Book Title: Jain Dharma ki Aetihasik Vikas Yatra
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राच्य विद्यापीठ ग्रन्थमाला-12 जैन धर्म की ऐतिहासिक विकास-यात्रा डॉ. सागरमल जैन प्रकाशक : प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर (म.प्र.) wwwg yorg Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया। । सम्यग्ज्ञानप्रदा भूयात् भव्यानाम् भक्तिशालिनी॥ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टे WER2450 अति प्राचिन श्री अवंति पार्श्वनाथ भगवान उज्जै न (म.प्र.) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सादर समर्पण अहिंसा अनेकान्त अपरिग्रह के अविरल दीप से सतत प्रकाशवान जिन शासन को सादर समर्पित Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मणिधारी दादा श्री जिनचन्द्रसूरिजी आतम हितकारी भगवान आदिनाथ दादा श्री जिनदत्तसूरिजी दादा श्री जिनचन्द्रसूरिजी ate & Personal Use दादा श्री जिनकुशलसूरिजी www. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशन सहयोगी श्री गुलाबचन्दजी फूलचन्दजी झाड़चूर शान्तादेवी गुलाबचन्दजी झाड़चूर नेमीचन्द, रिखबचन्द, शीतलचन्द, रमेशचन्द, सुनीलकुमार, श्रीचन्द, विनयचन्द झाड़चूर-जयपुर Forval Personal www.jainen Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म की ऐतिहासिक विकास - यात्रा लेखक डॉ. सागरमल जैन प्राच्य विद्यापीठ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक प्राच्य विद्यापीठ दुपाड़ा रोड, शाजापुर (म.प्र.) प्रकाशन सहयोग श्री गुलाबचन्दजी फूलचंदजी झाडचूर परिवार जयपुर ।। मूल्य - २५.०० रुपया मुद्रक आकृति आफसेट ५, नईपेठ, उज्जैन (म.प्र.) फोन - २५६१७२० Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म की ऐतिहासिक विकास-यात्रा (आदिकाल से लेकर आज तक) जैनधर्म एक जीवित धर्म है और कोई भी जीवित धर्म देश और कालगत परिवर्तनों से अछूता नहीं रहता जब भी किसी धर्म के इतिहास की बात करते हैं तो हमें यह समझ लेना चाहिए कि हम किसी स्थिर धर्म की बात नहीं करतें, क्योंकि किसी स्थिर धर्म का इतिहास हीं नहीं होता है। इतिहास तो उसी का होता है जो गतिशील है, परिवर्तनशील है। जो लोग यह मानते हैं कि जैनधर्म अपने आदिकाल से आज तक यथास्थिति में रहा है, वे बहुत ही भ्रान्ति में है । जैनधर्म के इतिहास की इस चर्चा के प्रसंग में मैं उन परम्पराओं की और उन परिस्थितियों की चर्चा भी करना चाहूँगा, जिसमें अपने सुदूर अतीत से लेकर वर्तमान तक जैनधर्म ने अपनी करवटें बदली हैं और जिनमें उसका उद्भव और विकास हुआ है। यद्यपि जनसंख्या की दृष्टि से आज विश्व में प्रति एक हजार व्यक्तियों में मात्र छह व्यक्ति जैन हैं, फिर भी विश्व के धर्मों के इतिहास में जैनधर्म का अपना एक विशिष्ट स्थान है क्योंकि वैचारिक उदारता, दार्शनिक गम्भीरता, लोकमंगल की उत्कृष्ट भावना, विपुल साहित्य और उत्कृष्ट शिल्प की दृष्टि से विश्व के धर्मों के इतिहास में इसका अवदान महत्त्वपूर्ण है। यहाँ हम इस परम्परा को इतिहास के आइने में देखने का प्रयास करेंगे। प्राचीन श्रमण या आर्हत् परम्परा विश्व के धर्मों की मुख्यतः सेमेटिक धर्म और आर्य धर्म, ऐसी दो शाखाएँ हैं। सेमेटिक धर्मों में यहूदी, ईसाई और इस्लाम आते हैं जबकि आर्य धर्मों में पारसी, हिन्दू (वैदिक), बौद्ध और जैनधर्म की गणना की जाती है। इनके अतिरिक्त सुदूर पूर्व के देश जापान और चीन में विकसित कुछ धर्म कन्फूशियस एवं शिन्तो के नाम से जाने जाते हैं। आर्य धर्मों के इस वर्ग में जहाँ हिन्दूधर्म के वैदिक स्वरूप को प्रवृत्तिमार्गी माना जाता है वहाँ जैनधर्म और बौद्धधर्म को संन्यासमार्गी या निवृत्तिपरक कहा जता है । यह निवृत्तिपरक संन्यासमार्गी परम्परा प्राचीन काल में श्रमण परम्परा, आर्हत् परम्परा या व्रात्य परम्परा के नाम से जानी जाती थी। जैन और बौद्ध दोनों ही धर्म इसी आर्हत्, व्रात्य या श्रमण परम्परा धर्म हैं। श्रमण परम्परा की विशेषता यह है कि वह सांसारिक एवं ऐहिक जीव की दुःखमयता को उजागर कर संन्यास एवं वैराग्य के माध्यम से निर्वाण या मोक्ष की प्राप्ति को जीवन का चरम लक्ष्य निर्धारित करती है । इस निवृत्तिमार्गी 3 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण परम्परा ने तप एवं योग की अपनी आध्यात्मिक साधना एवं शीलों या व्रतों के रूप में नैतिक मूल्यों की संस्थापना की दृष्टि से भारतीय धर्मों के इतिहास में आस्था विशिष्ट अवदान प्रदान किया है। इस प्राचीन श्रमण परम्परा में न केवल जैन और बौद्ध धारायें ही सम्मिलित हैं, अपितु औपनिषदिक और सांख्य-योग की धारायें भी सम्मिलित हैं जो आज बृहद् हिन्दूधर्म का ही एक अंग बन चुकी हैं। इनके अतिरिक्त आजीवक आदि अन्य कुछ धाराएँ भी थीं जो आज विलुप्त हो चुकी हैं। आज श्रमण परम्परा के जीवन्त धर्मों में बौद्धधर्म और जैनधर्म अपना अस्तित्व बनाये हुए हैं। यद्यपि बौद्धधर्म भारत में जन्मा और विकसित हुआ और यही से उसने सुदूरपूर्व में अपने पैर जमाये, फिर भी भारत में वह एक हजार वर्ष तक विलुप्त ही रहा, किन्तु यह शुभ संकेत है कि श्रमणधारा का यह धर्म भारत में पुनः स्थापित हो रहा है। जहाँ तक आर्हत् या श्रमणधारा के जैनधर्म का प्रश्न है, यह भारतभूमि में अतिप्राचीन काल से आज तक अपना अस्तित्व बनाये हुए है। अग्रिम पृष्ठों में हम इसी के इतिहास की चर्चा करेंगे। भारतीय इतिहास के आदिकाल से ही हमें श्रमणधारा के अस्तित्व के संकेत उपलब्ध होते हैं। फिर चाहे वह मोहनजोदड़ों और हड़प्पा से प्राप्त पुरातात्त्विक सामग्री हो या ऋग्वेद जैसा प्राचीनतम साहित्यिक ग्रन्थ हो । एक ओर मोहनजोदड़ो और हड़प्पा से प्राप्त अनेक सीलों पर हमें ध्यानस्थ योगियो के अंकन प्राप्त होते हैं तो दूसरी ओर ऋग्वेद में अर्हत्, व्रात्य, वातरसना मुनि आदि के उल्लेख उपलब्ध होते हैं। ये सब प्राचीन काल में श्रमण, व्रात्य या आर्हत् परम्परा के अस्तित्व के प्रमाण है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि आज प्रचलित जैनधर्म 'शब्द' का इतिहास अधिक पुराना नहीं है। यह शब्द ईसा की छठी सातवीं शती से प्रचलन में है। इसके पूर्व जैनधर्म के लिये 'निर्ग्रन्थ धर्म' या 'आर्हत् धर्म' ऐसे दो शब्द प्रचलित रहे हैं। इनमें भी 'निर्ग्रन्थ' शब्द मुख्यतः भगवान् पार्श्व और भगवान् महावीर की परम्परा का वाचक रहा है। किन्तु जहाँ तक ‘आर्हत्' शब्द का सम्बन्ध है यह मूल में एक व्यापक अर्थ में प्रयुक्त होता था। आर्हत् शब्द अर्हत् या अरहन्त के उपासकों का वाचक था और सभी श्रमण परम्पराएं चाहे वे जैन हो, बौद्ध हों या आजीवक हों, अरहन्त की उपासक रही हैं। अत: वे सभी परम्पराएं आर्हत् वर्ग में ही अन्तर्भूत थीं। ऋग्वैदिक काल में आर्हत् (श्रमण ) और बार्हत् (वैदिक) दोनों का अस्तित्व था और आर्हत् या व्रात्य श्रमणधारा के परिचायक थे। किन्तु कालान्तर में जब कुछ श्रमण परम्पराएं बृहद् हिन्दूधर्म का अंग बन गई और आजीवक आदि कुछ श्रमण परम्पराएं लुप्त हो गई तथा बौद्ध परम्परा विदेशों में अपना अस्तित्व रखते हुये भी इस भारतभूमि से नामशेष हो गई तो आर्हत् शब्द भी सिमट कर मात्र जैन परम्परा का वाचक हो गया। इस प्रकार आर्हत, व्रात्य, 4 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण आदि शब्द अति प्राचीन काल से जैनधर्म के भी वाचक रहे हैं। यही कारण है कि जैन धर्म का आर्हत् धर्म, श्रमण धर्म या निवृत्तिमार्गी धर्म भी कहा जाता है। किन्त यहाँ हमें यह ध्यान रखना है कि आर्हत् व्रात्य, श्रमण आदि शब्द अति प्राचीन काल से जैनधर्म के साथ अन्य निवृत्तिमार्गी धर्मों के भी वाचक रहे हैं जब कि निर्ग्रन्थ या ज्ञातपत्रीय श्रमण जैनों के परिचायक हैं। आगे हम श्रमणधारा या निवृत्तिमार्गी धर्म, जिसका एक अंग जैनधर्म भी है, के उद्भव, विकास और उसकी विशेषताओं की चर्चा करना चाहेंगे। श्रमणधारा का उद्भव मानव-अस्तित्व द्वि-आयामी एवं विरोधाभासपूर्ण है। यह स्वभावतः परस्पर विरोधी दो भिन्न केन्द्रों पर स्थित है। वह न केवल शरीर है और न केवल चेतना, अपितु दोनों की एक विलक्षण एकता है। यही कारण है कि उसे दो भिन्न स्तरों पर जीवन जीना होता है। शारीरिक स्तर पर वह वासनाओं से चालित है और यहाँ उस पर यान्त्रिक नियमों का आधिपत्य है, किन्तु चैतसिक स्तर पर वह विवेक से शासित है, यहाँ उसमें संकल्प-स्वातन्त्र्य है। शारीरिक स्तर पर वह बद्ध है, परतन्त्र है किन्तु चैतसिक स्त्र पर स्वतंत्र है, मुक्त है। मनोविज्ञान की भाषा में जहाँ एक ओर वह वासनात्मक अहं (Id) से अनुशासित है, तो दूसरी ओर आदर्शात्मा (Super Ego) से प्रभावित भी है वासनात्मक अहं उसकी शारीरिक माँगों की अभिव्यक्ति का प्रयास है तो आदर्शात्मा उसका आध्यात्मिक स्वभाव है, उसका निज स्वरूप है, जो निर्द्वन्द्व एवं निराकुल चैतसिक समत्व की अपेक्षा करता है। उसके लिये इन दोनों में से किसी की भी पूर्ण उपेक्षा सम्भव नहीं है उसके जीवन की सफलता इनके बीच सन्तुलन बनाने में निहित है। उसके वर्तमान अस्तित्व के ये छोर हैं। उसकी जीवनधारा इन दोनों का स्पर्श करते हुए इनके बीच बहती है। मानव अस्तित्व के इन दोनों पक्षों के कारण धर्म के क्षेत्र में भी दो धाराओं का उद्भव हुआ - १. वैदिकधारा और २. श्रमणधारा श्रमणधारा के उद्भव का मनोवैज्ञानिक आधार ___ मानव-जीवन में शारीरिक विकास वासना को और चैतसिक विकास विवेक को जन्म देता है। प्रदीप्त-वासना अपनी सन्तुष्टि के लिये 'भोग' की अपेक्षा रखती है तो विशुद्ध-विवेक अपने अस्तित्व के लिये 'संयम' या 'विराग' की अपेक्षा करता है। क्योंकि सराग-विवेक सही निर्णय देने में अक्षम होता है। वस्तुतः वासना भोगों पर जीती है और विवेक विराग पर। यही दो अलग-अलग जीवन दृष्टियों का निर्माण होता है। एक का आधार वासना भोग होता है तो दूसरी का आधार विवेक और विराग। श्रमण Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परा में इनमें से पहली को मिथ्या-दृष्टि और दूसरी को सम्यक्-दृष्टि के नाम से अभिहित किया गया है। उपनिषदों में इन्हें क्रमश: प्रेय और श्रेय के मार्ग कहे गये हैं। "कठोपनिषद' में ऋषि कहता है कि प्रेय और श्रेय दोनों ही मनुष्य के सामने उपस्थित होते हैं उसमें से मन्द-बुद्धि शारीरिक योग-क्षेम अर्थात् प्रेय को और विवेकी पुरुष श्रेय को चनता है। वासना की दृष्टि के लिये भोग और भोगों के साधनों की उपलब्धि के लिये कर्म अपेक्षित है। इसी भोगप्रधान जीवन-दृष्टि से कर्म-निष्ठा का विकास हुआ है। दूसरी ओर विवेक के लिये विराग (संयम) और विराग के लिये आध्यात्कि मूल्य-बोध (शरीर के ऊपर आत्मा की प्रधानता का बोध) अपेक्षित हैं। इसी से आध्यात्मिक जीवनदृष्टि या त्याग-मार्ग का विकास हुआ। इनमें पहली धारा से प्रवर्तक धर्म का और दूसरी से निवर्तक धर्म का उद्भव हुआ। प्रवर्तक धर्म का लक्ष्य भोग ही रहा, अतः उसने अपनी साधना का लक्ष्य सुविधाओं की उपलब्धि को ही बनाया। जहाँ ऐहिक जीवन में उसने धन-धान्य, पुत्र, सम्पत्ति आदि की कामना की, वहीं पारलौकिक जीवन में स्वर्ग (भौतिक सुख-सुविधाओं की उच्चतम अवस्था) की प्राप्ति को मानव-जीवन का चरम लक्ष्य घोषित किया। पुनः आनुभविक जीवन में जब मनुष्य ने यह देखा कि अलौकिक एवं प्राकृतिक शक्तियाँ उसकी सुखसुविधाओं की उपलब्धि के प्रयासों को सफल या विफल बना सकती हैं, अतः उसने यह माना कि उसकी सुख-सुविधाएँ उसके अपने पुरुषार्थ पर नहीं, अपितु इन शक्तियों की कृपा पर निभर हैं, तो वह इन्हें प्रसन्न करने के लिये एक ओर इनकी स्तुति और प्रार्थना करने लगा तो दूसरी ओर उन्हें बलि और यज्ञों के माध्यम से भी सन्तुष्ट करने लगा। इस प्रकार प्रवर्तक धर्म में दो शाखाओं का विकास हुआ - १. श्रद्धाप्रधान भक्तिमार्ग और २. यज्ञ-याग प्रधान कर्म- मार्ग। दूसरी ओर निष्पाप और स्वतन्त्र जीवन जीने की उमंग में निर्वतक धर्म में निर्वाण या मोक्ष अर्थात वासनाओं एवं लौकिक एषणाओं से पूर्ण मुक्ति को मानव-जीवन का लक्ष्य माना और इस हेतु ज्ञान और विराग को प्रधानता दी, किन्तु ज्ञान और विराग का यह जीवन सामाजिक एवं पारिवारिक व्यस्तताओं के मध्य सम्भाव नहीं था। अतः निवर्तक धर्म मानव को जीवन के कर्म-क्षेत्र से कहीं दूर निर्जन वनखण्डों और गिरि कन्दराओं में ले गया। उसमें जहाँ एक ओर दैहिक मूल्यों एवं वासनाओं के निषेध पर बल दिया गया जिससे वैराग्यमूलक तप-मार्ग का विकास हुआ, वहीं दूसरी ओर उस निवृत्तिमूलक जीवन में चिन्तन और विमर्श के द्वार खुले, जिज्ञासा का विकास हुआ, जिससे चिन्तनप्रधान ज्ञान-मार्ग का उद्भव हुआ। इस प्रकर निवर्तक धर्म भी दो शाखाओं में विभक्त हो गया - १. ज्ञान-मार्ग, २. तप-मार्ग। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव प्रकृति के दैहिक और चैतसिक पक्षों के आधार पर प्रवर्तक और निवर्तक धर्मों के विकास की इस प्रक्रिया को निम्न सारिणी के माध्यम से अधिक स्पष्ट किया जा सकता है - (प्रवर्तक) देह वासना 1 भोग I अभ्युदय (प्रेय) स्वर्ग कर्म I प्रवृत्ति प्रवर्तक धर्म अलौकिक शक्तियों की उपासना यज्ञमूलक कर्ममार्ग समर्पणमूलक भक्ति मार्ग मनुष्य चिन्तन प्रधान ज्ञानमार्ग (निवर्तक) चेतना विवेक | विराग (त्याग) निःश्रेयस् मोक्ष (निर्वाण) T संन्यास निवृत्ति निवर्तक धर्म I आत्मोपलब्धि निवर्तक (श्रमण) एवं प्रवर्तक (वैदिक) धर्मों के दार्शनिक एवं सांस्कृतिक प्रदेय प्रवर्तक और निर्वतक धर्मों का यह विकास भिन्न-भिन्न मनोवैज्ञानिक आधारों पर हुआ था, अतः यह स्वाभाविक था कि उनके दार्शनिक एवं सांस्कृतिक प्रदेय भिन्न-भिन्न हों । प्रवर्तक एवं निवर्तक धर्मों के इन प्रदेयों और उनके आधार पर उनमें रही हुई पारस्परिक भिन्नता को निम्न सारणी से स्पष्टतया समझा जा सकता है - देहदण्डनमूलक तपमार्ग Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धानता प्रवर्तक धर्म १. जैविक मूल्यों की प्रधानता २. विधायक जीवन-दृष्टि ३. समष्टिवादी ४. व्यवहार में कर्म पर बल फिर भी दैविक शक्तियों की कृपा पर विश्वास ५. ईश्वरवादी ६. ईश्वरीय कृपा पर विश्वास ७. साधना के बाह्य साधनों पर बल ८. जीवन का लक्ष्य स्वर्ग/ईश्वर के सानिध्य की प्राप्ति ९. वर्ण-व्यवस्था और जातिवाद का जन्मना आधार पर समर्थन १०. गृहस्थ-जीवन की प्रधानता ११. सामाजिक जीवन शैली १२. राजतन्त्र का समर्थन १३. शक्तिशाली की पूजा १४. विधि विधानों एवं कर्मकाण्डों की प्रधानता। १५. ब्राह्मण-संस्था (पुरोहित-वर्ग) का विकास १६. उपासनामूलक निवर्तक धर्म १. आध्यात्मिक मूल्यों की प्रधानता। २. निषेधक जीवन-दृष्टि। ३. व्यष्टिवादी ४. व्यवहार में नैषकर्मण्यता का समर्थन फिर आत्मकल्याण हेतु वैयक्तिक पुरुषार्थ पर बल। ५. अनीश्वरवादी। ६. वैयक्तिक प्रयासों पर विश्वास, कर्म सिद्धांत का समर्थन। ७. आन्तरिक विशुद्धता पर बल। ८. जीवन का मोक्ष एवं निवार्ण की प्राप्ति। ९. जातिवाद का विरोध, वर्ण-व्यवस्था का केवल कर्मणा आधार पर समर्थन। १०. संन्यास जीवन की प्रधानता। ११. एकाकी जीवन शैली १२. जनतन्त्र का समर्थन। १३. सदाचारी की पूजा। १४. ध्यान और तप की प्रधानता। १५. श्रमण-संस्था का विकास। १६. समाधिमूलक। