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अच्छाइयों का प्रभाव भी लोकाशाह पर पड़ा। दूसरी ओर उस युग में हिन्दू-धर्म के समान जैन धर्म भी मुख्यत: कर्मकाण्डी हो गया था। धीरे-धीरे उसमें से धर्म का आध्यात्मिक पक्ष विलुप्त होता जा रहा था। चैत्यवासी यति कर्मकाण्ड के नाम पर अपनी आजीविका को संबल बनाने के लिए जनमानस का शोषण कर रहे थे। अपनी अक्षरों की सुन्दरता के कारण लोकाशाह को जब प्रतिलिपि करते समय आगम ग्रन्थों के अध्ययन का मौका मिला तो उन्होंने देखा कि आज जैन मुनियों के आचार में भी सिद्धान्त और व्यवहार में बहुत बड़ी खाई आ गई है। साधकों के जीवन में आई सिद्धान्त और व्यवहार की यह खाई जनसामान्य की चेतना में अनेक प्रश्न खड़े कर रही थी। लोकाशाह के लिए यह एक अच्छा मौका था कि वे कर्मकाण्ड से मुक्त और आध्यात्मिक साधना से युक्त किसी धर्म परम्परा का विकास कर सकें।
लोकाशाह पूर्व जैन संघ की क्या स्थिति थी? इस सम्बन्ध में थोड़ा विचार पूर्व में कर चुके हैं। लोकाशाह के पूर्व १४वीं, १५वीं शती में जैन संघ मुख्य रूप से तीन सम्प्रदायों में विभक्त था-श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय। इसमें भी लगभग ५वीं शती में अस्तित्व में आई यापनीय परम्परा अब विलुप्ति के कगार पर थी। एक-दो भट्टारक गद्दियों के अतिरिक्त स्वतन्त्र रूप से उसका कोई अस्तित्व नहीं रह गया था। अत: मूलत: श्वेताम्बर और दिगम्बर ये दो परम्परायें ही अस्तित्व में थी। जहाँ तक दिगम्बर परम्परा का प्रश्न है तो उस काल में मुनि और आर्या संघ का कोई अस्तित्व नहीं रह गया था। मात्र भट्टारकों की ही प्रमुखता थी, किन्तु भट्टारक त्यागी वर्ग के प्रतिनिधि होकर भी मुख्यत: मठवासी बने बैठे थे। मठ की सम्पत्ति की वृद्धि और उसका संरक्षण उनका प्रमुख कार्य रह गया था। उत्तर भारत और दक्षिण भारत दोनों में ही स्थान-स्थान पर भट्टारकों की गद्दियाँ थी और धीरे-धीरे सामान्तों की तरह ये भी अपने क्षेत्रों और अनुयायियों पर अपना शासन चला रहे थे। भट्टारकों में भी अनेक संघ यथा- काष्ठा. माथुर, मूल, लाड़वागढ़, द्रविड़ आदि थे। जो कि कुछ गण या गच्छों में विभाजित थे। जहाँ तक श्वेताम्बर परम्परा का प्रश्न है उसमें संविग्न और सुविहित मुनियों का पूर्ण अभाव तो नहीं हुआ था, फिर भी चैत्यवासी यतियों की ही प्रमुखता थी। समाज पर वर्चस्व यति वर्ग का ही था और उनकी स्थिति भी मठवासी भट्टारकों के समान ही थी। धार्मिक क्रियाकाण्डों के साथ यति वर्ग मन्त्र-तन्त्र और चिकित्सा आदि से जुड़ा हुआ था। यह मात्र कहने की दृष्टि से ही त्यागी वर्ग कहा जाता है। वस्तुत: आचार की अपेक्षा से उनके पास उस युग के अनुरूप भोग की सारी सुविधायें उपलब्ध होती थी। यति वर्ग इतना प्रभावशाली था कि वे अपने प्रभाव से संविग्न एवं सुविहित मुनियों को अपने
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