो देवर्द्धिक्षमाश्रमण (वीर निर्माण सं. ९८०) तक जाती है। स्थूलभद्र के शिष्यप्रशिष्यों की परम्परा में उद्भुत जिन विभिन्न गणों, शाखाओं एवं कुलों की सूचना हमें 'कल्पसूत्र' की स्थविरावली से मिलती है उसकी पुष्टि मथुरा के अभिलेखों से हो जाती है जो ‘कल्पसूत्र' की स्थविरावली से मिलती है उसकी पुष्टि मथुरा के अभिलेखों से हो जाती है जो 'कल्पसूत्र' की स्थविरावली की प्रामाणिकता को सिद्ध करती हैं। दिगम्बर परम्परा में महावीर के निर्वाण से लगभग एक हजार वर्ष पश्चात् तक की जो पट्टावली उपलब्ध है, एक तो वह पर्याप्त परवर्ती है दूसरे भद्रबाहु के नाम के अतिरिक्त उसकी पुष्टि का प्राचीन साहित्यिक और अभिलेखीय कोई साक्ष्य नहीं है। भद्रबाहु के सम्बन्ध में भी जो साक्ष्य हैं, वे पर्याप्त परवर्ती है। अतः ऐतिहासिक दृष्टि से उनकी प्रामाणिकता पर प्रश्नचिन्ह लगाये जा सकते है। महावीर के निर्वाण से ईसा की प्रथम एवं द्वितीय शताब्दी तक के जो महत्त्वपूर्ण परिवर्तन उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ में हए, उन्हें समझने के लिए अर्धमागधी आगमों के अतिरिक्त मथुरा का शिल्प एवं अभिलेख हमारी बहुत अधिक मदद करते हैं। मथुरा शिल्प की विशेषता यह है कि तीर्थङ्कर प्रतिमाएँ नग्न हैं, मुनि नग्न होकर भी वस्त्र (कम्बल) से अपनी नग्नता छिपाये हुए है। वस्त्र के अतिरिक्त पात्र, झोली, मुखवस्त्रिका और प्रतिलेखन भी मुनि के उपकरणों में समाहित हैं। मुनियों के नाम, गण, शाखा, कुल आदि श्वेताम्बर परम्परा के 'कल्पसूत्र' की स्थविरावली से मिलते हैं। इस प्रकार ये श्वेताम्बर परम्परा की पूर्व स्थिति के सूचक हैं। जैनधर्म में तीर्थङ्कर प्रतिमाओं के अतिरिक्त स्तूप के निर्माण की परम्परा भी थी, यह भी मुथरा के शिल्प से सिद्ध हो जाता हैं। यापनीय या बोटिक संघ का उद्धव ईसा की द्वितीय शती में महावीर के निर्वाण के छ: सौ नौ वर्ष पश्चात् उत्तर भारत निर्ग्रन्थ संघ में विभाजन की एक अन्य घटना घटित हुई, फलतः उत्तर भारत का निर्ग्रन्थ संघ सचेल एवं अचेल ऐसे दो भागों में बँट गया। पार्थापत्यों के प्रभाव से आपवादिक रूप में एवं शीतादि के निवारणार्थ गृहीत हुए वस्त्र, पात्र आदि जब मुनि की अपरिहार्य उपधि बनने लगे, तो परिग्रह की इस बढ़ती हुई प्रवृत्ति को रोकने के प्रश्न पर आर्य कृष्ण और आर्य शिवभूति में मतभेद हो गया। आर्य कृष्ण जिनकल्प का उच्छेद बताकर गृहीत वस्त्र-पात्र को मुनिचर्या का अपरिहार्य अंग मानने लगे, जबकि आर्य शिवभूति ने इनके त्याग और जिनकल्प के आचरण पर बल दिया। उनका कहना था कि समर्थ के लिये जिनकल्प का निषेध नहीं मानना चाहिए। वस्त्र, पात्र का ग्रहण अपवाद मार्ग है, उत्सर्ग मार्ग तो अचेलता ही है। आर्य शिवभूति की उत्तर भारत की 33 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72