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवर्तक धर्म में प्रारम्भ में जैविक मूल्यों की प्रधानता रहीं, वेदों में जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति से सम्बन्धित प्रार्थनाओं के स्वर अधिक मुखर हुए हैं। उदाहरणार्थ-हम सौ वर्ष जीयें, हमारी सन्तान बलिष्ट होवे, हमारी गाये अधिक दूध देवें, वनस्पति प्रचुर मात्रा में हो आदि। इसके विपरीत निवर्तक धर्म ने जैविक मूल्यों के प्रति एक निषेधात्मक रुख अपनाया, उसने सांसारिक जीवन की दुःखमयता का राग अलापा। उनकी दृष्टि में शरीर आत्मा का बन्धन है और संसार दुःखों का सागर। उन्होंने संसार और शरीर दोनों से ही मुक्ति को जीवन-लक्ष्य माना। उनकी दृष्टि में दैहिक आवश्यकताओं का निषेध, अनासक्ति विराग और आत्म सन्तोष ही सर्वोच्च जीवनमूल्य है। एक ओर जैविक मूल्यों की प्रधानता का परिणाम यह हुआ है कि प्रवर्तक धर्म में जीवन के प्रति एक विधायक दृष्टि का निर्माण हुआ तथा जीवन को सर्वतोभावेन वांछनीय और रक्षणीय माना गया, तो दूसरी ओर जैविक मूल्यों के निषेध से जीवन के प्रति एक ऐसी निषेधात्मक दृष्टि का विकास हुआ जिसमें शारीरिक माँगों को ठुकराना ही जीवन-लक्ष्य मान लिया गया और देह-दण्डन ही तप-त्याग और आध्यात्मिक के प्रतीक बन गए। प्रवर्तक धर्म जैविक मूल्यों पर बल देता है अतः स्वाभाविक रूप से वह समाजगामी बना, क्योंकि दैहिक आवश्यकताओं की पूर्ति, जिसका एक अंग काम भी है, तो समाज-जीवन में ही सम्भव थी, किन्तु विराग ओर त्याग पर अधिक बल देने के कारण निवर्तक धर्म-समाज विमुख और वैयक्तिक बन गये। यद्धपि देहिक मूल्यों की उपलब्धि हेतु कर्म आवश्यक थे। जब मनुष्य ने यह देखा कि दैहिक आवश्यकताओं की सन्तुष्टि के लिये उसके वैयक्तिक प्रयासों के बावजूद उनकी पूर्ति या अपूर्ति किन्हीं अन्य शक्तियों पर निर्भर है, तो वह दैववादी और ईश्वरवादी बन गया। विश्व-व्यवस्था और प्राकृतिक शक्तियों के नियन्त्रक तत्त्वों के रूप में उसने विभिन्न देवों और फिर ईश्वर की कल्पना की और उनकी कृपा की आकांक्षा करने लगा। इसके विपरीत निवर्तक धर्म व्यवहार में नैष्कर्मण्यत का समर्थक होते हुए भी कर्म-सिद्धान्त के प्रति आस्था के कारण यह मानने लगा कि व्यक्ति का बन्धन और मुक्ति स्वयं उसके कारण है, अतः निवर्तक धर्म पुरुषार्थवाद और वैयक्तिक प्रयासों पर आस्था रखने लगा। अनीश्वरवाद, पुरुषार्थवाद और कर्मसिद्धान्त उसके प्रमुख तत्त्व बन गए। साधना के क्षेत्र में जहाँ प्रवर्तक धर्म में अलौकिक दैवीय शक्तियों की प्रसन्नता के निमित्त कर्मकाण्ड और बाह्य-विधानों (यज्ञयोग) का विकास हुआ, वहीं निवर्तक धर्मों ने चित्त-शुद्धि और सदाचार पर अधिक बल दिया तथा किन्हीं दैवीय शक्तियों के निमित्त कर्मकाण्ड के सम्पादन को अनावश्यक माना। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवर्तक श्रमण धर्मों की विकास-यात्रा भारतीय संस्कृतिक एक समन्वित संस्कृति है। इसकी संरचना में वैदिकधारा और श्रमणधारा का महत्त्वपूर्ण अवदान है। वैदिकधारा मूलतः प्रवृत्तिप्रधान और श्रमणधारा निवृत्तिप्रधान रही है। वैदिकधारा का प्रतिनिधित्व वर्तमान में हिन्दूधर्म करता है जबकि श्रमणधारा का प्रतिनिधित्व जैन और बौद्ध धर्म करते हैं। किन्तु यह समझना भ्रान्तिपूर्ण होगा की वर्तमान हिन्दुधर्म अपने शुद्ध रूप में मात्र वैदिक परम्परा का अनुयायी है। आज उसने श्रमणधारा के अनेक तत्त्वों को अपने में समाविष्ट कर लिया है। अतः वर्तमान हिन्दूधर्म वैदिकधारा और श्रमणधारा का एक समन्वित रूप है और उसमें इन दोनों परम्पराओं के तत्त्व सन्निहित हैं। इसी प्रकार यह कहना भी उचित नहीं होगा कि जैनधर्म और बौद्धधर्म मूलतः श्रमण-परम्परा के धर्म होते हुए भी वैदिकधरा या हिन्दूधर्म से पूर्णतः अप्रभावित रहे हैं। इन दोनों धर्मों ने भी वैदिकधारा के विकसित धर्म से कालक्रम में बहुत कुछ ग्रहण किया है। यह सत्य है कि हिन्दूधर्म प्रवृत्तिप्रधान रहा है। उसमें यज्ञ-याग और कर्मकाण्ड की प्रधानता है, फिर भी उसमें संन्यास, मोक्ष और वैराग्य का अभाव नहीं है। अध्यात्म, संन्यास और वैराग्य के तत्त्वों को उसने श्रमण-परम्परा से न केवल ग्रहण किया है अपितु उन्हें आत्मसात भी कर लिया है। यद्यपि वेदकाल के प्रारंभ में ये तत्त्व उसमें पूर्णतः अनुपस्थित थे, किन्तु औपनिषदिक काल में उसमें श्रमण-परम्परा के इन तत्त्वों को मान्यता प्राप्त हो चुकी थी। 'ईशावास्योपनिषद्' सर्वप्रथम वैदिकधारा और श्रमणधारा के समन्वय का प्रयास है। आज हिन्दूधर्म में संन्यास, वैराग्य, तप-त्याग ध्यान और मोक्ष की जो अवधारणाएँ विकसित हुई हैं, वे सभी इस बात को प्रमाणित करती हैं कि वर्तमान हिन्दूधर्म ने भारत की श्रमणधारा से बहुत कुछ ग्रहण किया है। उपनिषद वैदिक और श्रमणधारा के समन्वयस्थल हैं, उनमें वैदिक हिन्दूधर्म एक नया स्वरूप लेता प्रतीत होता है। इसी प्रकार कालान्तर में श्रमणधारा ने भी चाहे-अनचाहे वैदिकधारा से बहुत कुछ ग्रहण किया है। श्रमणधारा में कर्मकाण्ड और पूजा-पद्धति तो वैदिकधारा से आयी ही है, अपितु अनेक हिन्दू देवी-देवता भी श्रमण-परम्परा में मान्य कर लिये गए हैं। भारतीय संस्कृति की ये विभिन्न धाराएँ किस रूप में एक-दूसरे से समन्वित हुई है, इसकी चर्चा करने के पूर्व हमें यह ध्यान रखना होगा कि इन दोनों धाराओं का स्वतन्त्र विकास किन मनोवैज्ञानिक और पारिस्थितिक कारणों से हुआ है तथा कालक्रम में क्यों और कैसे इनका परस्पर समन्वय आवश्यक हुआ। 10 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण एवं वैदिक संस्कृतियों के समन्वय की यात्रा यद्यपि पूर्व में हमने प्रवर्तक धर्म अर्थात् वैदिक परम्परा और निवर्तक धर्म अर्थात् श्रमण परम्परा की मूलभूत विशेषताओं और उनके सांस्कृतिक एवं दार्शनिक प्रदेयों को समझा है, किन्तु यह मानना भ्रान्तिपूर्ण ही होगा कि आज वैदिकधारा और श्रमणधरा ने अपने इस मूल स्वरूप को बनाए रखा है। एक ही देश और परिवेश में रहकर दोनों ही धाराओं के लिये असम्भव थ कि वे एक-दूसरे के प्रभाव से अछूती रहें। अतः जहाँ वैदिकधारा में श्रमणधारा (निवर्तक धर्म-परम्परा) के तत्त्वों का प्रवेश हुआ है, वहाँ श्रमणधारा में प्रवर्तक धर्म परम्परा के तत्त्वों का प्रवेश भी हुआ है। अतः आज के युग में कोई धर्म-परम्परा न तो ऐकान्तिक निवृत्तिमार्ग की पोषक है और न ऐकान्तिक प्रवृत्तिमार्ग की। वस्तुत: निवृत्ति और प्रवृत्ति के सम्बन्ध में ऐकान्तिक दृष्टिकोण न तो व्यावहारिक है और न मनोवैज्ञानिक। मनुष्य जब तक मनुष्य है, मानवीय आत्मा जब तक शरीर के साथ योजित होकर सामाजिक जीवन जीती है, तब तक ऐकान्तिक प्रवृत्ति और ऐकान्तिक निवृत्ति की बात करना एक मृग-मरीचिका में जीना होगा। वस्तुतः आवश्यकता इस बात की रही है कि हम वास्तविकता को समझें और प्रवृत्ति एवं निवृत्ति के तत्त्वों में समुचित समन्वय से एक ऐसी जीवन शेली खोजें जो व्यक्ति और समाज दोनों के लिये कल्याणकारी हो और मानव को तृष्णाजनिक मानसिक एवं समाजिक सन्त्रास से मुक्ति दिला सके। इस प्रकार इन दो भिन्न संस्कृतियों में पारस्परिक समन्वय आवश्यक था। जैनधर्म में इसी प्रयास में मुनिधर्म के साथ-साथ गृहस्थधर्म का भी प्रतिपादन हुआ और उसे विरताविरत अर्थात् आंशिक रूप से निवृत्त और आंशिक रूप से प्रवृत्त कहा गया। भारत में प्राचीन काल से ही ऐसे प्रयत्न होते रहे हैं। प्रवर्तकधारा के प्रतिनिधि हिन्दूधर्म में समन्वय के सबसे अच्छे उदाहरण 'ईशावास्योपनिषद्' और 'भगवद्गीता' हैं। इन दोनों ग्रंथों में प्रवृत्ति और निवृत्तिमार्ग के समन्वय का स्तुत्य प्रयास हुआ है। श्रमण परम्परा की एक अन्य धारा के रूप में विकसित बौद्धधर्म में तो प्रवर्तक धारा के तत्त्वों का इतना अधिक प्रवेश हुआ कि महायान से तन्त्रयान की यात्रा तक वह अपने मूल स्वरूप से काफी दूर हो गया। भारतीय धर्मों के ऐतिहासिक विकास-क्रम में हम कालक्रम में हुए इस आदान-प्रदान की उपेक्षा नहीं कर सकते हैं। इसी आदान-प्रदान के कारण ये परम्पराएँ एक-दूसरे के काफी निकट आ गई। वस्तुत: भारतीय संस्कृति एक संश्लिष्ट संस्कृति है। उसे हम विभिन्न चारदीवरियों 11 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में अवरुद्ध कर कभी भी सम्यक् प्रकार से नहीं समझ सकते हैं, उसको खण्ड-खण्ड में विभाजित करके देखने में उसकी आत्मा ही मर जाती है। जैसे शरीर को खण्ड-खण्ड कर देखने से शरीर की क्रिया-शक्ति को नहीं समझा जा सकता है, वैसे ही भारतीय संस्कृति को खण्ड-खण्ड करके उसकी मूल आत्मा को नहीं समझा जा सकता है। भारतीय संस्कृति को हम तभी सम्पूर्ण समझ सकते हैं, जब उसके विभिन्न घटकों अर्थात् जैन, बौद्ध और हिन्दू धर्म-दर्शन का समन्वित एवं सम्यक् अध्ययन न कर लें। बिना उसके संयोजित घटकों के ज्ञान से उसका सम्पूर्णता में ज्ञान सम्भव ही नहीं है। एक इंजन की प्रक्रिया को भी सम्यक् प्रकार से समझने के लिये न केवल उसके विभिन्न घटकों का अर्थात् कल-पुर्जी का ज्ञान आवश्यक होता है, अपितु उनके परस्पर संयोजित रूप को भी देखना होता है। अतः हमें स्पष्ट रूप से इस तथ्य को समझ लेना चाहिये कि भारतीय संस्कृति के अध्ययन एवं शोध के क्षेत्र में अन्य सहवर्ती परम्पराओं और उनके पारस्परिक सम्बन्धों के अध्ययन के बिना कोई भी शोध परिपूर्ण नहीं हो सकती है। धर्म और संस्कृति शून्य में विकसित नहीं होते, वे अपने देश, काल और सहवर्ती परम्पराओं से प्रभावित होकर ही अपना स्वरूप ग्रहण करते हैं। यदि हमें जैन, बौद्ध, वैदिक या अन्य किसी भी भारतीय संस्कृति धारा का अध्ययन करना है, उसे सम्यक् प्रकार से समझना है, तो उसके देश, काल एवं परिवेशगत पक्षों को भी प्रामाणिकतापूर्वक तटस्थ बुद्धि से समझना होगा। चाहे जैन विद्या के शोध एवं अध्ययन का प्रश्न हो या अन्य किसी भारतीय विद्या के, हमें उसकी दूसरी परम्पराओं को अवश्य ही जानना होगा और देखना होगा कि वह उन दूसरी सहवर्ती परम्पराओं से किस प्रकार प्रभावित हुई है और उसने उन्हें किस प्रकार प्रभावित किया है। पारस्परिक प्रभाव के अध्ययन के बिना कोई भी अध्ययन पूर्ण नहीं होता है। यह सत्य है कि भारतीय संस्कृति के इतिहास के आदिकाल से ही हम उसमें श्रमण और वैदिक संस्कृति का अस्तित्व साथ-साथ पाते हैं, किन्तु हमें यह भी स्मरण रखना होगा कि भारतीय संस्कृति में इन दोनों स्वतन्त्र धाराओं का संगम हो गया है और अब उन्हें एक-दूसरे से पूर्णतया अलग नहीं किया जा सकता। भारतीय इतिहास के प्रारम्भिक काल से ही ये दोनों धाराएँ परस्पर एक-दूसरे से प्रभावित होती रही है। अपनी-अपनी विशेषताओं के आधार पर विचार के क्षेत्र में हम चाहे उन्हें अलग-अलग देख लें, किन्तु व्यावहारिक स्तर पर उन्हें एक-दूसरे से पृथक् नहीं कर सकते। भारतीय वाङ्मय में ऋग्वेद प्राचीनतम माना जाता है। उसमें जहाँ एक ओर वैदिक समाज एवं वैदिक क्रियाकाण्डों का उल्लेख है, वहीं दूसरी ओर उसमें न केवल व्रात्या, श्रमणों एवं अर्हतों की उपस्थिति के उल्लेख उपलब्ध हैं, अपितु ऋषभ, अरिष्टनेमि आदि, जो जैन 12 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परा में तीर्थङ्कर के रूप में मान्य हैं, के प्रति समादर भाव भी व्यक्त किया गया है। इससे यह प्रतीत होता है कि ऐतिहासिक युग के प्रारंभ से भी भारत में ये दोनों संस्कृतियाँ साथ-साथ प्रवाहित होती रही । हिन्दूधर्म की शैवधारा और सांख्य योग परम्परा मूलतः निवर्तक या श्रमण रही हैं जो कालक्रम में बृहद् हिन्दूधर्म में आत्मसात् कर ली गई है। मोहनजोदड़ों और हड़प्पा के उत्खनन में जिस प्राचीन भारतीय संस्कृति की जानकारी हमें उपलब्ध होती है, उससे सिद्ध होता है कि वैदिक संस्कृति के पूर्व भी भारत में एक उच्च संस्कृति अस्तित्व रखती थी जिसमें तप, ध्यान आदि पर बल दिया जाता था। उस उत्खनन में ध्यानस्थ योगियों की सीलें आदि मिलना तथा प्राचीन स्तर पर यज्ञशाला आदि का न मिलना यहीं सिद्ध करता है कि वह संस्कृति तप, योग एवं ध्यान-प्रदान व्रात्य या श्रमण संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती थी। यह निश्चित है कि आर्यों के आगमन के साथ प्रारंभ हुआ वैदिक युग से ये दोनों ही धाराएँ साथ-साथ प्रवाहित हो रही है और उन्होंने एक-दूसरे को पर्याप्त रूप से प्रभावित भी किया है। ऋग्वेद में व्रात्यों के प्रति जो तिरस्कार भाव था, वह अथर्ववेद में समादर भाव में बदल जाता है जो दोनो धाराओं के समन्वय का प्रतीक है। तप, त्याग, संन्यास, ध्यान, समाधि, मुक्ति और अहिंसा की अवधारणाएँ जो प्रारम्भिक वैदिक ऋचाओं और कर्मकाण्डीय ब्राह्मण ग्रन्थों में अनुपलब्ध थीं, वे आरण्य आदि परवर्ती वैदिक साहित्य में और विशेष रूप से उपनिषदों में अस्तित्व में आ गये हैं। इससे लगता है कि ये अवधारणाएँ संन्यासमार्गीय श्रमणधारा के प्रभाव से ही वैदिकधारा में प्रविष्टि हुई हैं। उपनिषदों, महाभारत और गीता में एक ओर वैदिक कर्मकाण्ड की समालोचना और उन्हें आध्यात्मिकता से समन्वित कर नए रूप में परिभाषित करने का प्रयत्न तथा दूसरी ओर तप, संन्यास और मुक्ति आदि की स्पष्ट रूप से स्वीकृति, यही सिद्ध करती है कि ये ग्रंथ वैदिक एवं श्रमणधारा के बीच हुए समन्वय या संगम के ही परिचायक हैं। हमें यह स्मरण रखना होगा कि उपनिषद् और महाभारत, जिसका एक अंग गीता है, शुद्ध रूप से वैदिक कर्मकाण्डात्मक धर्म के प्रतिनिधि नहीं हैं। वह निवृत्तिप्रधान श्रमणधारा और प्रवृत्तिमार्गी वैदिकधारा के समन्वय का परिणाम है । उपनिषदों, महाभारत और गीता में जहाँ एक ओर श्रमणधारा के आध्यात्मिक और निवृत्तिप्रधान तत्त्वों को स्थान दिया गया है, वही दूसरी ओर यज्ञ आदि वैदिक कर्मकाण्डों की श्रमण परम्परा के समान आध्यात्मिक दृष्टि से नवीन परिभाषाएँ भी प्रस्तुत की गई है। उसमें यज्ञ का अर्थ पशुबलि न होकर स्वहितो की बलि या समाजसेवा हो गया। हमें यह स्मरण रखना होगा कि हमारा आज का हिन्दूधर्म वैदिक और श्रमणधाराओं के समन्वय का परिणाम है। वैदिक कर्मकाण्ड के विरोध में जो आवाज औपनिषिदक युग के ऋषि-मुनियों ने उठाई थीं, जैन 13 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और अन्य श्रमण परम्पराओं ने मात्र उसे मुखर ही किया है। हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि वैदिक कर्मकाण्ड के प्रति यदि किसी ने पहली आवाज उठाई तो वे औपनिषदिक ऋषि ही थे। उन्होंने ही सबसे पहले कहा था कि ये यज्ञरूपी नौकाएँ अदृढ़ हैं, ये आत्मा के विकास में सक्षम नहीं हैं। यज्ञ आदि वैदिक कर्मकाण्ज्ञों की नवीन आध्यात्मिक दृष्टि से व्याख्या करने का कार्य औपनिषिदक ऋषियों और गीता के प्रवक्ता का है। महावीर एवं बुद्धकालीन जैन और बौद्ध परम्पराएँ तो औपनिषिदक ऋषियों के द्वारा प्रशस्त किये गए पथ पर गतिशील हुई हैं। वे वैदक कर्मकाण्ड, जन्मना जातिवाद और मिथ्या विश्वास के विरोध में उठे हुए औपनिषिदक ऋषियों के स्वर के ही मुखरित रूप है। जैन और बौद्ध परम्पराओं में औपनिषदिक ऋषियों की अर्हत् ऋषियों के रूप में स्वीकृति इसका स्पष्ट प्रमाण है। यह सत्य है कि श्रमणों ने यज्ञों में पशुबलि, जन्मना वर्ण-व्यवस्था और वेदों के प्रामाण्य से इन्कार किया और इस प्रकार वे भारतीय संस्कृति के समुद्धारक के रूप में ही सामने आये, किन्तु हमें यह भी नहीं भूलना चाहिये कि भारतीय संस्कति में आई इन विकृतियों के परिमार्जन करने की प्रक्रिया में वे स्वयं ही कहीं न कहीं उन विकृतियों से प्रभावित हो गए है। वैदिक कर्मकाण्ड अब पूजा-विधानों एवं तन्त्र-साधना के नये रूप में बौद्ध, जैन और अन्य श्रमण परम्पराओं में प्रविष्ट हो गया है और उनकी साधनापद्धति का एक अंग बन गया है। आध्यात्कि विशुद्धि के लिये किये जानेवाला ध्यान अब भौतिक सिद्धियों के निमित्त किया जाने लगा है। जहाँ एक ओर भारतीय श्रमणपरम्परा ने वैदिक परम्परा को आध्यात्मिक जीवन-दृष्टि के साथ-साथ तप, त्याग, संन्यास और मोक्ष की अवधारणाएँ प्रदान की, वहीं दूसरी ओर तीसरी-चौथी शती से वैदिक परम्परा के प्रभाव से पूजा-विधान और तान्त्रिक साधनाएँ जैन और बौद्ध परम्पराओं में प्रविष्टि हो गई। अनके हिन्दू देव-देवियाँ प्रकारान्तर में जैनधर्म एवं बौद्धधर्म में स्वीकार कर ली गई। जैनधर्म में यक्ष-यक्षणियों एवं शासन-देवता की अवधारणाएँ हिन्दू देवताओं का जैनीकरण मात्र है। अनेक हिन्दू देवियाँ जैसे - काली, महाकाली, ज्वालामालिनि