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का छुआ हुआ खाने में, उन्हें साथ बिठाकर भोजन करने में आपत्ति करने लगे। शूद्रजल का त्याग एक आवश्यक कर्तव्य हो गया और शूद्रों का जिन मंदिर में प्रवेश निषिद्ध कर दिया गया। श्वेताम्बर शाखा की एक परम्परा में केवल ओसवाल जाति को ही दीक्षित करने और अन्य एक परम्परा में केवल बीसा ओसवाल को आचार्यपद देने की अवधारणा विकसित हो गई।
इसी प्रकार जहाँ प्राचीन स्तर में जैन परम्परा में चारों ही वर्गों और सभी जातियों के व्यक्ति जिन पूजा करने, श्रावक धर्म एवं मुनिधर्म का पालन करने और साधना के सर्वोच्च लक्ष्य निर्वाण को प्राप्त करने के अधिकारी माने गये थे, वहीं सातवीं-आठवीं शती में जिनसेन ने सर्वप्रथम शूद्र को मुनि-दीक्षा और मोक्ष प्राप्ति हेतु अयोग्य माना। श्वेताम्बर आगमों में कहीं शूद्र की दीक्षा का निषेध नहीं है, 'स्थानांग' में मात्र रोगी, भयार्त और नपुसंक की दीक्षा का निषेध है किन्तु आगे चलकर उनमें भी जाति-जुंगति जैसे- चाण्डाल आदि और कर्म-जुंगति जैसे-कसाई आदि की दीक्षा का निषेध कर दिया गया। किन्तु यह बृहतर हिन्दु परम्परा का प्रभाव ही था जो कि जैनधर्म के मूल सिद्धान्त के विरूद्ध था। जैनों ने इसे केवल अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा को बनाए रखने हेतु मान्य किया, क्योंकि आगमों में हरिकेशबल, मेतार्य, मातंगमुनि आदि अनेक चाण्डालों के मुनि होने और मोक्ष प्राप्त करने के उल्लेख है। (ब) जैन धर्म में मूर्ति पूजा तथा आडम्बरयुक्त कर्मकाण्ड का प्रवेश
यद्यपि जैन धर्म में मूर्ति और मंदिर निर्माण की परम्परा भगवान् महावीर के निर्वाण के लगभग सौ वर्ष पश्चात नन्दों के काल से प्रारम्भ हो गई थी। हड़प्पा से प्राप्त एक नग्न कबन्ध जैन है या नहीं यह निर्णय कर पाना कठिन है, किन्तु लोहानीपुर पटना से प्राप्त मौर्यकालीन जिन प्रतिमा इस तथ्य का संकेत है कि जैन धर्म में मूर्ति उपासना की परम्परा रही है। तथापि उसमें यह सब अपनी सहवर्ती परम्पराओं के प्रभाव से आया
कर्मकाण्ड और आध्यात्मिक साधनाएं प्रत्येक धर्म के अनिवार्य अंग है। कर्मकाण्ड उसका शरीर है और आध्यात्मिक उसका प्राण। भारतीय धर्मों में प्राचीनकाल से ही हमें ये दोनों प्रकार की प्रवृत्तियाँ स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है। जहाँ पारम्परिक वैदिक परम्परा कर्म-काण्डात्मक अधिक रही है, वहाँ प्राचीन श्रमण परम्पराएँ साधनात्मक अधिक रही है। फिर भी इन दोनों प्रवृत्तियों को एक-दूसरे से पूर्णतया पृथक रख पाना कठिन है। श्रमणपरम्परा में आध्यात्मिक और धार्मिक साधना के जो विधि-विधान बने थे, वे भी धीरे-धीरे
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