अम्बिका, चक्रेश्वरी, पद्मावती, सिद्धायिक, तीर्थङ्करों की शासन-रक्षक देवियों के रूप में जैनधर्म का अंग बन गईं। इसी प्रकार श्रुत-देवता के रूप में सरस्वती और सम्पत्ति प्रदार के रूप में लक्ष्मी की उपासना भी जैनधर्म में ही होने लगी और हिन्दू-परम्परा का गणेश पार्श्व-यक्ष के रूप में लोकमंगल का देवता बन गया। वैदिक परम्परा के प्रभाव से जैन मंदिरों में भी अब यज्ञ होने लगे और पूजा-विधान में हिन्दू देवताओं की तरह तीर्थङ्करों का आह्वान एवं विसर्जन किया जाने लगा। हिन्दुओं की पूजा-विधि को भी मन्त्रों में कुछ शाब्दिक परिवर्तनों के साथ जैनों ने स्वीकार कर 14 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिया। इस सबकी विस्तृत चर्चा आगे की गई है। इस प्रकार जैन और बौद्ध परम्पराओं में तप, ध्यान और समाधि की साधना गौण होकर पूजा-विधि-विधान प्रमुख हो गया। इस पारस्परिक प्रभाव का एक परिणाम यह भी हआ कि जहाँ हिन्दू परम्परा में ऋषभ और बुद्ध को ईश्वर के अवतार के रूप में स्वीकार कर लिया गया, वहीं जैन परम्परा में राम और कृष्ण को शलाकापुरुष के रूप में मान्यता मिली। इस प्रकार दोनों धाराएँ एक-दूसरे से समन्वित हुई। आज हमें उनकी इस पारस्परिक प्रभावशीलता को तटस्थ दृष्टि से स्पष्ट करने का प्रयास करना चाहिये, ताकि धर्मों के बीच जो दूरियाँ पैदा कर दी गयी है, उन्हें समाप्त किया जा सके और उनकी निकटता को भी सम्यक् रूप से समझा जा सकें। दुर्भाग्य से इस देश में विदेशी तत्त्वों के द्वारा न केवल हिन्दू और मुसलमानों के बीच, अपितु जैन, बौद्ध, हिन्दू, सिक्खों, जो कि बृहद भारतीय परम्परा के ही अंग है, के बीच भी खाइयाँ खोदने का कार्य किया जाता रहा है और सामान्य रूप से यह प्रसारित किया जाता रहा है कि जैन और बौद्धधर्म न केवल स्वतन्त्र धर्म है, अपितु वे वैदिक हिन्दू-परम्परा के विरोधी भी हैं। सामान्यतया जैन और बौद्धधर्म को वैदिक धर्म के प्रति विद्रोह के रूप में चित्रित किया जाता है। यह सत्य है कि वैदिक और श्रमणपरम्पराओं में कुछ मूल-भूत प्रश्नों को लेकर स्पष्ट मतभेद हैं। यह भी सत्य है कि जैनबौद्ध परम्परा ने वैदिक परम्परा की उन विकृतियों का, जो कर्मकाण्ड, पुरोहितवाद, जातिवाद और ब्राह्मण वर्ग के द्वारा निम्न वर्गों के शोषण के रूप में उभर रही थी, खुलकर विरोध किया, किन्तु हमें उसे विद्रोह के रूप में नहीं अपितु भारतीय संस्कृति के परिष्कार के रूप में ही समझना होगा। जैन और बौद्ध धर्मों ने भारतीय संस्कृति में आ रही विकृतियों का परिशोधन कर उसे स्वस्थ बनाने हेतु एक चिकित्सक का कार्य किया है। किन्तु स्मरण रखना होगा कि चिकित्सक कभी भी शत्रु नहीं होता, मित्र ही होता है। दुर्भाग्य से पाश्चात्य चिन्तकों के प्रभाव से भारतीय चिन्तक और किसी सीमा तक कुछ जैन और बौद्ध चिन्तक भी यह मानने लगे हैं कि जैनधर्म और वैदिक (हिन्दू) धर्म परस्पर विरोधी धर्म हैं, किन्तु यह एक भ्रान्त अवधारण है। चाहे अपने मूल में वैदिक एवं श्रमण संस्कृति प्रवर्तक और निवर्तक धर्म-परम्पराओं के रूप में भिन्न-भिन्न रही हो, किन्तु आज न तो हिन्दू-परम्परा ही उस अर्थ में पूर्णतः वैदिक है और न ही जैन-बौद्ध परम्परा पूर्णतः श्रमण। आज चाहे हिन्दू धर्म हो अथवा जैन और बौद्ध धर्म हों, ये सभी अपने वर्तमान स्वरूप में वैदिक और श्रमण संस्कृति के समन्वित रूप हैं। यह बात अलग है कि उनमें प्रवृत्ति और निवृत्ति में से कोई एक पक्ष अभी भी प्रमुख है। उदाहरण के रूप में हम कह सकते हैं कि जहाँ जैनधर्म आज भी निवृत्तिप्रधान हैं 15 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वहाँ हिन्दू धर्म प्रवृत्तिप्रधान। फिर भी यह मानना उचित होगा कि ये दोनों धर्म प्रवृत्ति और निवृत्ति के समन्वय से ही निर्मित हुए हैं। जैनधर्म के अनुसार भी भगवान् ऋषभदेव ने दीक्षित होने के पूर्व प्रवृत्तिमान अर्थात् परिवार धर्म, समाज धर्म, राज्य धर्म आदि का उपदेश दिया था। पूर्व में यह स्पष्ट किया जा चुका है कि इस समन्वय का प्रथम प्रयत्न हमें 'ईशावास्योपनिषद्' में स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। अतः आज जहाँ उपनिषदों को प्राचीन श्रमण-परम्परा के परिप्रेक्ष्य में समझने की आवश्यकता है, वहीं जैन और बौद्ध परम्परा को भी औपनिषदिक परम्परा के परिप्रेक्ष्य में समझने की आवश्यकता है, जिस प्रकार वासना और विवेक, प्रेय और श्रेय, परस्पर भिन्न-भिन्न होकर भी मानव व्यक्ति के ही अंग है उसी प्रकार निवृत्तिप्रधान श्रमणधारा और प्रवृत्तिप्रधान वैदिकधारा दोनों भारतीय संस्कृति के ही अंग हैं। वस्तुतः कोई भी संस्कृति ऐकान्तिक निवृत्ति या ऐकान्तिक प्रवृत्ति के आधार पर प्रतिष्ठित नहीं हो सकती है। जैन और बौद्ध परम्पराएँ भारतीय संस्कृति का वैसे ही अभिन्न अंग है, जैसे हिन्दू-परम्परा। यदि औपनिषदिक धारा को वैदिकधारा से भिन्न होते हुए भी वैदिक या हिन्दू-परम्परा का अभिन्न अंग माना जाता है तो फिर जैन और बौद्ध परम्पराओं को उसका अभिन्न अंग क्यों नहीं माना जा सकता? यदि सांख्य और मीमांसक अनीश्वरवादी होते हुए भी आज हिन्दूधर्म-दर्शन के अंग माने जाते हैं, तो फिर जैन व बौद्ध धर्म को अनीश्वरवादी कहकर उससे कैसे भिन्न किया जा सकता है? वस्तुतः हिन्द कोई एक धर्म और दर्शन न होकर, एक व्यापक परम्परा का नाम है या कहें कि वह विभिन्न वैचारिक एवं साधनात्मक परम्पराओं का समूह हैं उसमें ईश्वरवाद-अनीश्वरवाद, द्वैतवाद-अद्वैतवाद, प्रवृत्ति-निवृत्ति, ज्ञानकर्म सभी कुछ तो समाहित है। उसमें प्रकृति-पूजा जैसे धर्म के प्रारंभिक लक्षणों से लेकर अद्वैत की उच्च गहराइयाँ तक सभी कुछ तो उसमें सन्निविष्ट हैं। अतः हिन्दू उस अर्थ में कोई एक धर्म नहीं है जैसे यहूदी, ईसाई या मूसलमान। हिन्दू एक संश्लिष्ट परम्पर है, एक सांस्कृतिक धरा है जिसमें अनेक धाराएँ समाहित हैं। अतः जैन और बौद्ध धर्म को हिन्दू परम्परा से नितान्त भिन्न नहीं माना जा सकता। जैन और बौद्ध भी उसी अध्यात्म-पक्ष के अनुयायी हैं जिसके औपनिषिदिक ऋषि थे। उनकी विशेषता यह है कि उन्होंने भारतीय समाज के दलित वर्ग के उत्थान तथा जन्मना जातिवाद, कर्मकाण्ड व पुरोहितवाद से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया। उन्होंने उस धर्म का प्रतिपादन किय जो जनसामान्य का धर्म था और जिसे कर्मकाण्डों की अपेक्षा नैतिक सद्गुणों पर अधिष्ठित किया गया था। उन्होंने भारतीय समाज को पुराहित वर्ग के धार्मिक शोषण से मुक्त किया। वे विदेशी नहीं है, इसी माटी की सन्तान 16 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं, वे शत-प्रतिशत भारतीय हैं। जैन, बौद्ध और औपनिषदिक धारा किसी एक ही मूल स्त्रोत के विकास हैं और आज उन्हें उसी परिप्रेक्ष्य में समझने की आवश्यकता है। ____ भारतीय धर्मों, विशेषरूप से औपनिषदिक, बौद्ध और जैन धर्मों की जिस पारस्परिक प्रभावशीलता के अध्ययन की आज विशेष आवश्यकता है, उसे समझने में प्राचीन स्तर के जैन आगम यथा - 'आचारांग-, 'सूत्रकृतांग', 'ऋषिभाषित' और 'उत्तराध्ययन' आदि हमारे दिशा-निर्देशक सिद्ध हो सकते हैं। मुझे विश्वास है कि इन ग्रन्थों के अध्ययन से भारतीय विद्या के अध्येताओं को एक नई दिशा मिलेगी और यह मिथ्या विश्वास दूर हो जाएगा कि जैनधर्म, बौद्धधर्म और हिन्दूधर्म परस्पर विरोधी धर्म हैं। आचारांग में हमें ऐसे अनेक सूत्र उपलब्ध होते हैं जो अपने भाव, शब्द-योजना और भाषा-शैली की दृष्टि से औपनिषदिक सूत्रों के निकट हैं। 'आचारांग' में आत्म के स्वरूप के सन्दर्भ में जो विवरण प्रस्तुत किया गया है वह 'माण्डूक्योपनिषद्' से यथावत् मिलता है। 'आचारांग' में श्रमण और ब्राह्मण का उल्लेख परस्पर प्रतिस्पद्धियों के रूप में नहीं, अपितु सहगामियों के रूप में मिलता है। चाहे 'आचारांग' 'उत्तराध्ययन' आदि जैनागम हिंसक यज्ञीय कर्मकाण्ड का निषेध करते हों, किन्तु वे ब्राह्मणों को भी उसी नैतिक एवं आध्यात्मिक पथ का अनुगामी मानते हैं जिस पथ पर श्रमण चल रहे थे। उनकी दृष्टि में ब्राह्मण वह है जो सदाचार का जीवंत प्रतीक है। उनमें अनेक स्थलों पर श्रमणों और ब्राह्मणों (समणा-माहणा) का साथ-साथ उल्लेख हुआ है। - इसी प्रकार ‘सूत्रकृतांग' में यद्यपि तत्कालीन दार्शनिक मान्यताओं की समीक्षा है किन्तु उनके साथ ही उसमें औपनिषदिक युग के अनेक ऋषियों यथा-विदेहनमि, बाहुक अयितदेवल, द्वैपायन, पाराशर आदि का समादरपूर्वक उल्लेख भी हुआ है। ‘सूत्रकृतांग' स्पष्ट रूप से स्वीकार करता है कि इन ऋषियों के आचार नियम उसकी आचार परम्परा से भिन्न थे, फिर भी वह उन्हें अपनी अर्हत् परम्परा का ही पूज्य पुरुष माना है। वह उनका महापुरुष और तपोधन के रूप में उल्लेख करता है और यह मानता है कि उन्होंने सिद्धि अर्थात् जीवन के चरम साध्य मोक्ष को प्राप्त कर लिया था। ‘सूत्रकृतांग' की दृष्टि में ये ऋषिगण भिन्न आचार-मार्ग का पालन करते हुए भी उसकी अपनी ही परम्परा के ऋषि थे। 'सूत्रकृतांग' में इन ऋषियों को महापुरुष, तपोधन एवं सिद्धि प्राप्त कहना तथा 'उत्तराध्ययन' में अन्य लिंग सिद्धों का अस्तित्व मानना यही सूचित करता है है कि प्राचीन काल में जैन परम्परा अत्यन्त उदार थी और वह मानती थी कि मुक्ति का अधिकार केवल उसके आचार नियमों का पालन करनेवाले को ही नहीं है, अपितु भिन्न आचार-मार्ग का पालन करने वाला भी मुक्ति का अधिकारी हो सकता है, शर्त केवल एक ही है उसका चित्त विषय-वासनाओं एवं राग-द्वेष से रहित और समता भाव से 17 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वासित हों। - इसी सन्दर्भ में यहाँ 'ऋषिभाषित' (इसिभासियाई) का उल्लेख करना भी आवश्यक है, जो जैन आगम साहित्य का प्राचीनतम ग्रन्थ (ई. पू. चौथी शती) है। जैन परम्परा में इस ग्रन्थ का निर्माण उस समय हुआ होगा, जब जैनधर्म एक सम्प्रदाय के रूप में विकसित नहीं हुआ था। इस ग्रन्थ में नारद, असितदेवल, अंगिरस, पाराशर, अरुण, नारायण, याज्ञवल्क्य, उद्दालक, विदुर, सारिपुत्त, महाकश्यप, मंखलिगोशाल, संजय (वेलिठ्ठिपुत्त) आदि पैंतालिस ऋषियों का उल्लेख है और इन सभी को अर्हत् ऋषि, बुद्ध ऋषि या ब्राह्मण ऋषि कहा गया है। 'ऋषिभाषित' में इनके आध्यात्मिक और नैतिक उपदेशों का संकलन है। जैन परम्परा में इस ग्रन्थ की रचना इस तथ्य का स्पष्ट संकेत है कि औपनिषदिक ऋषियों की परम्परा और जैन परम्परा का उद्गम स्त्रोत एक ही है। यह ग्रन्थ न केवल जैनधर्म की धार्मिक उदारता का सूचक है अपितु यह भी बताता है कि सभी भारतीय आध्यात्मिक परम्पराओं का मूल स्त्रोत एक ही है। औपनिषदिक, बौद्ध, जैन, आजीवक, सांख्य, योग आदि सभी उसी मूल स्त्रोत से निकली हुई धाराएँ हैं। जिस प्रकार जैनधर्म के 'ऋषिभाषित' में विभिन्न परम्पराओं के ऋषियों के उपदेश संकलित हैं, उसी प्रकार बौद्ध परम्परा की 'थेरगाथा' में भी विभिन्न परम्पराओं के स्थविरों के उपदेश संकलित हैं। उसमें भी अनेक औपनिषदिक एवं अन्य श्रमण परम्परा के आचार्यों के उल्लेख हैं जिनमें एक वर्धमान (महावीर) भी हैं। ये सभी उल्लेख इस तथ्य के सूचक है कि भारतीय चिन्तनधारा प्राचीनकाल से ही उदार और सहिष्णु रही है और उसकी प्रत्येक धारा में यही उदारता और सहिष्णुता प्रवाहित होती रही है। आज जब हम साम्प्रदायिक अभिनिवेशों में जकड़कर परस्पर संघर्षों में उलझ गये हैं, इन धाराओं का तुलनात्मक अध्ययन हमें एक नयी दृष्टि प्रदान कर सकता हैं। यदि भारतीय सांस्कृतिक चिन्तन की इन धाराओं को एक-दूसरे से अलग कर देखने का प्रयत्न किया जायगा तो हम उन्हें सम्यक् रूप से समझने में सफल नहीं हो सकेंगे। जिस प्रकार 'उत्तराध्ययन', 'सूत्रकृतांग', 'ऋषिभाषित' और 'आचारांग' को समझने के लिए औपनिषदिक साहित्य का अध्ययन आवश्यक है। उसी प्रकार उपनिषदो और बौद्ध साहित्य को भी जैन परम्परा के अध्ययन के अभाव में सम्यक् प्रकार से नहीं समझा जा सकता है । आज साम्प्रदायिक अभिनिवेशों से ऊपर तटस्थ एवं तुलनात्मक रूप से सत्य का अन्वेषण ही एक ऐसा विकल्प है, जो साम्प्रदायिक अभिनिवेश से ग्रस्त मानव को मुक्ति दिला सकता है और भारतीय धर्मों की पारस्परिक प्रभावशीलता को स्पष्ट कर सकता है। 18 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म का वैदिक धर्म को अवदान औपनिषदिक काल या महावीर - युग की सबसे प्रमुख समस्या यह थी कि उस युग में अनेक परम्पराएँ अपने एकांगी दृष्टिकोण को ही पूर्ण सत्य समझकर परस्पर एकदूसरे के विरोध में खड़ी थीं। उस युग में चार प्रमुख वर्ग थे - १. क्रियावादी, २. अक्रियावादी, ३. विनयवादी और ४. अज्ञानवादी । महावीर ने सर्वप्रथम उनमें समन्वय करने का प्रयास किया। प्रथम क्रियावादी दृष्टिकोण आचार के बाह्य पक्षों पर अधिक बल देता था। वह कर्मकाण्डपरक था। बौद्ध परम्परा में इस धारणा को शीलव्रत परामर्श कहा गया है। दूसरा अक्रियावाद था । अक्रियावाद के तात्त्विक आधार या तो विभिन्न नियतिवादी दृष्टिकोण थे या आत्मा को कूटस्थ एवं अकर्ता मानने की दार्शनिक अवधारण के पोषक थे। ये परम्पराएँ ज्ञानमार्ग की प्रतिपादक थीं। जहाँ क्रियावाद के अनुसार कर्म या आचरण ही साधना का सर्वस्व था, वहाँ अक्रियावाद के अनुसार ज्ञान ही साधना का सर्वस्व था । क्रियावाद कर्ममार्ग का प्रतिपादक था और अक्रियावाद ज्ञानमार्ग का प्रतिपादक। कर्ममार्ग और ज्ञानमार्ग के अतिरिक्त तीसरा परम्परा अज्ञानवादियों की थी जो अतीन्द्रिय एवं पारलौकिक मान्यताओं को 'अज्ञेय' स्वीकार करती थी। इसका दर्शन रहस्यवाद और सन्देहदवाद इन दो रूपों में विभाजित था। इन तीनों परम्पराओं के अतिरिक्त चौथी परम्परा विनयवाद की थी जिसे भक्तिमार्ग का प्रारम्भिक रूप माना जाता है। विनयवाद भक्तिमार्ग का ही अपरनाम था। इस प्रकार उस युग में ज्ञानमार्ग, कर्ममार्ग, भक्तिमार्ग और अज्ञेयवाद (सन्देहवाद) की परम्पराएँ अलग-अलग रूप में प्रतिष्ठित थी। महावीर ने अपने अनेकान्वादी दृष्टिकोण के द्वारा इनमें समन्वय खोजने का प्रयास किया। सर्वप्रथम उन्होंने सम्यग्दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र के रूप में त्रिविध मोक्षमार्ग का एक ऐसा सिद्धांत प्रतिपादित किया जिसमें ज्ञानवादी, कर्मवादी और भक्तिमार्गी परम्पराओं का समुचित समन्वय था । इस प्रकार महावीर एवं जैन- दर्शन का प्रथम प्रयास ज्ञानमार्गीय, कर्ममार्गीय, विभिन्न भक्तिमार्गी, तापस आदि एकांगी दृष्टिकोणों के मध्य समन्वय स्थापित करना था । यद्यपि 'गीता' में ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग की चर्चा हुई है किन्तु वहाँ इनमें से प्रत्येक को मोक्ष मार्ग मान लिया गया है। जबकि जैन धर्म में इनके समन्वित के रूप को मोक्ष मार्ग कहा गया। जैनधर्म ने न केवल वैदिक ऋषियों द्वारा प्रतिपादित यज्ञ-याग की परम्परा का विरोध किया, वरन् श्रमण परम्परा के देह - दण्डन की तपस्यात्मक प्रणाली का भी विरोध किया। सम्भवतः महावीर के पूर्व पार्श्व के काल तक धर्म का सम्बन्ध बाह्य तथ्यों से ही जोड़ा गया था। यही कारण था कि ब्राह्मण वर्ग यज्ञ-याग के क्रियाकाण्डों में हि धर्म की इति श्री मान लेता था। सम्भवतः जैन परम्परा में महावीर के पूर्ववर्ती तीर्थङ्कर 19 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वनाथ ने आध्यात्मिक साधना में बाह्य पहलू के स्थान पर उसके आन्तकिरक पहलू पर बल दिया था और परिणामस्वरूप श्रमण परम्पराओं में भी बौद्ध आदि कुछ धर्म परम्पराओं ने इस आन्तरिक पहलू पर अधिक बल देना प्रारम्भ कर दिया था। लेकिन महावीर के युग तक धर्म एवं साधना का यह बाह्यमुखी दृष्टिकोण पूरी तरह समाप्त नहीं हो पाया था, वरन् ब्राह्मण परम्परा में तो यज्ञ, श्राद्धादि के रूप में वह अधिक प्रसार पा गया था। दूसरी ओर जिन विचारकों ने साधना के आन्तरिक पक्ष पर बल देना प्रारंभ किया था, उन्होंने उसके बाह्य पक्ष की पूरी तहरह अवलेहना करना प्रारम्भ कर दिया था, परिणामस्वरूप वे भी एक अति की ओर जाकर एकांगी बन गए। अतः महावीर ने दोनों ही पक्षों में समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न किया और यह बताया कि धर्मसाधना का सम्बन्ध सम्पूर्ण जीवन से है। उसमें आचरण के बाह्य पक्ष के रूप में क्रिया का जो स्थान है, उससे भी अधिक स्थान आचारण के आन्तरिक प्रेरक का है। इस प्रकार उन्होंने धार्मिक जीवन में आचरण के प्रेरक और आचरण के परिणाम दोनों पर ही बल दया। उन्होंने ज्ञान और क्रिया के बीच समन्वय स्थापित किया। 'नरसिंहपुराण' (६१/ ९/११) में भी 'आश्वयकनियुक्ति' (पृष्ट, १५-१७) के समान ही ज्ञान और क्रिया के समन्वय को अनेक रूपकों से वर्णित किया है। इससे यह सिद्ध होता है कि जैन परम्परा के इस चिन्तन ने हिन्दू परम्परा को प्रभावित किया है। मानव मात्र की समानता का उद्घोष ___ उस युग की सामाजिक समस्याओं में वर्ण- व्यवस्था एक महत्वपूर्ण समस्या थी। वर्ण का आधार कर्म और स्वभाव को छोड़ जन्म मान लिया गया था। परिणामस्वरूप वर्ण-व्यवस्था विकृत हो गयी थी और ऊँच-नीच का भेद हो गया था जिसके कारण सामाजिक स्वाथ्य विषमता के ज्वर से आक्रान्त था। जैन विचारधारा ने जन्मना जातिवाद का विरोध किया और समस्त मानवों की समानता का उद्घोष किया। एक ओर उसने हरिकेशीबल जैने निम्न कुलोत्पन्न को, तो दूसरी ओर गौतम जैसे ब्राह्मण कुलोत्पन्न साधक को अपने साधना-मार्ग के समान रूप से दीक्षित किया। केवल जातिगत विभेद ही नहीं वरन् आर्थिक विभेद भी समानता की दृष्टि से जैन विचारधारा के सामने कोई मूल्य नहीं रखता। जहाँ एक ओर मगध-सम्राट तो दूसरी ओर पुणिया जैसे निर्धन श्रावक भी उसकी दृष्टि से समान थे। इस प्रकार उसने जातिगत या आर्थिक आधार पर ऊँचनीच का भेद अस्वीकार कर मानव मात्र की समानता पर बल दिया। इसका प्रभाव हिन्दूधर्म पर भी पड़ा और उसमें भी गुप्तकाल के पश्चात् भक्तियुग में वर्ण-व्यवस्था और ब्राह्मण वर्ग की श्रेष्ठता का विरोध हुआ। वैसे तो महाभारत के रचनाकाल (लगभग चौथी शती) से ही यह प्रभाव परिलक्षित होता है। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईश्वरीय दासता से मुक्ति और मानव की स्वतन्त्रता का उद्घोष उस युग की दूसरी समस्या यह थी कि मानवीय स्वतन्त्रता का मूल्य लोगों की दृष्टि से कम आँका जाने लगा था। एक ओर ईश्वरवादी धाराएँ तो दूसरी ओर कालवादी एवं नियतिवादी धारणाएँ मानवीय स्वतन्त्रता को अस्वीकार करने लगी थी। जैन दर्शन ने इस कठिनाई को समझा और मानवीय स्वतन्त्रता की पुनः प्राण-प्रतिष्ठा की। उसने यह उद्घोष किया कि न तो ईश्वर और न अन्य शक्तियाँ मानव की निर्धारक हैं, वरन् मनुष्य स्वयं ही अपना निर्माता है। इस प्रकार उसने मनुष्य को ईश्वरवाद की उस धारणा से मुक्ति दिलाई जो मानवीय स्वतन्त्रता का अपहरण कर रही थी और यह प्रतिपादित किया कि मानवीय स्वतन्त्रता में निष्ठा ही धर्म-दर्शन का सच्चा आधार बन सकती है। जैनों की इस अवधारणा का प्रभाव हिन्दूधर्म पर उतना अधिक नहीं पड़ा, जितना अपेक्षित था, फिर भी ईश्ववाद की स्वीकृति के साथ-साथ मानव की श्रेष्ठता के स्वर तो मुखरित हुए ही थे। रुढ़िवाद से मुक्ति जैनधर्म ने रुढ़िवद से भी मानव-जाति को मुक्त किया। उसने उस युग की अनेक रुढ़ियों जैसे पशु-यज्ञ, श्राद्ध, पुरोहित आदि से मानव समाज को मुक्त करने का प्रयास किया था और इसीलिये इन सबका खुला विरोध भी किया। ब्राह्मण-वर्ग ने अपने को ईश्वर का प्रतिनिधि बताकर सामाजिक शोषण का जो सिलसिला प्रारम्भ किया था, उसे समाप्त करने के लिये जैन एवं बौद्ध परम्पराओं ने प्रयास किया। जैन और बौद्ध आचार्य ने सबसे महत्त्वपूर्ण काम यह किया कि उन्होंने यज्ञादि प्रत्ययों को नई परिभाषिएँ प्रदान की। यहाँ जैनधर्म के द्वारा प्रस्तुत ब्राह्मण यज्ञ आदि की कुछ नई परिभाषाएँ दी जा रही है। ब्राह्मण का नया अर्थ जैन परम्परा ने सदाचरण को ही मानवीय जीवन में उच्चता और निम्रता का प्रतिमान माना और उसे ही ब्राह्मण्व का आधार बताया। 'उत्तराध्ययन' के पच्चीसवें अध्याय एवं 'धम्मपद' के ब्राह्मण वर्ग नामक अध्याय में सच्चा ब्राह्मण कौन है? इसका सविस्तार विवेचन उपलब्ध है। विस्तार भय से उसकी समग्र चर्चा में न जाकर केवल एक-दो पद्यों को प्रस्तुत कर ही विराम लेंगे। 'उत्तराध्ययन' में बताया गया है कि 'जो जल में उत्पन्न हुए कमल के समान भोगों में उत्पन्न होते हुए भी भोगों में लिप्त नहीं रहता, वहीं सच्चा ब्राह्मण है'। जो राग, द्वेष और भय से मुक्त होकर अन्तर में विशुद्ध है, वही सच्चा ब्राह्मण है। 'धम्मपद' में भी कहा गया है कि जैसे कमलपत्र पानी से अलिप्त होता है, जैसे आरे की नोक पर सरसों का दाना होता है, वैसे ही जो कामों 21 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ में लिप्त नहीं होता, जिसने अपने दुःखों के भय को यहीं पर देख लिया है, जिसने जन्म-मरण के भार को उतार दिया है, जो सर्वथा अनासक्त है, जो मेधावी है, स्थितप्रज्ञ है, जो सन्मार्ग तथा कुमार्ग को जानने में कुशल है और जो निर्वाण की उत्तम स्थिति को पहुँच चुका है उसे ही मैं ब्राह्मण कहता हूँ । इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन एवं बौद्ध दोनों परम्पराओं ने ही ब्राह्मणत्व की श्रेष्ठता को स्वीकार करते हुए भी ब्राह्मण की एक नई परिभाषा प्रस्तुत की, जो श्रमण परम्परा के अनुकूल थी। फलतः न केवल जैन परम्परा एवं बौद्ध परम्परा में, वरन् हिन्दू परम्परा के महान् ग्रन्थ 'महाभारत' में भी ब्राह्मण व की यही परिभाषा दी गई है। जैन परम्परा के 'उत्तराध्ययन', बौद्ध परम्परा के 'धम्मपद' और 'महाभारत' के शान्तिपर्व में सच्चे ब्राह्मण के स्वरूप का जो विवरण मिलता है, वह न केवल वैचारिक साम्यता रखता है, वरन् उसमें शाब्दिक साम्यता भी बहुत अधिक है जो कि तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है और इन परम्पराओं के पारस्परिक प्रभाव को स्पष्ट करता है । यज्ञ का आध्यात्मिक अर्थ जिस प्रकार ब्राह्मण की नई परिभाषा प्रस्तुत की गई उसी प्रकार यज्ञ को भी एक नए अर्थ में परिभाषित किया गया। महावीर ने न केवल हिंसक यज्ञों के विरोध में अपना मन्तव्य प्रस्तुत किया, वरन् उन्होंने यज्ञ की आध्यात्मिक एवं तपस्यापरक नई परिभाषा भी प्रस्तुत की । 'उत्तराध्ययन' में यज्ञ के आध्यात्मिक स्वरूप का सविस्तार विवेचन है । बताया गया है कि “तप अग्नि है, जीवात्मा अग्निकुण्ड है, मन, वचन और काया की प्रवृत्तियाँ ही कलछी (चम्मच) हैं और कर्मों (पापों) का नष्ट करना ही आहुति है, यही यज्ञ संयम से युक्त हाने से शान्तिदायक और सुखकारक है। ऋषियों ने ऐसे ही यज्ञ की प्रशंसा की। '३ फलतः न केवल जैन परम्परा में वरन् बौद्ध और वैदिक परम्पराओं में भी यज्ञ-याग के बाह्य पक्ष का खण्डन और उसके आध्यात्मिक स्वरूप का चित्रण उपलब्ध होता है। बुद्ध ने भी आध्यात्मिक यज्ञ के स्वरूप का चित्रण लगभग उसी रूप में किया है जिस रूप में उसका विवेचन उत्तराध्ययन में किया गया है ! 'अंगुत्तरनिकाय ' में यज्ञ के आध्यात्मिक स्वरूप का वर्णन करते हुए बुद्ध कहते हैं कि हे ब्राह्मण! ये तीन अग्नियाँ त्याग करने और परिवर्तन करने के योग्य हैं, उनका सेवन नहीं करना चाहिये । हे ब्राह्मण! इन तीनों अग्नियों का सत्कार करें, इन्हें सम्मान प्रदान करें, इनकी पूजा और परिचर्या भलीभाँति सुख से करे। ये अग्नियाँ कौन-सी हैं, आह्वानीयाग्नि (आहनेय्यग्गि), गार्हत्याग्नि (गहपत्तग्नि) और दक्षिणाग्नि ( दक्खिणय्यग्गि)। माँ-बाप को आह्वानीयाग्नि समझना चाहिये और सत्कार से उनकी पूजा करनी चाहिये । श्रमण-ब्राह्मणों को दक्षिणाग्नि समझना चाहिये और सत्कार पूर्वक उनकी पूजा करनी चाहिये। हे ब्राह्मण! 22 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह लकड़ियों की अग्नि तो कभी जलानी पड़ती है, कभी उपेक्षा करनी पड़ती है और कभी उसे बुझानी पड़ती हैं, किन्तु ये अग्नियाँ तो सदैव और सर्वत्र पूजनीय हैं। इसी प्रकार बुद्ध ने भी हिंसक यज्ञों के स्थान पर यज्ञ के आध्यात्मिक एवं सामाजिक स्वरूप को प्रकट किया। इतना हीं नहीं, उन्होंनें सच्चे यज्ञ का अर्थ सामाजिक जीवन में सहयोग करना बताया।' श्रमणधारा के इस दृष्टिकोण के समान ही उपनिषदों एवं गीता में भी यज्ञ-याग की निन्दा की गयी है और यज्ञ की सामाजिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से विवेचना की गई है। समाजिक सन्दर्भ में यज्ञ का अर्थ समाज सेवा माना गया है। निष्कामभाव से समाज की सेवा करना 'गीता' में यज्ञ का सामजिक पहलू था। दूसरी ओर गीता में यज्ञ के आध्यात्मिक स्वरूप का विवेचन भी किया गया है। गीताकार कहता है कि योगीजन संयमरूप अग्नि में श्रोत्रादि इन्द्रियों का हवन करते हैं अथवा इन्द्रियों के विषयों का इन्द्रियों में हवन करते हैं, दूसरे कुछ साधक इन्द्रियों के सम्पूर्ण कर्मों को और शरीर के भीतर रहनेवाला वायु जो प्राण कहलाता है, उसके संकुचित होने, 'फैलने' अदि कर्मों को ज्ञान से प्रकाशित हुई आत्म-संयमरूप योगाग्नि में हवन करते हैं। घृतादि चिकनी वस्तु से प्रज्जवलित हुई अग्नि की भाँति विवेक - विज्ञान से उज्ज्वलता को प्राप्त हुई (धारण - ध्यान समाधि रूप ) उस आत्म-संयम - योगाग्नि में (प्राण और इन्द्रियों के कर्मों को) विलीन कर देते हैं। इस प्रकार जैनधर्म के यज्ञ के जिस आध्यात्मिक स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है, उसका अनुमोदन बौद्ध परम्परा और वैदिक परम्परा में हुआ है। यही श्रमण परम्परा का हिन्दू परम्परा को मुख्य अवदान था। स्नान आदि कर्मकाण्डों के प्रति आध्यात्मिक दृष्टिकोण जैन विचारकों ने बाह्य कर्मकाण्ड सम्बन्धी विचारों को भी नई दृष्टि प्रदान की। बाह्य शौच या स्नान जो कि उस समय धर्म और उपासना का एक मुख्य रूप मान लिया गया था, को भी एक नया आध्यात्मिक स्वरूप प्रदान किया गया । 'उत्तराध्ययन' में कहा गया है कि धर्म जलाशय है और ब्रह्मचर्य घाट (तीर्थ) है, उसमें स्नान करने से आत्मा शान्त, निर्मल और शुद्ध हो जाती है। इसी प्रकार बौद्ध दर्शन में भी सच्चे स्नान का अर्थ मन, वाणी और काया से सद्गुणों का सम्पादन माना गया है । " न केवल जैन और बौद्ध परम्परा में वरन् वैदिक परम्परा में भी यह विचार प्रबल हो गया कि यथार्थ शुद्धि आत्मा के सद्गुणों के विकास में निहित है। इस प्रकार श्रमणों के इस चिन्तन का प्रभाव वैदिक या हिन्दू परम्परा पर भी हुआ । इसी प्रकार ब्राह्मणों को दी जाने वाली दक्षिणा के प्रति एक नई दृष्टि प्रदान की गई और यह बताया गया कि दान की अपेक्षा, संयम ही श्रेष्ठ है। 'उत्तराध्ययन' में कहा 23 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया है कि प्रतिमास सहस्त्रों गायों का दान करने की अपेक्षा भी जो बाह्य रूप में दान नहीं करता वरन् संयम का पालन करता है, उस व्यक्ति का संयम ही अधिक श्रेष्ठ है। ' 'धम्मपद' में भी कहा गया है कि एक तरफ मनुष्य यदि वर्षों तक हजारों की दक्षिण देकर प्रतिमास यज्ञ करता जाय और दूसरी तरफ यदि वह पुण्यात्मा की क्षण भर भी सेवा करें तो यह सेवा कहीं उत्तम है, न कि सौ वर्षों तक किया हुआ यज्ञ । " इस प्रकार जैनधर्म ने तत्कालीन कर्मकाण्डात्मक मान्यताओं को एक नई दृष्टि प्रदान की और उन्हें आध्यात्मिक स्वरूप दिया, साथ ही धर्म - साधना का जो बहिर्मुखी दृष्टिकोण था, उसे आध्यात्मिक संस्पर्श द्वारा अन्तर्मुखी बनाया। इससे उस युग के वैदिक चिन्तन में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन उपस्थित हुआ। इस प्रकार वैदिक संस्कृति को रूपान्तरिक करने का श्रेय सामान्य रूप में श्रमण परम्परा को और विशेष रूप से जैन - परम्परा को है । अर्हत् ऋषि परम्परा का सौहार्दपूर्ण इतिहास प्राकृत साहित्य में ‘ऋषिभाषित' (इसिभासियाइं ) और पालि साहित्य में 'थेरगाथा' ऐसे ग्रन्थ हैं जो इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि अति प्राचीनकाल में आचार और विचारगत विभिन्नताओं के होते हुए भी अर्हत् ऋषियों की समृद्ध परम्परा थी, जिनमें पारस्परिक सौहार्द था। 'ऋषिभाषित' जो कि प्राकृत जैन आगमों और बौद्ध पालिपिटकों में अपेक्षाकृत रूप से प्राचीन है और जो किसी समय जैन परम्परा का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ माना जाता था, यह अध्यात्मप्रधान श्रमणधारा के पारस्परिक सौहार्द और एकरूपता को सूचित करता है। यह ग्रन्थ आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के पश्चात् तथा शेष सभी प्राकृत और पालि साहित्य के पूर्व ई.पू. लगभग चतुर्थ शताब्दी में निर्मित हुआ है। इस ग्रन्थ में निर्ग्रन्थ, बौद्ध, औपनिषदिक एवं आजीविका आदि अन्य श्रमण परम्पराओं के ४५ अर्हत् ऋषियशों के उपदेश संकलित हैं। इसी प्रकार बौद्ध परम्परा के ग्रन्थ थेरगाथा में भी श्रमणधारा के विभिन्न ऋषियों के उपदेश एवं आध्यात्मिक अनुभूतियाँ संकलित हैं। ऐतिहासक एवं अनाग्रही दृष्टि अध्ययन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि न तो ‘ऋषिभासित' (इसिभासियाई) के सभी ऋषि जैन परम्परा के है और न थेरगाथा के सभी थेर (स्थविर) बौद्ध परम्परा के है, जहाँ ऋषिभाषित मे सारिपुत्र, वात्सीपुत्र ( वज्जीपुत्र) और महाकव्यप बौद्ध परम्परा के है, वहीं उद्दालक, याज्ञवल्क्य, अरुण, असितदेवल, नारद, द्वैपायन, अंगिरस, भारद्वाज आदि औपनिषदिक धारा से सम्बन्धित हैं, तो संजय (संजय वेलट्ठिपुत्त), मंखली गोशालक, रामपुत्त आदि अन्य स्वतन्त्र श्रमण परम्पराओं से सम्बन्धित हैं। इसी प्रकार 'थेरगाथा' में वर्द्धमान आदि जैनधारा के, तो 24 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारद आदि औपनिषदिक धारा के ऋषियों की स्वानुभूति संकलित है। सामान्यतया यह माना जाता है कि श्रमणधारा का जन्म वैदिकधारा की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ, किन्तु इसमें मात्र आंशिक सत्यता है। यह सही है कि वैदिक-धारा प्रवृत्तिमार्गी थी और श्रमणधारा निवृत्तिमार्गी । इनके बीच वासना और विवेक अथवा भोग और त्याग के जीवन मूल्यों का संघर्ष था। किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से तो श्रमण-धारा का उद्भव, मानव व्यक्तित्व के परिशोधन एवं नैतिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों के प्रतिस्थापन का ही प्रयत्न थे, जिसमें श्रमण-ब्राह्मण सभी सहभागी बने थे । 'ऋषिभाषित' में इन ऋषियों को अर्हत् कहना और ‘सूत्रकृतांग' में इन्हें अपनी परम्परा से सम्मत मानना, प्राचीनकाल में इन ऋषियों की परम्परा के बीच पारस्परिक सौहार्द का ही सूचक है। निर्ग्रन्थ परम्परा का इतिहास लगभग ई.पू. सातवीं-आठवी शताब्दी का युग एक ऐसा युग था जब जनमानस इन सभी श्रमणें, तपस्वियों, योग-साधकों एवं चिन्तकों के उपदेशों को आदरपूर्वक सुनता था और अपने जीवन को आध्यात्मिक एवं नैतिक सधना से जोड़ता था । फिर भी वह किसी वर्ग-विशेष से बंध हुआ नहीं था। दूसरे शब्दों में उस युग में धर्म परम्पराओं या धार्मिक सम्प्रदायों का उद्भव नहीं हुआ था। क्रमशः इन श्रमणों, साधकों एवं चिन्तकों के आसपास शिष्यों, उपासकों एवं श्रद्धालुओं का एक वर्तुल खड़ा हुआ। शिष्यों एवं प्रशिष्या की परम्परा चली और उनकी अलग- अलग पहचान बनने लगी । इसी क्रम में निर्ग्रन्थ परम्परा का उद्भव हुआ। जहाँ पार्श्व की परम्परा के श्रमण अपने को पार्श्वापत्य-निर्ग्रन्थ परम्परा का उद्भव हुआ। जहाँ पार्श्व की परम्परा के श्रमण अपने को पार्श्वपत्य-निर्ग्रन्थ कहने लगे, वहीं वद्धमान महावीर के श्रमण अपने को ज्ञात्रपुत्रीय निर्ग्रन्थ कहने लगे। सिद्धार्थ गौतम बुद्ध का भिक्षु संघ शाक्यपुत्रीय श्रमण के नाम से पहचाना जाने लगा। पार्श्व और महावर की एकीकृत परम्परा निर्ग्रन्थरा नाम से जानी जाने लगी, ह का मेंीन नाम हमें निर्ग्रन्थ धर्म के रूप में ही मिलता है। जैन शब्द तो महावीर के निर्वाण के लगभग एक हजार वर्ष बाद अस्तित्व में आया। है । अशोक ( ई. पू. तृतीय शताब्दी), खारवेल (ई.पू. द्वितीय शताब्दी) आदि के शिलालेखों में जैनधर्म का उल्लेख निर्ग्रन्थ संघ के रूप में ही हुआ है। पार्श्व एवं महावीर की परम्परा ‘ऋषिभाषित', ‘उत्तराध्ययन', 'सूत्रकृतांग' आदि से ज्ञात होता है कि पहले निर्ग्रन्थ धर्म में नमि, बाहुक, कपिल, नारायण (तारायण, अंगिरस, भारद्वाज, नारद 25 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि ऋषियों को भी, जो कि वस्तुतः उसकी परम्परा के नहीं थे, अत्यन्त सम्मानपूर्ण स्थान प्राप्त था। पार्श्व और महावीर के समान इन्हें भी अर्हत् कहा गया था, किन्तु जब निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय पार्श्व और महावीर के प्रति केन्द्रित होने लगा, तो इन्हें प्रत्येक बुद्ध के रूप में सम्मानजनक स्थान तो दिया गया, किन्तु अपरोक्ष रूप से अपनी परम्परा से पृथक् मान लिया गया । इस प्रकार हम देखते है कि ई.पू. पाँचवी शती में निर्ग्रन्थ संघ पार्श्व और महावीर की परम्परा तक सीमित हो गया। यहाँ यह भी स्मरण रखना होगा कि प्रारंभ में महावीर और पार्श्व की परम्पराएँ भी पृथक्-पृथक् ही थीं। यद्यपि उत्तराध्ययन एवं भगवती की सूचनानुसार महावीर के जीवनकाल में ही पार्श्व की परम्परा के कुछ श्रमण उनके व्यक्तित्व से प्रभावित हो उनके संघ में सम्मिलित हुए थे, किन्तु महावीर के जीवन काल में महावीर और पार्श्व की परम्पराएँ पूर्णतः एकीकृत नहीं हो सकी। 'उत्तराध्यय' में प्राप्त उल्लेख से ऐसा लगता है कि महावीर के निर्वाण के पश्चात् ही श्रावस्ती में महावीर के प्रधान शिष्य गौतम और पार्श्वपत्य परम्परा के तत्कालीन आचार्य केशी ने परस्पर मिलकर दोनों संघों के एकीकरण की भूमिका तैयार की थी। यद्यपि आज हमारे पास ऐसा कोई भी साक्ष्य उपलब्ध नहीं है जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि पार्श्व की परम्परा पूर्णतः महावीर के परम्परा में विलीन हो गयी थी। फिर भी इतना निश्चित है कि पार्श्वपत्यों का एक बड़ा भाग महावीर की परम्परा में सम्मिलित हो गया था और महावीर की परम्परा ने पार्श्व को अपनी ही परम्परा के पूर्व पुरुष के रूप में मान्य कर लिया था। पार्श्व के लिए 'पुरुषादानीय' शब्द का प्रयोग इसका प्रमाण है। कालान्तर में ऋषभ, नमि और अरिष्टनेमि जैसे प्रागैतिहासिक काल के महान तीर्थकारों को स्वीकार करके निर्ग्रन्थ परम्परा ने अपने अस्तित्व को अति प्राचीनकालीन सिद्ध किया है। वेदों एवं वैदिक परम्परा के प्राचीन ग्रन्थों से इतना तो निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाता है कि वातरसना मुनियों एवं व्रात्यों के रूप में श्रमणधारा उस युग में भी जीवित थी जिसके पूर्व पुरुष ऋषभ थे। फिर भी आज ऐतिहासिक आधार पर यह बात कठिन है कि ऋषभ की दार्शनिक एवं आचार सम्बन्धी विस्तृत मान्यताएँ क्या थीं और वे वर्तमान जैन परम्परा के कितनी निकट थीं, तो भी इतना निश्चित है कि ऋषभ संन्यासमार्ग के आद्य प्रवर्तक के रूप में ध्यान और तप पर अधिक बल देते थे। प्राचीन जैन ग्रन्थों में यह तो निर्विवाद रूप से मान लिया गया है ऋषभ भगवान् महावीर के समान पंच महाव्रत रूप धर्म के प्रस्तोता थे और उनकी आचार व्यवस्था महावीर के अनुरुप ही थी। ऋषभ के उल्लेख ऋग्वेद से लेकर पुराणों तक में उपलब्ध है। डॉ. राधाकृष्णन ने 'यजर्वेद' में ऋषभ के अतिरिक्त अजित और अरिष्टनेमि के नामों की उपलब्धि की बात कही है। हिन्दू ‘पुराणों' और 'भागवत' में ऋषभ का जो जीवन चरित्र वर्णित है 26 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह जैन परम्परा के अनुरुप है। बौद्ध ग्रन्थ 'अगुतरनिकाय' में पूर्वकाल के सात तीर्थंकारों का उल्लेख किया है, उसमें अरक (अर) का भी उल्लेख है। इसी प्रकार 'थेरगाथा' में अजित थेर का उल्लेख है, उन्हें प्रत्येकबुद्ध कहा गया है। फिर भी मध्यवर्ती २२ तीर्थंकरों के सम्बन्ध में ऐतिहासिक साक्ष्य अधिक नहीं है, उनके प्रति हमारी आस्था का आधार जैन आगाम और जैन कथा ग्रन्थ ही हैं। महावीर और आजीवक परम्परा जैनधर्म के पूर्व-इतिहास की इस संक्षिप्त रूपरेखा देने के पश्चात् जब हम पुनः महावीर के काल की ओर आते हैं तो 'कल्पसूत्र' एवं 'भगवती' में कुछ ऐसे सूचना सूत्र मिलते हैं, जिनके आधार पर ज्ञातपुत्र श्रमण महावीर के पार्श्वपत्यों के अतिरिक्त आजीवकों के साथ भी सम्बन्धों की पुष्टि होती है। जैनागामों और आगमिक व्याख्याओं में यह माना गया है कि महावीर के दीक्षित होने के दूसरे वर्ष में ही मंखलीपुत्र गोशालक उनके निकट सम्पर्क में आया था, कुछ वर्ष दोनों साथ भी रहे किन्तु नियतिवाद और पुरुषार्थवाद सम्बन्धी मतभेदों के कारण दोनों अलग-अलग हो गये। हरमन जेकोबी ने तो यह कल्पना भी की है कि महावीर की निर्ग्रन्थ परम्परा में नग्नता आदि जो आचार-मार्ग की कठोरता है, वह गोशालक की आजीवक परम्परा का प्रभाव है। यह सत्य है कि गोशालक के पूर्व भी आजीवकों की एक परम्परा थी, जिसमें अर्जुन आदि आचार्य थे। फिर भी ऐतिहासिक साक्ष्य के अभाव में यह कहना कठिन है कि कठोर साधना की यह परम्परा महावीर से आजीवक परम्परा में की गई या आजीवक गोशालक के द्वारा महावीर की परम्परा में आई। क्योंकि इस तथ्य का कोई प्रमाण नहीं है कि महावीर से अलग होने के पश्चात् गोशालक आजीवक परम्परा से जुड़ा था या वह प्रारंभ में ही आजीविक परम्परा में दीक्षित होकर महावीर के पास आया था। फिर भी इतना निश्चित है कि ईसा की प्रथम-द्वितीय शताब्दी के बाद तक भी इस आजीवक परम्परा का अस्तित्व रहा है। यह निर्ग्रन्थों एवं बौद्धों की एक प्रतिस्पर्धी श्रमण परम्परा थी जिसके श्रमण भी जैनों की दिगम्बर शाखा के समान नग्न रहते थे। जैन और आजीवक दोनों परम्पराएँ प्रतिस्पर्धी होकर भी एक-दूसरे को अन्य परम्पराओं की अपेक्षा अधिक सम्मान देती थीं, इस तथ्य की पुष्टि हमें बौद्ध पिटक साहित्य में उपलब्ध व्यक्तियों के षट्विध वर्गीकरण से होती है। वहाँ निर्ग्रन्थों को अन्य परम्परा के श्रमणों से ऊपर और आजीवक परम्परा से नीचे स्थान दिया गया है। इस प्रकार आजीवकों के निर्ग्रन्थ संघ से जुड़ने एवं अलग होने की यह घटना निर्ग्रन्थ परम्परा की एक महत्त्वपूर्ण घटना है। साथ ही निर्ग्रन्थों के प्रति अपेक्षाकृत उदार भाव Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोनों संघों की आंशिक निकटता का भी सूचक है। निर्ग्रन्थ परम्परा में महावीर के जीवनकाल में हुए संघ-भेद __महाधीर के जीवनकाल में निर्ग्रन्थ संघ की अन्य महत्त्वपूर्ण घटना महावीर के जामातृ कहे जाने वाले जामालि से उनका वैचारिक मतभेद होना और जामालि का अपने पाँच सौ शिष्यों सहित उनके संघ से अलग होना है। 'भगवती', 'आवश्यकनियुक्ति' और परवर्ती ग्रन्थों में इस सम्बन्ध में विस्तृत विवरण उपलब्ध है। निर्ग्रन्थ संघ-भेद की इस घटना के अतिरिक्त हमें बौद्ध पिटक साहित्य में एक अन्य घटना का उल्लेख भी मिलता है। जिसके अनुसार महावीर के निर्वाण होते ही उनके भिक्षुओं एवं श्वेत वस्त्रधारी श्रावकों में तीव्र विवाद उत्पन्न हो गया। निर्ग्रन्थ संघ के इस विवाद की सूचना बुद्ध तक भी पहुँचती है। किन्तु पिटक साहित्यक में इस विवाद के कारण क्या थे, उसकी कोई चर्चा नही हैं। एक सम्भावना यह हो सकती है कि यह विवाद महावीर के उत्तराधिकारी के प्रश्न को लेकर हुआ होगा। श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं में महावीर के प्रथ उत्तराधिकारी को लेकर मतभेद है। दिगम्बर परम्परा महावीर के पश्चात् गौतम को पट्टधर मानती है, जबकि श्वेताम्बर परम्परा सुधर्मा को। श्वेताम्बर परम्परा में महावीर के निर्वाण के समय गौतम को निकट के दूसरे ग्राम में किसी देवशर्मा ब्राह्मण को प्रतिबोध देने हेतु भेजने की जो घटना वर्णित है, वह भी इस प्रसंग में विचारणीय हो सकती है। किन्तु दूसरी सम्भावना यह भी हो सकती है कि बौद्धों ने जैनों के श्वेताम्बर एवं दिगम्बर सम्बन्धी परवर्ती विवाद को पिटकों के सम्पादन के समय महावीर के निर्वाण की घटना के साथ जोड़ दिया हो। मेरी दृष्टि में यदि ऐसा कोई विवाद घटित हुआ होगा तो वह महावीर के अचेल एवं सचेल श्रमणों के बीच हुआ होगा, क्योंकि पार्थापत्यों के महावीर के निर्ग्रन्थ संघ में प्रवेश के साथ ही उनके संघ में नग्न और सवस्त्र ऐसे दो वर्ग अवश्य ही बन गये होंगे और महावीर ने श्रमणों के इन दो वर्गों को सामायिक-चारित्र और छेदोपसापनीय-चरित्रधारी के रूप में विभाजित किया होगा। विवाद का कारण ये दोनों वर्ग ही रहे होंगे। मेरी दृष्टि में बौद्ध परम्परा में जिन्हें श्वेता वस्त्रधारी श्रावक कहा गया, वे वस्तुतः सवस्त्र श्रमण ही होंगे, क्योंकि बौद्ध परम्परा में श्रमण (भिक्ष) को भी श्रावक कहा जाता है, फिर भी इस सम्बन्ध में गम्भीर चिन्तन की आवश्यकता है। महावीर के निर्ग्रन्थ संघ की धर्म प्रसार-यात्रा भगवान् महावीर के काल में उनके निर्ग्रन्थ संघ का प्रभाव-क्षेत्र बिहार एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा उनके आसपास का प्रदेश ही था। किन्तु महावीर के निर्वाण के पश्चात् इन सीमाओं में विस्तार होता गया। फिर भी आगमों और नियुक्तियों की रचना तथा 28 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म के प्रारम्भिक - विकास - काल तक उत्तरप्रदेश, हरियाणा, पंजाब एवं पश्चिमी राजस्थान के कुछ भाग तक ही निर्ग्रन्थों के विहार की अनुमति थी। तीर्थङ्करों के कल्याण क्षेत्र भी यहीं तक सीमित थे। मात्र अरिष्टनेमि ही ऐसे तीर्थङ्कर हैं जिनका सम्बन्ध शूरसेन (मथुरा के आसपास के प्रदेश) के अतिरिक्त सौराष्ट्र से भी दिखाया गया है और उनका निर्वाण स्थल गिरनार पर्वत माना गया है। किन्तु आगामों में द्वारिका और गिरनार की जो निकटता वर्णित है वह यथार्थ स्थिति से भिन्न है । सम्भवतः अरिष्टनेमि और कृष्ण के निकट सम्बन्ध होने के कारण ही कृष्ण के साथ-साथ अरिष्टनेमि का सम्बन्ध भी द्वारिका से रहा होगा। अभी तक इस सम्बन्ध में ऐतिहासिक साक्ष्यों का अभाव है। विद्वानों से अपेक्षा है कि इस दिशा में खोज करें। जो कुछ ऐतिहासिक साक्ष्य मिले हैं उससे ऐसा लगता है कि निर्ग्रन्थ संघ अपने जन्म स्थल बिहार से दो दिशाओं में अपने प्रचार अभियान के लिए आगे बढ़ा। एक वर्ग दक्षिण-बिहार एवं बंगाल से उड़ीस के रास्ते तमिलनाडु गया और वहीं से उसने श्रीलंका और स्वर्णदेश (जावा - सुमात्रा आदि) की यात्राएँ की । लगभग ई. पू. दूसरी शती में बौद्धों के बढ़ते प्रभाव के कारण निर्ग्रन्थों को श्रीलंका से निकाल दिया गया। फलतः वे पुनः तमिलनाडु में आ गये। तमिलनाडु में लगभग ई. पू. प्रथम - द्वितीय शती से ब्राह्मी लिपि में अनेक जैन अभिलेख मिलते हैं जो इस तथ्य के साक्षी हैं कि निर्ग्रन्थ संघ महावीर के निर्वाण के लगभग दो-तीन सौ वर्ष पश्चात् ही तमिल प्रदेशों में पहुँच चुका था। मान्यता तो यह भी है कि आचार्य भद्रबाहु चन्द्रगुप्त मौर्य को दीक्षित करके दक्षिण गये थे। यद्यपि इसकी ऐतिहासिक प्रामाणिकता निर्विवाद रूप से सिद्ध नहीं हो सकती है, क्योंकि जो अभिलेख घटना का उल्लेख करता है वह लगभग छठी-सातवीं शती का है। आज भी तमिल जैनों की विपुल संख्या है और वे भारत में जैनधर्म के अनुयायियों की प्राचीनतम परम्परा के प्रतिनिधि हैं। ये नयनार एवं पंचमवर्णी के रूप में माने जाते हैं। यद्यपि बिहार, बंगाल और उड़ीसा की प्राचीन जैन परम्परा कालक्रम में विलुप्त हो गयी है किन्तु सराक जाति के रूप में उस परम्परा के अवशेष आज भी शेष है। 'सराक' शब्द श्रावक का ही अपभ्रंश रूप है और आज भी इस जाति में रात्रि भोजन और हिंसक शब्दों जैसे काटो, मारों आदि के निषेध जैसे कुछ संस्कार शेष हैं। उपाध्याय ज्ञानसागरजी एवं कुछ श्वेताम्बर मुनियों के प्रयत्नों से सराक पुनः जैनधर्म की और लौटे हैं। उत्तर और दक्षिण के निर्मन्थ श्रमणों में आचार-भेद दक्षिण में गया निर्ग्रन्थ संघ अपने साथ विपुल प्राकृत जैन साहित्य तो नहीं ले 29 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जा सकता क्योंकि उस काल तक जैन साहित्य के अनेक ग्रन्थों की रचना ही नहीं हो पायी थी। वह अपने साथ श्रुत परम्परा के कुछ दार्शनिक विचारों एवं महावीर के कठोर अचार - मार्ग को ही लेकर चला था, जिसे उसने बहुत काल तक सुरक्षित रखा । आज की दिगम्बर परम्परा का पूर्वज यही दक्षिणी अचेल निर्ग्रन्थ संघ हैं। इस सम्बन्ध में अन्य कुछ मुद्दे भी ऐतिहासिक दृष्टि से विचारणीय है। महावीर के अपने युग में भी उनका प्रभाव क्षेत्र मुख्यतया दक्षिण बिहार ही था जिसका केन्द्र राजगृह था, जबकि बौद्धों एवं पार्श्वापत्यों का प्रभाव क्षेत्र उत्तरी बिहार एवं पूर्वोत्तर उत्तर प्रदेश था, जिसका केन्द्र श्रावस्ती था। महावीर के अचेल निर्ग्रन्थ संघ और पार्श्वनाथ सन्तरोत्तर ( सचेल) निर्ग्रन्थ संघ के सम्मिलन की भूमिका भी श्रावस्ती में गौतम और केशी के नेतृत्व में तैयार हुई थी। महावीर के सर्वाधिक चातुर्मास राजगृह नालन्दा में होना और बुद्ध के श्रावस्ती में होना भी इसी तथ्य का प्रमाण है। दक्षिण का जलवायु उत्तर की अपेक्षा गर्म था, अतः अचलता के परिपालन में दक्षिण में गये निर्ग्रन्थ संघ को कोई कठिनाई नहीं हुई जबकि उत्तर के निर्ग्रन्थ संघ में कुछ पार्श्वपत्यों के प्रभाव से और कुछ अति शीतल जलवायु के कारण यह अचेलता अक्षुण्ण नहीं रह सकी । और एक वस्त्र रखा जाने लगा। स्वभाव से भी दक्षिण की अपेक्षा उत्तर के निवासी अधिक सुविधावादी होते हैं । बौद्धधर्म में भी बुद्ध के निर्वाण के पश्चात् सुविधाओं की माँग वात्सीपुत्रीय भिक्षुओं ने ही की थी, जो उत्तरी तराई क्षेत्र के थे। बौद्ध पिटक साहित्य में निर्ग्रन्थों को एक शाटक और आजीवकों को नग्न कहा गय है। यह भी यही सूचित करता है कि लज्जा और शीत निवारण हेतु उत्तर भारत का निर्ग्रन्थ संघ कम से कम एक वस्त्र तो रखने लग गय था । मथुरा में ईस्वी सन् प्रथम शताब्दी के आसपास की जैन श्रमणें की जो मूर्तियाँ उपलब्ध हुई है। उनमे सभी में श्रमणों को कम्बल जैसे एक वस्त्र से युक्त दिखाया गया है । वे सामान्यतया नग्न रहते थे किन्तु भिक्षा या जनसमाज में जाते समय वह वस्त्र या कम्बल हाथ पर डालकर अपनी नग्नता छिपा लेते थे और अति शीत आदि की स्थिति में उसे ओढ़ भी लेते थे। आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध आठवें अध्ययन में अचेल श्रमणों के साथ-साथ एक, दो और तीन वस्त्र रखने वाले श्रमणों का उल्लेख हैं। यह सुनिश्चित है कि महावीर बिना किसी पात्र के दीक्षित हुए थे। 'आचारांग' से उपलब्ध सूचना के अनुसार पहले तो वे गृही पात्र का उपयोग कर लेते थे, किन्तु बाद में उन्होंने इसका भी त्याग कर दिया और पाणिपात्र हो गये अर्थात् हाथ में ही भिक्षा ग्रहण करने लगे। सचित्त जल का प्रयोग निषिद्ध होने से सम्भवतः सर्वप्रथम निर्ग्रन्थ संघ में शौच के लिए जलपात्र का ग्रहण किया गया होगा, किन्तु भिक्षुओं की बढ़ती हुई संख्या और एक ही घर से प्रत्येक भिक्षु को पेट भर भोजन न मिल पाने के कारण आगे 30 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चलकर भिक्षा हेतु भी पात्र का उपयोग प्रारम्भ हो गया होगा। इसके अतिरिक्त बीमार और अतिवृद्ध भिक्षुओं की परिचर्या के लिए भी पात्र में आहार लाने और ग्रहण करने की परम्परा प्रचलित हो गई होगी। मथुरा में ईसा की प्रथम द्वितीय शती की एक जैन श्रमण की प्रतिमा मिली है जो अपने हाथ में एक पात्र युक्त झोली और दूसरे में प्रतिलेखन (रजोहरण) लिए हुए है। इस झोली का स्वरूप आज श्वेताम्बर परम्परा में, विशेष रूप से स्थानकवासी और तेरापंथी परम्पर में प्रचलित झोली के समान है। यद्यपि मथुरा के अंकनों में हाथ में खुला पात्र भी प्रदर्शित है। इसके अतिरिक्त मथुरा के अंकन में मुनियों एवं साध्वियों के हाथ में मुख वस्त्रिका (मुँह - पत्ति) और प्रतिलेखन (रजोहरण) के अंकन उपलब्ध होते हैं। प्रतिलेखन के अंकन दिगम्बर परम्परा में प्रचलित मयूरपिच्छ और श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित रजोहरण दोनों ही आकारों में मिलते हैं। यद्यपि स्पष्ट साहित्यिक और पुरातात्विक साक्ष्य के अभाव में यह कहना कठिन है कि वे प्रतिलेखन मयूरपिच्छ के बने होते थे या अन्य किसी वस्तु के । दिगम्बर परम्पर में मान्य यापनीय ग्रन्थ मूलाचार और भगवती आराधना में प्रतिलेखन (पडिलेहण) और उसके गुणें का तो वर्णन है किन्तु यह स्पष्ट उल्लेख नहीं है कि वे किस वस्तु के बने होते थे। इस प्रकार ईसा की प्रथम शती के पूर्व उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ में वस्त्र, पात्र, झोली, मुखस्त्रिका और प्रतिलेखन (रजोहरण) का प्रचलन था। सामान्यतया मुनि नग्न ही रहते थे और साध्वियाँ साड़ी पहनती थीं। मुनि वस्त्र का उपयोग विशेष परिस्थिति में मात्र शीत एवं लज्जा - निवारण हेतु करते थे । मुनियों के द्वारा सदैव वस्त्र धारण किये रहने की परम्परा नहीं थी। इसी प्रकार अंकनों में मुखवस्त्रिका भी हाथ में ही प्रदर्शित है, न कि वर्तमान स्थानकवासी और तेरापंथी परम्पराओं के अनुरूप मुख पर बंधी हुई दिखाई गई है। प्राचीन स्तर के श्वेताम्बर आगम ग्रन्थ भी इन्हीं तथ्यों की पुष्टि करते हैं। श्वेताम्बर परम्परा में मुनि के जिन १४ उपकरणों का उल्लेख मिला है, वे सम्भवतः ईसा की दूसरी-तीसरी शती तक निश्चित हो गये थे। महावीर के पश्चात् निर्ग्रन्थ संघ में हुए संघ- भेद महावीर के निर्वाण और मथुरा के अंकन के बीच लगभग पाँच सौ वर्षों के इतिहास से हमें जो महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ मिलती हैं वे निह्नवों के दार्शनिक एवं वैचारिक मतभेदों एवं संघ के विभिन्न गणों, शाखाओं, कुलों एवं सम्भोगों में विभक्त होने से सम्बन्धित हैं। ‘आवश्यकनिर्युक्ति' सात निह्नवों का उल्लेख करती है, इनमें से जामालि और तिष्यगुप्त तो महावीर के समय में हुए थे, शेष पाँच आषाढ़भूति, अश्वामित्र, गंग, रोहगुप्त और गोष्टमहिल महावीर निर्वाण के पश्चात् २१४ वर्ष से ५८४ वर्ष के बीच हुए। वे निह्नव किन्हीं दार्शनिक प्रश्नों पर निर्ग्रन्थ संघ की परम्परागत मान्यताओं से 31 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मतभेद रखते थे। किन्तु इनके द्वारा निर्ग्रन्थ संघ में किसी नवीन सम्प्रदाय की उत्पत्ति हुई हो, ऐसी कोई भी सूचना उपलब्ध नहीं होती। इस काल में निम्रन्थ संघ में गण और शाखा भेद भी हुए किन्तु वे किन दार्शनिक एवं आचार सम्बन्धी मतभेद को लेकर हुए थे, यह ज्ञात नहीं होता है। मेरी दृष्टि में व्यवस्थागत सुविधाओं एवं शिष्य-प्रशिष्यों की परम्पराओं को लेकर ही ये गण या शाखा भेद हुए होंगे। यद्यपि 'कल्पसूत्र' स्थविराली में षडुलक रोहगुप्त से त्रैराशिक शाखा निकलने का उल्लेख हुआ है। रोहगुप्त त्रैराशिक मत के प्रवक्ता एक निह्नव माने गये हैं। अतः यह स्पष्ट है कि इन गणों एवं शाखाओं में कुछ मान्यता भेद भी रहे होंगे, किन्तु आज हमारे पास यह जानने का कोई साधन नहीं है। _ 'कल्पसूत्र' की स्थविराली गीययन गोत्रीय आर्य यशोभद्र के दो शिष्यों माढर गोत्रीय सम्भूतिविजय और प्राची (पौर्वात्य) गोत्रीय भद्रबाहु का उल्लेख करती हैं। 'कल्पसूत्र' में गणों और शाखाओं की उत्पत्ति बताई गई है, जो एक ओर आर्य भद्रबाहु के शिष्य काश्यप गोत्रीय गोदास से एवं दूसरी ओर स्थूलिभद्र के शिष्य-प्रशिष्यों से प्रारम्भ होती है। गोदास से गोदासगण की उत्पत्ति हई और उसकी चार शाखाएँ ताम्रलिप्तिका, कोटिवर्षीया, पौण्ड्रवर्द्धनिका और दासकर्पाटिका निकली हैं। इसके पश्चात् भद्रबाह की परम्परा कैसे आगे बढ़ी, इस सम्बन्ध में 'कल्पसूत्र' की स्थविराली में कोई निर्देश नहीं है। इन शाखाओं के नामो से भी ऐसा लगता है कि भद्रबाह की शिष्य परम्परा बंगाल और उड़ीसा से दक्षिण की ओर चली गई होगी। दक्षिण में गोदासगण का एक अभिलेख भी मिला है। अतः यह मान्यता समुचित ही है कि भद्रबाहु की परम्परा से ही आगे चलकर दक्षिण की अचेलक निर्ग्रन्थ परम्परा का विकास हुआ। श्वेताम्बर परम्परा पाटलिपुत्र की वाचना के समय भद्रबाहु के नेपाल में होने का उल्लेख करती है जबकि दिगम्बर परम्परा चन्द्रगुप्त मौर्य को दीक्षित करके उनके दक्षिण जाने का उल्लेख करती है। सम्भव है कि वे अपने जीवन के अन्तिम चरण में उत्तर से दक्षिण चले गये हों। उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ की परम्परा सम्भूतिविजय के प्रशिष्य स्थूलिभद्र के शिष्यों से आगे बढ़ी। 'कल्पसूत्र' में वर्णित गोदासगण और उसकी उपर्युक्त चार शाखाओं को छोड़कर शेष सभी गणो, कुलों और शाखाओं का सम्बन्ध स्थूलिभद्र की शिष्य-प्रशिष्य परम्परा से ही है। इसी प्रकार दक्षिण का अचेल निर्ग्रन्थ संघ भद्रबाहु की परम्परा से और उत्तर का सचेल निर्ग्रन्थ संघ स्थूलिभद्र की परम्परा से विकसित हुआ। इस संघ में उत्तर बलिस्सहगण, उद्धेहगण, कोटिकगण, चारणगण, मानवगण, वेसवाडियगण, उड्डवाडियगण आदि प्रमुख गण थे। इन गणों की अनेक शाखाएँ एवं कुल थे। 'कल्पसूत्र' की स्थविरावली इन सबका उल्लेख तो करती है, 32 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किन्तु इसके अन्तिम भाग में मात्र कोटिकगण की वज्री शाखा की आचार्य परम्परा दी गई है जो देवर्द्धिक्षमाश्रमण (वीर निर्माण सं. ९८०) तक जाती है। स्थूलभद्र के शिष्यप्रशिष्यों की परम्परा में उद्भुत जिन विभिन्न गणों, शाखाओं एवं कुलों की सूचना हमें 'कल्पसूत्र' की स्थविरावली से मिलती है उसकी पुष्टि मथुरा के अभिलेखों से हो जाती है जो ‘कल्पसूत्र' की स्थविरावली से मिलती है उसकी पुष्टि मथुरा के अभिलेखों से हो जाती है जो 'कल्पसूत्र' की स्थविरावली की प्रामाणिकता को सिद्ध करती हैं। दिगम्बर परम्परा में महावीर के निर्वाण से लगभग एक हजार वर्ष पश्चात् तक की जो पट्टावली उपलब्ध है, एक तो वह पर्याप्त परवर्ती है दूसरे भद्रबाहु के नाम के अतिरिक्त उसकी पुष्टि का प्राचीन साहित्यिक और अभिलेखीय कोई साक्ष्य नहीं है। भद्रबाहु के सम्बन्ध में भी जो साक्ष्य हैं, वे पर्याप्त परवर्ती है। अतः ऐतिहासिक दृष्टि से उनकी प्रामाणिकता पर प्रश्नचिन्ह लगाये जा सकते है। महावीर के निर्वाण से ईसा की प्रथम एवं द्वितीय शताब्दी तक के जो महत्त्वपूर्ण परिवर्तन उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ में हए, उन्हें समझने के लिए अर्धमागधी आगमों के अतिरिक्त मथुरा का शिल्प एवं अभिलेख हमारी बहुत अधिक मदद करते हैं। मथुरा शिल्प की विशेषता यह है कि तीर्थङ्कर प्रतिमाएँ नग्न हैं, मुनि नग्न होकर भी वस्त्र (कम्बल) से अपनी नग्नता छिपाये हुए है। वस्त्र के अतिरिक्त पात्र, झोली, मुखवस्त्रिका और प्रतिलेखन भी मुनि के उपकरणों में समाहित हैं। मुनियों के नाम, गण, शाखा, कुल आदि श्वेताम्बर परम्परा के 'कल्पसूत्र' की स्थविरावली से मिलते हैं। इस प्रकार ये श्वेताम्बर परम्परा की पूर्व स्थिति के सूचक हैं। जैनधर्म में तीर्थङ्कर प्रतिमाओं के अतिरिक्त स्तूप के निर्माण की परम्परा भी थी, यह भी मुथरा के शिल्प से सिद्ध हो जाता हैं। यापनीय या बोटिक संघ का उद्धव ईसा की द्वितीय शती में महावीर के निर्वाण के छ: सौ नौ वर्ष पश्चात् उत्तर भारत निर्ग्रन्थ संघ में विभाजन की एक अन्य घटना घटित हुई, फलतः उत्तर भारत का निर्ग्रन्थ संघ सचेल एवं अचेल ऐसे दो भागों में बँट गया। पार्थापत्यों के प्रभाव से आपवादिक रूप में एवं शीतादि के निवारणार्थ गृहीत हुए वस्त्र, पात्र आदि जब मुनि की अपरिहार्य उपधि बनने लगे, तो परिग्रह की इस बढ़ती हुई प्रवृत्ति को रोकने के प्रश्न पर आर्य कृष्ण और आर्य शिवभूति में मतभेद हो गया। आर्य कृष्ण जिनकल्प का उच्छेद बताकर गृहीत वस्त्र-पात्र को मुनिचर्या का अपरिहार्य अंग मानने लगे, जबकि आर्य शिवभूति ने इनके त्याग और जिनकल्प के आचरण पर बल दिया। उनका कहना था कि समर्थ के लिये जिनकल्प का निषेध नहीं मानना चाहिए। वस्त्र, पात्र का ग्रहण अपवाद मार्ग है, उत्सर्ग मार्ग तो अचेलता ही है। आर्य शिवभूति की उत्तर भारत की 33 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस अचेल परम्परा को श्वेताम्बरों ने बोटिक (भ्रष्ट ) कहा । किन्तु आगे चलकर यह परम्परा यापनीय के नाम से ही अधिक प्रसिद्ध हुई । गोपाञ्चल में विकसित होने के कारण यह गोप्यसंघ नाम से भी जानी जाती थी। 'षट्दर्शनसमुच्चय' की टीका में गुणरत्न ने गोप्यसंघ एवं यापनीयसंघ को पर्यायवाची बताया है। यापनीय संघ की विशेषता यह थी कि एक ओर यह श्वेताम्बर परम्परा के समान ‘आचारांग', 'सूत्रकृतांग', ‘उत्तराध्ययन’, ‘दशवैकालिक' आदि अर्द्धमागधी आगम साहित्य को मान्य करता था जो कि उसे उत्तराधिकार में ही प्राप्त हुआ था, साथ ही वह सचेल, स्त्री और अन्यतैर्थिकों की मुक्ति को स्वीकार करता था । आगम साहित्य के वस्त्र - पात्र सम्बन्धी उल्लेखों को वह साध्वियों एवं आपवादिक स्थिति में मुनियों से सम्बन्धित मानता था, किन्तु दूसर ओर वह दिगम्बर परम्परा के समान वस्त्र और पात्र का निषेध कर मुनि की नग्नता पर बल देता था। यापनीय मुनि नग्न रहते थे और पाणितलभोजी (हाथ में भोजन करने वाले) होते थे। इनके आचार्यों ने उत्तराधिकार में प्राप्त आगमों से गाथायें लेकर शौरसेनी प्राकृत में अनेक ग्रन्थ बनाये। इनमें 'कषायप्राभृत', 'षट्खण्डागम', 'भगवती आराधना', 'मूलाचार' आदि प्रसिद्ध हैं। दक्षिण भारत में अचेल निर्ग्रन्थ परम्परा का इतिहास ईस्वी सन् की तीसरी-चौथी शती तक अन्धकार में ही है। इस सम्बन्ध में हमें न तो विशेष साहित्यिक साक्ष्य ही मिलते हैं और न अभिलेखीय ही । यद्यपि इस काल के कुछ पूर्व के ब्राह्मी लिपि के अनेक गुफा अभिलेख तमिलनाडु में पाये जाते हैं, किन्तु वे श्रमणों या निर्माता के नाम के अतिरिक्त कोई जानकारी नहीं देते। तमिलनाडु में अभिलेख युक्त जो गुफायें हैं, वे सम्भवतः निर्ग्रन्थ के समाधिमरण ग्रहण करने के स्थल रहे होगे । संगम युग के तमिल साहित्य से इतना अवश्य ज्ञात होता है कि जैन श्रमणों ने भी तमिल भाषा के विकास और समृद्धि में अपना योगदान दिया था। तिरूकुरल के जैनाचार्यकृत होने की भी एक मान्यता है। ईसा की चौथी शताब्दी में तमिल देश का यह निर्ग्रन्थ संघ कर्णाटक के रास्ते उत्तर की ओर बढ़ा, उधर उत्तर का निर्ग्रन्थ संघ सचेल (श्वेताम्बर) और अचेलक (यापनीय) इन दो भागों में विभक्त होकर दक्षिण में गया । सचेल श्वेताम्बर परम्परा राजस्थान, गुजरात एवं पश्चिमी महाराष्ट्र होती हुई उत्तर कर्नाटक पहुँची तो अचेल यापनीय परम्परा बुन्देलखण्ड एवं विदिशा होकर विंध्य और सतपुडा को पार करती हुई पूर्वी महाराष्ट्र से होकर उत्तरी कर्नाटक पहुँची । ईसा की पाँचवी शती में उत्तरी कर्नाटक में मृगेशवर्मा के जो अभिलेख मिले हैं उनसे उस काल में जैनों के पाँच संघों के अस्तित्व की सूचना मिलती है - १. निर्ग्रन्थ संघ, २. मूल संघ, ३. यापनीय संघ, ४. कुचर्क संघ और, ५. श्वेतपट महाश्रमण संघ । इसी काल मे पूर्वोत्तर भारत में 34 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वटगोहली से प्राप्त ताम्रपत्र में पंचस्तूपान्वय के अस्तित्व की भी सूचना मिलती है। इस युग का श्वेतपट महाश्रमण संघ अनेक कुलों एवं शाखाओं में विभक्त था, जिसका सम्पूर्ण विवरण कल्पसूत्र एवं मथुरा के अभिलेखों से प्राप्त होता है। महावीर के निर्वाण के पश्चात् से लेकर ईसा की पाँचवीं शती तक एक हजार वर्ष की इस सुदीर्घ अवधि में अर्द्धमागधी आगम साहित्य का निर्माण एवं संकलन होता रहा है। अत: आज हमें जो आगम उपलब्ध है, वे न तो एक व्यक्ति की रचना है और न एक काल की। मात्र इतना ही नहीं, एक ही आगम में विविध कालों की सामग्री संकलित है। इस अवधि में सर्वप्रथम ई.पू. तीसरी शती में पाटलीपुत्र में प्रथम वाचना हुई, सम्भवत: इस वाचना में अंगसूत्रों एवं पापित्य परम्परा के पूर्व साहित्य के ग्रंथों का संकलन हुआ। पूर्व साहित्य के संकलन का प्रश्न इसलिए महत्त्वपूर्ण बन गया था कि पार्खापत्य परम्परा लुप्त होने लगी थी। इसके पश्चात् आर्य स्कन्दिल की अध्यक्षता में मथुरा में और आर्य नागार्जुन की अध्यक्षता में वल्लभी में समानान्तर वाचनाएँ हुईं, जिनमें अंग, उपांग आदि आगम संकलित हुए। इसके पश्चात वीर निर्माण ९८० अर्थात ई. सन् की पाँचवीं शती में वल्लभी में देवर्द्धिक्षमाश्रमण के नेतृत्व में अन्तिम वाचना हुई। वर्तमान आगम इसी वाचना का परिणाम है। फिर भी देवर्द्धि इन आगमों के सम्पादक ही हैं, रचनाकार नहीं। उन्होंने मात्र ग्रंथों को सुव्यविस्थत किया। इन ग्रन्थों की सामग्री तो उनके पहले की है। अर्धमागधी आगमों में जहाँ 'आचारांग' एवं 'सूत्रकृतांग' के प्रथम श्रुतस्कंध, 'ऋषिभाषित', 'उत्तराध्ययन', 'दशवैकालिक' आदि प्राचीन स्तर के अर्थात् ई.पू. के ग्रन्थ है, वहीं 'समवायांग', वर्तमान 'प्रश्नव्याकरण' आदि पर्याप्त परवर्ती अर्थात् लगभग ई.स. की पाँचवीं शती के हैं। 'स्थानांग', 'अंतकृतदशा', 'ज्ञाताधर्मकथा' और 'भगवती' का कुछ अंश प्राचीन (अर्थात् ई.पू. का) है, तो कुछ पर्याप्त परवर्ती है। उपांग साहित्य में अपेक्षाकृत रूप में 'सूर्यप्रज्ञप्ति', 'राजप्रश्नीय', 'प्रज्ञापना' प्राचीन है। उपांगों की अपेक्षा भी छेद-सूत्रों की प्राचीनता निर्विवाद है। इसी प्रकार प्रकीर्णक साहित्य में अनेक ग्रंथ ऐसे हैं, जो कुछ अंगों और उपांगों की अपेक्षा भी प्राचीन है। फिर भी सम्पूर्ण अर्धमागधी आगम साहित्य को अन्तिम रूप लगभग ई. सन् की छठी शती के पूर्वार्ध में मिला, यद्यपि इसके बाद भी इसमें कुछ प्रक्षेप और परिवर्तन हुए हैं। ईसा की छठी शताब्दी के पश्चात् से दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी के मध्य तक मुख्यत: आगमिक व्याख्या साहित्य के रूप में नियुक्ति, भाष्य, चूर्णी और टीकाएँ लिखी गई। यद्यपि कुछ नियुक्तियाँ प्राचीन भी है। इस काल में इस आगमिक व्याख्याओं के अतिरिक्त स्वतंत्र ग्रन्थ भी लिखे गये। इस काल के प्रसिद्ध आचार्यों में सिद्धसेन, जिनभद्रगणि, शिवार्य, वट्टकेर, कुन्दकुन्द, आकलंक, समन्तभद्र, 35 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्यानन्द,जिनसेन, स्वयम्भू, हरिभद्र, सिद्धर्षि, शीलांक, अभयदेव आदि प्रमुख है। दिगम्बरों में तत्त्वार्थ की विविध टीकाओं और पुराणों के रचनाकाल का भी यही युग निर्ग्रन्थ परम्परा में विभागों का प्रवेश (अ) हिन्दू वर्ण एवं जाति व्यवस्था का जैन धर्म पर प्रभाव ___ मूलत: श्रमण परम्परा और जैनधर्म हिन्दू वर्ण-व्यवस्था के विरूद्ध खड़े हुए थे। किन्तु कालक्रम में बृहद् हिन्दू समाज के प्रभाव से उसमें भी वर्ण एवं जाति सम्बन्धी अवधारणाएँ प्रविष्ट हो गई। जैन परम्परा में जाति और वर्ण-व्यवस्था के उद्धव एवं ऐतिहासिक विकास का विवरण सर्वप्रथम 'आचारांगनियुक्ति' (लगभग ईस्वी सन् तीसरी शती) में प्राप्त होता है। उसके अनुसार प्रारम्भ में मनुष्य जाति एक ही थी। ऋषभ के द्वारा राज्य-व्यवस्था का प्रारम्भ होने पर उसके दो विभाग हो गये- १. शासक (स्वामी) २. शासित (सेवक) उसके पश्चात शिल्प और वाणिज्य के विकास के साथ उसके तीन विभाग हुए- १. क्षत्रिय (शासक), २. वैश्य (कृषक और व्यवसायी) और ३. शूद्र (सेवक)। उसके पश्चात् श्रावक-धर्म की स्थापना होने पर अहिंसक, सदाचारी और धर्मनिष्ठ व्यक्तियों को ब्राह्मण (माहण) कहा गया। इस प्रकार क्रमशः चार वर्ण अस्तित्व में आए। इन चार वर्गों के स्त्री-पुरुषों के समवर्णीय अनुलोम एवं प्रतिलोम संयोग से सोलह वर्ण बने जिनमें सात वर्ण और नौ अन्तर वर्ण कहलाए। सात वर्ण में समवर्णीय स्त्री-पुरुष के संयोग से चार मूल वर्ण तथा ब्राह्मण पुरुष एवं क्षत्रिय स्त्री के संयोग से उत्पन्न, क्षत्रिय पुरुष एवं वैश्य स्त्री के संयोग से उत्पन्न और वैश्य पुरुष एवं शूद्र स्त्री के संयोग से उत्पन्न, ऐसे अनुलोम संयोग से उत्पन्न तीन वर्ण। 'आचारांगचूर्णि' (ईसा की ७वीं शती) में इसे स्पष्ट करते हुए बताया गया है कि 'ब्राह्मण पुरुष एवं क्षत्राणी के संयोग से जो सन्तान उत्पन्न होती है वह उत्तम क्षत्रिय, शुद्ध क्षत्रिय या संकर क्षत्रिय कही जाती है, यह पाँचवाँ वर्ण है। इसी प्रकार क्षत्रिय पुरुष और वैश्य स्त्री से उत्पन्न सन्तान उत्तम वैश्य, शुद्ध वैश्य या संकर वैश्य कही जाती है, यह छठाँ वर्ण है तथा वैश्य पुरुष एवं शूद्ध-स्त्री के संयोग से उत्पन्न सन्तान शुद्ध शूद्र या संकर शूद्र कही जाती है, यह सातवाँ वर्ण है। पुन: अनुलोम और प्रतिलोम सम्बन्धों के आधार पर निम्नलिखित नौ अन्तर-वर्ण बने। ब्राह्मण पुरुष और वैश्य स्त्री से 'अम्बष्ठ' नामक आठवाँ वर्ण उत्पन्न हुआ, क्षत्रिय पुरुष और शुद्ध स्त्री से 'उग्र' नामक नवाँ वर्ण हुआ, ब्राह्मण पुरुष और शूद्ध स्त्री से निषाद' नामक दसवाँ वर्ण उत्पन्न हुआ, शुद्र पुरुष और 36 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैश्य स्त्री से 'अयोग' नामक ग्यारहवाँ वर्ण उत्पन्न हुआ, क्षत्रिय और ब्राह्मणी से 'सूत' नामक तेरहवाँ वर्ण हुआ, शूद्र पुरुष और क्षत्रिय स्त्री से 'क्षत्रा' (खन्ना) नामक चौदहवाँ वर्ण उत्पन्न हुआ। वैश्य पुरुष और ब्राह्मण स्त्री के संयोग से 'वेदेह' नामक पन्द्रहवाँ वर्ण हुआ। और शुद्र पुरुष तथा ब्राह्मण स्त्री के संयोग से 'चाण्डाल' नामक सोलहवां वर्ण हुआ। इसके पश्चात इन सोलह वर्णों में परस्पर अनुलोम एवं प्रतिलोम संयोग से अनेक जातियाँ अस्तित्व में आई। उपरोक्त विवरण में हम यह देखते हैं कि जैन धर्म के आचार्यों ने भी काल - क्रम में जाति और वर्ण की उत्पत्ति के सन्दर्भ में हिन्दू परम्परा की व्यवस्थाओं को अपने ढंग से संशोधित कर स्वीकार कर लिया। लगभग सातवीं शती में दक्षिण भारत में हुए आचार्य जिनसेन ने लोकापवाद के भय से तथा जैन धर्म का अस्तित्व और सामाजिक सम्मान बनाये रखने के लिए हिन्दू वर्ण एवं जाति-व्यवस्था को इस प्रकार आत्मसात कर लिया कि इस सम्बन्ध में जैनों का जो वैशिष्ट्य था, वह प्रायः समाप्त हो गया। जिनसेन ने सर्वप्रथम यह बताया कि आदि ब्रह्मा ऋषभदेव ने षट्कर्मों का उपदेश देने के पश्चात तीन वर्णों (क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) की सृष्टि की। इसी ग्रन्थ में आगे यह भी कहा गया है कि जो क्षत्रिय और वैश्य वर्ण की सेवा करते हैं वे शूद्र है। इनके दो भेद हैं- कारु और अकारु । पुनः कारु के भी दो भेद हैं- स्पृश्य और अस्पृश्य। धोबी, नापित आदि अस्पृश्य शूद्र है और चाण्डाल आदि जो नगर के बाहर रहते हैं वे अस्पृश्य शूद्र है। (आदिपुराण', १६ / १८४ - १८६) शूद्रों के कारु और अकारु तथा स्पृश्य और अस्पृश्य ये भेद सर्वप्रथम केवल पुराणकाल में जिनसेन ने किये हैं। उनके पूर्ववर्ती अन्य किसी जैन आचार्य ने इस प्रकार के भेदों को मान्य नहीं किया है । किन्तु हिन्दू समाज-व्यवस्था से प्रभावित होने के बाद के जैन आचार्यों ने इसे प्रायः मान्य किया। 'षट्प्राभृत' के टीकाकार श्रुतसागर ने भी इस स्पृश्य-अस्पृश्य की चर्चा की है। यद्यपि पुराणकार ने शूद्रों को एकशाटकव्रत अर्थात् क्षुल्लक दीक्षा का अधिकार मान्य किया था किन्तु बाद के दिगम्बर जैन आचार्यों ने उसमें भी कमी कर दी और शूद्र की मुनि-दीक्षा एवं जिनमन्दिर में प्रवेश का भी निषेध कर दिया। श्वेताम्बर परम्परा में 'स्थानांग' (३/२०२) के मूलपाठ में तो केवल रोगी, भयार्त और नपुंसक की मुनि दीक्षा का निषेध था,किन्तु परवर्ती टीकाकारो ने चाण्डालादि जाति- जुंगित और व्याघादि कर्मजुगित लोगों को दीक्षा देने का निषेध कर दिया। यद्यपि यह सब जैन धर्म की मूल परम्परा के तो विरूद्ध ही था फिर भी हिन्दू परम्परा के प्रभाव से इसे मान्य कर लिया गया। स्थिति यहाँ तक पहुँची कि एक ही जैन धर्म के अनुयायी जातीय भेद के आधार पर दूसरी जाति 37 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का छुआ हुआ खाने में, उन्हें साथ बिठाकर भोजन करने में आपत्ति करने लगे। शूद्रजल का त्याग एक आवश्यक कर्तव्य हो गया और शूद्रों का जिन मंदिर में प्रवेश निषिद्ध कर दिया गया। श्वेताम्बर शाखा की एक परम्परा में केवल ओसवाल जाति को ही दीक्षित करने और अन्य एक परम्परा में केवल बीसा ओसवाल को आचार्यपद देने की अवधारणा विकसित हो गई। इसी प्रकार जहाँ प्राचीन स्तर में जैन परम्परा में चारों ही वर्गों और सभी जातियों के व्यक्ति जिन पूजा करने, श्रावक धर्म एवं मुनिधर्म का पालन करने और साधना के सर्वोच्च लक्ष्य निर्वाण को प्राप्त करने के अधिकारी माने गये थे, वहीं सातवीं-आठवीं शती में जिनसेन ने सर्वप्रथम शूद्र को मुनि-दीक्षा और मोक्ष प्राप्ति हेतु अयोग्य माना। श्वेताम्बर आगमों में कहीं शूद्र की दीक्षा का निषेध नहीं है, 'स्थानांग' में मात्र रोगी, भयार्त और नपुसंक की दीक्षा का निषेध है किन्तु आगे चलकर उनमें भी जाति-जुंगति जैसे- चाण्डाल आदि और कर्म-जुंगति जैसे-कसाई आदि की दीक्षा का निषेध कर दिया गया। किन्तु यह बृहतर हिन्दु परम्परा का प्रभाव ही था जो कि जैनधर्म के मूल सिद्धान्त के विरूद्ध था। जैनों ने इसे केवल अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा को बनाए रखने हेतु मान्य किया, क्योंकि आगमों में हरिकेशबल, मेतार्य, मातंगमुनि आदि अनेक चाण्डालों के मुनि होने और मोक्ष प्राप्त करने के उल्लेख है। (ब) जैन धर्म में मूर्ति पूजा तथा आडम्बरयुक्त कर्मकाण्ड का प्रवेश यद्यपि जैन धर्म में मूर्ति और मंदिर निर्माण की परम्परा भगवान् महावीर के निर्वाण के लगभग सौ वर्ष पश्चात नन्दों के काल से प्रारम्भ हो गई थी। हड़प्पा से प्राप्त एक नग्न कबन्ध जैन है या नहीं यह निर्णय कर पाना कठिन है, किन्तु लोहानीपुर पटना से प्राप्त मौर्यकालीन जिन प्रतिमा इस तथ्य का संकेत है कि जैन धर्म में मूर्ति उपासना की परम्परा रही है। तथापि उसमें यह सब अपनी सहवर्ती परम्पराओं के प्रभाव से आया कर्मकाण्ड और आध्यात्मिक साधनाएं प्रत्येक धर्म के अनिवार्य अंग है। कर्मकाण्ड उसका शरीर है और आध्यात्मिक उसका प्राण। भारतीय धर्मों में प्राचीनकाल से ही हमें ये दोनों प्रकार की प्रवृत्तियाँ स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है। जहाँ पारम्परिक वैदिक परम्परा कर्म-काण्डात्मक अधिक रही है, वहाँ प्राचीन श्रमण परम्पराएँ साधनात्मक अधिक रही है। फिर भी इन दोनों प्रवृत्तियों को एक-दूसरे से पूर्णतया पृथक रख पाना कठिन है। श्रमणपरम्परा में आध्यात्मिक और धार्मिक साधना के जो विधि-विधान बने थे, वे भी धीरे-धीरे __38 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मकाण्ड के रूप में ही विकसित होते गये। अनेक आन्तरिक एवं बाह्य साक्ष्यों से यह सुनिश्चित हो जाता है कि इनमें अधिकांश कर्मकाण्ड वैदिक या ब्राह्मण परम्परा अथवा दूसरी अन्य परम्पराओं के प्रभाव से आये हैं। जैन परम्परा मूलतः श्रमण परम्परा का ही एक अंग है और इसलिए यह अपने प्रारम्भिक रूप में कर्मकाण्ड की विरोधी एवं आध्यात्मिक साधना प्रधान रही है। मात्र यही नहीं 'उत्तराध्ययन' जैसे प्राचीन जैन ग्रन्थों में स्नान, हवन, यज्ञ आदि कर्मकाण्डों के विरोध से भी यही परिलक्षित होता है। जैसा हम पूर्व में बता चुके हैं कि उत्तराध्यन की यह विशेषता है कि उसने धर्म के नाम पर किये जाने वाले इन कर्मकाण्डों एवं अनुष्ठानों को एक आध्यात्मिक रूप प्रदान किया था। तत्कालीन ब्राह्मण वर्ग ने यज्ञ, श्राद्ध और तर्पण के नाम पर कर्मकाण्डों एवं अनुष्ठानों के माध्यम से सामाजिक शोषण की जो प्रक्रिया प्रारम्भ की थी, जैन परम्परा ने उसका खुला विरोध किया था । वस्तुतः वैदिक कर्मकाण्ड की विरोधी जनजातियों एवं भक्तिमार्गी परम्पराओं में धार्मिक अनुष्ठान के रूप में पूजा-विधि का विकास हुआ और श्रमण परम्परा में तपस्या और ध्यान का। समाज में यक्ष- पूजा के प्राचीनतम उल्लेख जैनागमों में उपलब्ध है। जनसाधारण में प्रचलित भक्तिमार्गी धारा का प्रभाव जैन और बौद्ध धर्मों पर भी पड़ा और उनमें तप, संयम एवं ध्यान के साथ-साथ जिन एवं बुद्ध की पूजा की भावना विकसित हुई। परिणामतः प्रथम स्तूप, चैत्य आदि के रूप में प्रतीक पूजा प्रारम्भ हुई, फिर सिद्धायतन (जिन मन्दिर) आदि बने और बुद्ध एवं जिन प्रतिमा की पूजा होने लगी, परिणामस्वरूप जिन-पूजा, दान आदि को गृहस्थ का मुख्य कर्तव्य माना गया। दिगम्बर परम्परा में तो गृहस्थ के लिए प्राचीन षडावश्यकों के स्थान पर षट् दैनिक कृत्यों जिन-पूजा, गुरु- सेवा, स्वाध्याय, तप, संयम एवं दान की कल्पना की गई। हमें 'आचारांग', 'सूत्रकृतांग', 'उत्तराध्ययन', 'भगवती' आदि प्राचीन आगमों में जिन-पूजा की विधि का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है। इनकी अपेक्षा परवर्ती आगमों 'स्थानांग' आदि में जिन-प्रतिमा एवं जिन - मन्दिर (सिद्धायतन) के उल्लेख है, किन्तु उनमें पूजा सम्बन्धी किसी अनुष्ठान की चर्चा नहीं है। जबकि 'राजप्रश्नीय' में सूर्याभदेव और 'ज्ञाताधर्मकथा' में द्रौपदी के द्वारा जिन - प्रतिमाओं के पूजन के उल्लेख हैं । यह सब बृहद् हिन्दू परम्परा का जैन धर्म पर प्रभाव है। 'हरिवंशपुराण' में जिनसेन ने जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप और नैवैद्य का उल्लेख किया है। इस उल्लेख में भी अष्टद्रव्यों का क्रम यथावत् नहीं है और न जल का पृथक निर्देश ही है। स्मरण रहे कि प्रतिमा- प्रक्षालन की प्रक्रिया का अग्रिम 39 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकास अभिषेक है जो अपेक्षाकृत और भी परवर्ती है। 'पद्मपुराण', 'पंचविंशनि' ( पद्मनन्दिकृत), 'आदिपुराण', 'हरिवंशपुराण', 'वसुनन्दि श्रावकाचार' आदि ग्रन्थों से अष्टद्रव्यों का फलादेश भी ज्ञात होता है। यह माना गया है कि अष्टद्रव्यों द्वारा पूजन करने से ऐहिक और पारलौकिक अभ्युदयों की प्राप्ति होती है। 'भावसंग्रहट में भी अष्टद्रव्यों का पृथक-पृथक फलादेश बताया गया है। डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री द्वारा प्रस्तुत विवरण हिन्दू परम्परा के प्रभाव से दिगम्बर परम्परा में पूजा - द्रव्यों के क्रमिक विकास को स्पष्ट कर देता है। श्वेताम्बर परम्परा में हिन्दूओं की पंचोपचारी पूजा से अष्टप्रकारी पूजा और उसी से सत्रह भेदी पूजा विकसित हुई। यह सर्वोपचारी या सत्रह भेदी पूजा वैष्णवों की षोडशौपचारी पूजा का ही रूप है और बहुत कुछ रूप में इसका उल्लेख 'राजप्रश्नीय' में उपलब्ध है। इस समग्र चर्चा में हमें ऐसा लगता है कि जैन परम्परा में सर्वप्रथम धार्मिक अनुष्ठान के रूप में षडावश्यकों का विकास हुआ। उन्हीं षडावश्यकों में स्तवन या गुणस्तुति का स्थान था, उसी से आगे चलकर भावपूजा प्रचलित हुई और फिर द्रव्यपूजा की कल्पना सामने आई, किन्तु द्रव्यपूजा का विधान केवल श्रावकों के लिए हुआ। तत्पश्चात् श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में जिन पूजा सम्बन्धी जटिल विधिविधानों का जो विस्तार हुआ, वह सब ब्राह्मण परम्परा का प्रभाव था। आगे चलकर जिन मन्दिर के निर्माण एवं जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा के सम्बन्ध में हिन्दुओं का अनुसरण करके अनेक प्रकार के विधि-विधान बने। पं. फूलचंदजी सिद्धान्तशास्त्री ने 'ज्ञानपीठ पूजांजलि' की भूमिका में और डॉ. नेमिचन्दजी शास्त्री ने अपने एक लेख 'पुष्पकर्मदेवपूजा : विकास एवं विधि' जो उनकी पुस्तक 'भारतीय संस्कृति के विकास में जैन वाङ्मय का अवदान' (प्रथम खण्ड), पृ. ३७१ पर प्रकाशित है, में इस बात को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है कि जैन परम्परा में पूजा- द्रव्यों का क्रमशः विकास हुआ है। यद्यपि पुष्प-पूजा प्राचीनकाल से ही प्रचलित है फिर भी यह जैन परम्परा के आत्यन्तिक अहिंसा सिद्धान्त से मेल नहीं खाती है। एक ओर तो पूजा-विधान का पाठ जिसमें होने वाली एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा का प्रायश्चित हो और दूसरी ओर पुष्प, जो स्वयं एकेन्द्रिय जीव है, उन्हें जिन - प्रतिमा को समर्पित करना कहाँ तक संगतिपूर्ण हो सकता है। वह प्रायश्चित पाठ निम्नलिखित है ईयापथे प्रचलताद्य मया प्रमादात्, एकेन्द्रियप्रमुखजीवनिकायबाधा । 40 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निद्वर्तिता यदि भवेव युगान्तरेक्षा, मिथ्या तदस्तु दुरितं गुरुभक्तितो मे । । स्मरणीय है कि श्वेताम्बर परम्परा में चैत्यवन्दन में भी 'इरियाविहि विराहनाये' नामक पाठ बोला जाता है जिसका तात्पर्य है 'मैं चैत्यवन्दन के लिए जाने में हुई एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा का प्रायश्चित करता हूँ। दूसरी ओर पूजा - विधानों में एवं होमों में पृथ्वी, वायु, अप, अग्नि और वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा का विधान, एक आन्तरिक असंगति तो है ही । सम्भवतः हिन्दू धर्म के प्रभाव से ईसा की छठीसातवीं शताब्दी तक जैन धर्म में पूजा-प्रतिष्ठा सम्बन्धी अनेक कर्मकाण्डों का प्रवेश हो गया था यही कारण है कि आठवीं शती में हरिभद्र को इनमें से अनेक का मुनियों के लिए निषेध करना पड़ा। हरिभद्र ने 'सम्बोधप्रकरण' में चैत्यों में निवास, जिन - प्रतिमा की द्रव्य-पूजा, जिन-प्रतिमा के समक्ष नृत्य, गान, नाटक आदि का जैनमुनि के लिए निषेध किया है। मात्र इतना ही नहीं, उन्होंने उसी ग्रन्थ में द्रव्य - पूजा को अशुद्ध पूजा भी कहा है। ' सामान्यत: जैन परम्परा में तपप्रधान अनुष्ठानों का सम्बन्ध कर्ममल को दूरकर मनुष्य के आध्यात्मिक गुणों का विकास और पाशविक आवेगों का नियन्त्रण रहा है। जिन - भक्ति और जिन-पूजा सम्बन्धी अनुष्ठानों का उद्देश्य भी लौकिक उपलब्धियों एवं विघ्न-बाधाओं का उपशमन न होकर व्यक्ति का अपना आध्यात्मिक विकास ही है। जैन साधक स्पष्ट रूप से इस बात को दृष्टि में रखता है कि प्रभु की पूजा और स्तुति केवल भक्त के स्व-स्वरूप या निज गुणों की उपलब्धि के लिए है। जैन परम्परा का उद्घोष है- 'वन्दे तद्गुण लब्धये' अर्थात् वन्दन का उद्देश्य परम्परा के गुणों की उपलब्धि है। जिनदेव की एवं हमारी आत्मा तत्त्वतः समान है, अतः वीतराग के गुणों की उपलब्धि का अर्थ है स्वरूप की उपलब्धि । इस प्रकार जैन अनुष्ठान मूलतः आत्मविशुद्धि और स्वरूप की उपलब्धि के लिए हैं। जैन अनुष्ठानों में जिन गाथाओं या मन्त्रों का पाठ किया जाता है, उनमें भी अधिकांशतः तो पूजनीय के स्वरूप का ही बोध कराते हैं अथवा आत्मा के लिए पतनकारी प्रवृत्तियों का अनुस्मरण कराकर उनसे मुक्त होने की प्रेरणा देते हैं। यद्यपि जैन अनुष्ठानों की मूल प्रकृति अध्यात्मपरक है, किन्तु मनुष्य की यह एक स्वाभाविक कमजोरी है कि वह धर्म के माध्यम से भौतिक सुख-सुविधाओं की उपलब्धि चाहता है, साथ ही उनकी उपलब्धि में बाधक शक्तियों के निवर्तन के लिए भी धर्म से ही अपेक्षा रखता है। वह धर्म को इष्ट की प्राप्ति और अनिष्ठ के शमन का साधन मानता 41 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। मनुष्य की इस स्वाभाविक प्रवृत्ति का यह परिणाम हुआ कि हिन्दू धर्म के प्रभाव से जैन परम्परा में भी अनुष्ठानों का आध्यात्मिक स्वरूप पूर्णतया स्थिर न रह सका, उसमें विकृति आई। वस्तुतः इन्हीं विकृतियों के निराकरण के लिए स्थानकवासी अमूर्तिपूजक परम्परा अस्तित्व में आई। सत्य तो यह है कि जैन धर्म का अनुयायी आखिर वही मनुष्य है जो भौतिक जीवन में सुख-समृद्धि की कामना से मुक्त नहीं है। अत: जैन आचार्यों के लिए यह आवश्यक हो गया कि वे अपने उपासकों की जैन धर्म में श्रद्धा बनाये रखने के लिए जैनधर्म के साथ कुछ ऐसे अनुष्ठानों को भी जोड़ें, जो अपने उपासकों के भौतिक कल्याण में सहायक हों। निवृत्तिप्रधान, अध्यात्मवादी एवं कर्मसिद्धान्त में अटल विश्वास रखने वाले जैनधर्म के लिए यह न्यायसंगत तो नहीं था, फिर भी एक ऐतिहासिक सत्य है कि उसमें यह प्रवृत्ति विकसित हुई, जिसका निराकरण आवश्यक था। जैनधर्म का तीर्थङ्कर व्यक्ति के भौतिक कल्याण में साधक या बाधक नहीं हो सकता है, अत: जैन अनुष्ठानों में जिन-पूजा के साथ-साथ यक्ष-यक्षियों के रूप में शासन देवता तथा देवी की पूजा की कल्पना विकसित हुई और यह माना जाने लगा कि तीर्थङ्कर अथवा अपनी उपासना से शासन देवता (यक्ष-यक्षी) प्रसन्न होकर उपासक का कल्याण करते हैं। शासनरक्षक देवी-देवताओं के रूप में सरस्वती, लक्ष्मी, अम्बिका, पद्मावती, चक्रेश्वरी, काली आदि अनेक देवियों तथा मणिभद्र, घण्टाकर्ण महावीर, पार्श्वयक्ष आदि यक्षों, दिक्पालों एवं अनेक क्षेत्रपालों (भैरवों) को जैन परम्परा में स्थान मिला। इन सबकी पूजा के लिए जैनों ने विभिन्न अनुष्ठानों को किंचित परिवर्तन के साथ हिन्दू परम्परा से ग्रहण कर लिया। 'भैरव पद्मावतीकल्प' आदि ग्रन्थों से इसकी पुष्टि होती है। जिन-पूजा और प्रतिष्ठा की विधि में वैदिक परम्परा के अनेक ऐसे तत्त्व भी जुड़ गये जो जैन परम्परा के मूलभूत मन्तव्यों से भिन्न है। आज हम यह देखते हैं कि जैन परम्परा में चक्रेश्वरी, पद्मावती, अम्बिका, घण्टाकर्ण महावीर, नाकोड़ा-भैरव, भौमियाजी, दिक्पाल, क्षेत्रफाल आदि की उपासना प्रमुख होती जा रही है। जैन धर्म में पूजा और उपासना का यह दूसरा पक्ष जो हमारे सामने आया, वह मूलतः हिन्दू या ब्राह्मण परम्परा का प्रभाव ही है। जिन-पूजा एवं अनुष्ठान विधियों में अनेक ऐसे मन्त्र मिलते हैं जिन्हें ब्राह्मण परम्परा के तत्सम्बन्धी मन्त्रों का मात्र जैनीकरण कहा जा सकता है। उदाहरण के रूप में जिस प्रकार ब्राह्मण परम्परा में इष्ट देवता की पूजा के समय उसका आह्वान और विर्सजन किया जाता है, उसी प्रकार जैन परम्परा में भी पूजा के समय जिन के आह्वान और विसर्जन के मन्त्र बोले जाते हैं। यथा - Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन् अत्र अवतर अवतर संवोषट् । ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन् अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन् अत्र मम सन्निहतो भवभव वषट् । ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन् स्वस्थानं गच्छ गच्छ जः जः जः । ये मन्त्र जैन दर्शन की मूलभूत मान्यताओं के प्रतिकूल है, क्योंकि जहाँ ब्राह्मण परम्परा का यह विश्वास है कि आह्वान करने पर देवता आते हैं और विसर्जन करने पर चले जाते हैं। वहाँ जैन परम्परा में सिद्धावस्था को प्राप्त तीर्थङ्कर न तो आह्वान करने पर उपस्थित हो सकते हैं और न विसर्जन करने पर जा ही सकते हैं। पं. फूलचन्दजी ने 'ज्ञानपीठ पूजांजलि' की भूमिका में विस्तार से इसकी चर्चा की है तथा आह्वान एवं विसर्जन सम्बन्धी जैन मन्त्रों की ब्राह्मण मन्त्रों से समानता भी दिखलाई है । तुलना कीजिये आवाहनं नैव जानामि नैव जामामि पूजनम् । विसर्जनं न जानामि क्षमस्व परमेश्वर । । १ । । मन्त्रहीनं क्रियाहीनं द्रव्यहीनं तथैव च । तत्सर्व क्षम्यतां देव रक्ष रक्ष जिनेश्वर । । २ । । विसर्जनपाठ इसके स्थान पर ब्राह्मणधर्म में ये श्लोक उपलब्ध होते हैंआवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम् । पूजनं नैव जानामि क्षमस्व परमेश्वर । । १ । । मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं जनार्दन । यत्पूजितं मया देव परिपूर्ण तदस्तु मे ।। २।। इसी प्रकार पंचोपचारपूजा, अष्टद्रव्यपूजा, यक्ष का विधान, विनायक - मन्त्र स्थापना, यज्ञोपवीतधारण आदि भी जैन परम्परा के अनुकूल नहीं है। किन्तु जब पौराणिक धर्म का प्रभाव बढ़ने लगा तो पंचोपचारपूजा आदि विधियों का प्रवेश हुआ। दसवीं शती के अनन्तर इन विधियों को इतना महत्त्व प्राप्त हुआ कि पूर्व प्रचलित विधि गौण हो गई। प्रतिमा के समक्ष रहने पर भी आह्वान सन्निविकरण, पूजन और विसर्जन क्रमशः पंचकल्याणकों की स्मृति के लिए व्यवहृत होने लगे। पूजा को वैयावृत्त का अंग माना जाने लगा तथा एक प्रकार से इसे 'आहारदान' के तुल्य महत्त्व प्राप्त हुआ। इस प्रकार पूजा 43 - Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के समय सामायिक या ध्यान की मूल भावना में परिवर्तन हुआ और पूजा को अतिथिसंविभाग व्रत का अंग मान लिया गया यह सभी ब्राह्मण परम्परा की अनुकृति ही है, यद्यपि इस सम्बन्ध में बोले जाने वाले मन्त्रों को निश्चित ही जैन रूप दे दिया गया है। जिस परम्परा में एक वर्ग ऐसा हो जो तीर्थङ्कर के कवलाहार का भी निषेध करता हो वही तीर्थङ्कर की सेवा में नैवेद्य अर्पित करे, क्या यह सिद्धान्त की विडम्बना नहीं कही जायेगी? जैन परम्परा ने पूजा-विधान के अतिरिक्त संस्कार-विधि में भी हिन्दूपरम्परा का अनुसरण किया है। सर्वप्रथम आचार्य जिनसेन ने 'आदिपुराण' में हिन्दू संस्कारों को जैन-दृष्टि से संशोधित करके जैनों के लिए भी एक पूरी संस्कार-विधि तैयार की है। सामान्यतया हिन्दुओं में जो सोलह संस्कारों की परम्परा है, उसमें निवृत्तिमूलक परम्परा की दृष्टि से दीक्षा (संन्यासग्रहण) आदि कुछ संस्कारों की वृद्धि करके यह संस्कार-विधि तैयार की गई है। इसमें गर्भान्वय क्रिया, दीक्षान्वय क्रिया और क्रियान्वय क्रिया ऐसे तीन विभाग किये गये हैं। इनमें गर्भ से लेकर निर्वाण पर्यन्त तक की क्रियाएँ बताई गई है। यह स्पष्ट है कि दिगम्बर परम्परा में जो संस्कार-विधि प्रचलित हुई वह बृहद् हिन्दू परम्परा से प्रभावित है। श्वेताम्बर परम्परा में किसी संस्कार-विधि का उल्लेख नहीं मिलता है, किन्तु व्यवहार में वे भी हिन्दू परम्परा में प्रचलित संस्कारों को यथावत् रूप में अपनाते हैं। उनमें आज भी विवाहादि संस्कार हिन्दू परम्परानुसार ही ब्राह्मण पण्डित के द्वारा सम्पन्न कराए जाते हैं। अत: स्पष्ट है कि विवाहादि संस्कारों के सम्बन्ध में भी जैन परम्परा पर हिन्दू परम्परा का स्पष्ट प्रभाव है। वस्तुतः मन्दिर एवं जिनबिम्ब-प्रतिष्ठा आदि से सम्बन्धित अधिकांश अनुष्ठान ब्राह्मण परम्परा की देन है और उसकी मूलभूत प्रकृति कहे जा सकते हैं। किसी भी परम्परा के लिए अपनी सहवर्ती परम्परा से पूर्णतया अप्रभावित रह पाना कठिन है और इसलिए यह स्वाभाविक ही था कि जैन परम्परा की अनुष्ठान विधियों में ब्राह्मण परम्परा का प्रभाव आया, किन्तु श्रमण परम्परा के लिए यह विकृति रूप ही था वस्तुत: मन्दिर और मूर्ति निर्माण के साथ चैत्यवास और भट्टारक परम्परा का विकास हुआ। जिसके विरोध में संविग्न परम्परा और अमूर्तिपूजक परम्पराएं अस्तित्व में आई। चैत्यवास और भट्टारक परम्परा का उदय मूर्ति और मन्दिर निर्माण के साथ उनके संरक्षण और व्यवस्था का प्रश्न आया, फलतः दिगम्बर परम्परा में भट्टारक सम्प्रदाय और श्वेताम्बर परम्परा में चैत्यवास का 44 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकास लगभग ईसा की पाँचवीं शती में हुआ। यद्यपि जिन मन्दिर और जिन - प्रतिमा निर्माण के पुरातात्त्विक प्रमाण मौर्यकाल से तो स्पष्ट रूप में मिलने लगते हैं। शक और कुषाण युग में इसमें पर्याप्त विकास हुआ, फिर भी ईसा की ५वीं शती से १२वीं शती के बीच जैन शिल्प अपने सर्वोत्तम रूप को प्राप्त होता है। यह वस्तुतः चैत्यवास की देन है। दोनों परम्पराओं में इस युग में मुनि वनवास को छोड़कर चैत्यों, जिन मन्दिरों में रहने लगे थे। केवल इतना ही नहीं, वे इन चैत्यों की व्यवस्था भी करने लगे थे। अभिलेखों से तो यहाँ तक सूचना मिलती है कि न केवल चैत्यों की व्यवस्था के लिए, अपितु मुनियों के आहार और तेलमर्दन आदि के लिए भी संभ्रान्त वर्ग से दान प्राप्त किये जाते थे। इस प्रकार इस काल में जैन साधु मठाधीश बन गये थे। फिर भी इस सुविधाभोगी वर्ग के द्वारा जैन दर्शन, साहित्य एवं शिल्प का जो विकास इस युग में हुआ उसकी सर्वोत्कृष्टता से इन्कार नहीं किया जा सकता। यद्यपि इस चैत्यवास में सुविधावाद के नाम पर जो शिथिलाचार विकसित हो रहा था उसका विरोध श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में हुआ। दिगम्बर परम्परा में चैत्यवास और भट्टारक परम्परा का विरोध सर्वप्रथम आचार्य कुन्दकुन्द के 'अष्टपाहुडट' (लिंगपाहुड १ - २२) में प्राप्त होता है। उनके पश्चात आशाधर, बनारसीदास आदि ने भी इसका विरोध किया। श्वेताम्बर परम्परा में सर्वप्रथम आचार्य हरिभद्र ने इसके विरोध में लेखनी चलाई। 'सम्बोधप्रकरण' में उन्होंने इन चैत्यवासियों के आगम विरूद्ध आचार की खुलकर आलोचना की, यहाँ तक कि उन्हें नर-पिशाच भी कह दिया । चैत्यवास की इसी प्रकार की आलोचना आगे चलकर जिनेश्वरसूरी, जिनचन्द्रसूरि आदि खतररगच्छ के अन्य आचार्यों ने भी की । ईस्वी सन् की दसवीं शताब्दी में खतररगच्छ का आविर्भाव भी चैत्यवास के विरोध में हुआ था, जिसका प्रारम्भिक नाम सुविहित मार्ग या संविग्न पक्ष था दिगम्बर परम्परा में इस युग में द्रविड़ संघ, माथुर संघ, काष्टा संघ आदि का उद्भव भी इसी काल में हुआ, जिन्हें दर्शनसार नामक ग्रन्थ में जैनाभास कहा गया। इस सम्बन्ध में पं. नाथूरामजी 'प्रेमी' ने अपने ग्रन्थ 'जैन साहित्य और इतिहास' में 'चैत्यवास और वनवास' नामक शीर्षक के अन्तर्गत विस्तृत चर्चा की है। फिर भी उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर यह कहना कठिन है कि इन विरोधों के 'बावजूद जैन संघ इस बढ़ते हुए शिथिलताचार से मुक्ति पा सका। फिर भी यह विरोध जैनसंघ में अमूर्तिपूजक सम्प्रदायों के उद्भव का प्रेरक अवश्य बना। तन्त्र और भक्ति मार्ग का जैन धर्म पर प्रभाव वस्तुतः गुप्तकाल से लेकर दसवीं और ग्यारहवीं शताब्दी तक का युग पूरे 45 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय समाज के लिए चरित्रबल के ह्रास और ललित कलाओं के विकास का युग है। यही काल है जब खजुराहो और कोणार्क के मन्दिरों में कामुक अंकन किये गये। जिन मन्दिर भी इस प्रभाव से अछूते नहीं रह सके। यही वह युग है जब कृष्ण के साथ राधा और गोपियों की कथा को गढ़कर धर्म के नाम पर कामुकता का प्रदर्शन किया गया। इसी काल में तन्त्र और वाम मार्ग का प्रचार हुआ, जिसकी अग्नि में बौद्ध भिक्षु संघ तो पूरी तरह जल मरा किन्तु जैन भिक्षु संघ भी उसकी लपटों की सुलझ से बच न सका। अध्यात्मवादी जैन धर्म भी तन्त्र का प्रभाव आया। हिन्दू परम्परा के अनेक देवी-देवताओं को प्रकारान्तर से यक्ष, यक्षी अथवा शासन देवियों के रूप में जैन देवमण्डल का सदस्य स्वीकार कर लिया गया उनकी कृपा या उनसे लौकिक सुखसमृद्धि प्राप्त करने के लिए अनेक तान्त्रिक विधि-विधान बने। जैन तीर्थंकर तो वीतराग था अतः वह न तो भक्तों का कल्याण कर सकता था न दुष्टों का विनाश, फलत: जैनों ने यक्ष-यक्षियों या शासन-देवता को भक्तों के कल्याण की जवाबदारी देकर अपने को युग-परम्परा के साथ समायोजित कर लिया। इसी प्रकार भक्ति मार्ग का प्रभाव भी इस युग में जैन संघ पर पड़ा। तन्त्र एवं भक्ति मार्ग के संयुक्त प्रभाव से जिन-मन्दिरों में पूजा-यज्ञ आदि के रूप में विविध प्रकार के कर्मकाण्ड अस्तित्व में आये। वीतराग जिन-प्रतिमा की हिन्दू परम्परा की षोडशोपचार पूजा की तरह सत्रहभेदी पूजा की जाने लगी। न केवल वीतराग जिन-प्रतिमा को वस्त्राभूषणादि से सुसिज्जत किया गया, अपितु उसे फल-नैवेद्य आदि भी अर्पित किये जाने लगे। यह विडम्बना ही थी कि हिन्दू देवी-देवताओं की पूजा-पद्धति के विवेक शून्य अनुकरण के द्वारा नवग्रह आदि के साथ-साथ तीर्थंङ्कर या सिद्ध परमात्मा का भी आह्वान और विसर्जन किया जाने लगा। यद्यपि यह प्रभाव श्वेताम्बर परम्परा में अधिक आया था किन्तु दिगम्बर परम्परा भी इससे बच न सकी। विविध प्रकार के कर्मकाण्ड और मन्त्र-तन्त्र का प्रवेश उनमें भी हो गया था, जिन-मन्दिर में यज्ञ होने लगे थे। श्रमण परम्परा की वर्ण-मुक्त सर्वोदयी धर्म व्यवस्था का परित्याग करके उसमें शूद्र की मुक्ति के निषेध और शूद्र-जल त्याग पर बल दिया गया। यद्यपि बारहवीं एवं तेरहवीं शती में हेमचन्द्र आदि अनेक समर्थ जैन दार्शनिक और साहित्यकार हुए, फिर भी जैन परम्परा में सहभागी अन्य धर्म परम्पराओं से जो प्रभाव आ गये थे, उनसे उसे मुक्त करने का कोई सशक्त और सार्थक प्रयास हुआ हो, ऐसा ज्ञान नहीं होता। यद्यपि सुधार के कुछ प्रयत्नों एवं मतभेदों के आधारपर श्वेताम्बर परम्परा में तपागच्छ, अंचलगच्छ आदि अस्तित्व में आये और उनकी शाखा प्रशाखाएँ भी बनी, फिर भी लगभग १५वीं शती तक जैन संघ इसी स्थिति का शिकार रहा। 46 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्य युग में कला एवं साहित्य के क्षेत्र में जैनों का महत्त्वपूर्ण अवदान यद्यपि मध्यकाल जैनाचार की दृष्टि से शिथिलाचार एवं सुविधावाद का युग था, फिर भी कला और साहित्य के क्षेत्र में जैनों ने महनीय अवदान प्रदान किया। खजुराहो श्रवणबेलगोल, आबू (देलवाड़ा), तारंगा, रणकपुर, देवगढ़ आदि का भव्य शिल्प और स्थापत्य कला जो ९वीं शती से १४वीं शती के बीच में निर्मित हुई, आजभी जैन समाज का मस्तक गौरव से ऊँचा कर देती है। अनेक प्रौढ़ दार्शनिक एवं साहित्यिक ग्रन्थों की रचनाएँ भी इन्हीं शताब्दियों में हुई। श्वेताम्बर परम्परा में हरिभद्र, अभयदेव, वादिदेवसूरि, हेमचन्द्र, मणिभद्र, मल्लिसेन, जिनप्रभ आदि आचार्य एवं दिगम्बर परम्परा में विद्यानन्दी, शाकाटायन, प्रभाचन्द्र जैसे समर्थ विचारक भी इसी काल के है। मन्त्र-तन्त्रके साथ चिकित्सा के क्षेत्र में भी जैन आचार्य आगे आये। इस युग के भट्टारकों और जैन यतियों ने साहित्य एवं कलात्मक मन्दिरों का निर्माण तो किया ही साथ ही चिकित्सा के माध्यम से जनसेवा के क्षेत्र में भी वे पीछे नहीं रहे। लोकाशाह के पूर्व की धर्मक्रान्तियाँ भारतीय श्रमण परम्परा एक क्रान्तधर्मी परम्परा रही है। उसने सदैव ही स्थापित रुढ़ि और अन्धविश्वासों के प्रति क्रान्ति का स्वर मुखर किया है। इसके अनुसार वे परम्परागत धार्मिक रुढ़ियाँ जिनके पीछे कोई सार्थक प्रयोजन निहित नहीं है, धर्म के शव के समान है। शव पूजा या प्रतिष्ठा का विषय नहीं होता बल्कि विसर्जन का विषय होता है, अत: अन्ध और रुढ़िवादी परम्पराओं के प्रति क्रान्ति आवश्य और अपरिहार्य होती है। श्रवण धर्मों अथवा जैन धर्म का प्रादुर्भाव इसी क्रान्ति दृष्टि के परिणामस्वरूप हुआ है। भगवान् ऋषभदेव ने अपने युग के अनुरूप लौकिक और आध्यात्मिक क्षेत्रों में अपनी व्यवस्थायें दी थी। परवर्ती, तीर्थंकरों ने अपने युग और परिस्थिति के अनुरूप उसमें भी परिवर्तन किये। परिवर्तन और संशोधन का यह क्रम महावीर के युग तक चला। भगवान् महावीर ने भगवान् ‘पार्श्वनाथ' के धर्म मार्ग और आचार-व्यवस्था मे अपने युग के अनुरूप विविध परिवर्तन किये। भगवान महावीर ने जो आचार-व्यवस्था दी थी उसमें भी देश, काल और व्यक्तिगत परिस्थितियों के कारण कालान्तर में परिवर्तन आवश्यक हुए। फलत: जैनाचार्यों ने महावीर के साधना मार्ग और आचारव्यवस्था को उत्सर्ग मार्ग मानते हुए अपवाद मार्ग के रूप में देश कालगत परिस्थितियों के आधार पर नवीन मान्यताओं को स्थान दिया। अपवाद मार्ग की सृजना के साथ जो सुविधावाद जैन संघ में प्रविष्ट हुआ वह कालान्तर में आचार शैथिल्य का प्रतीक बन गया। उस आचार शैथिल्य के प्रति भी युग-युग में सुविहित मार्ग के समर्थक आचार्यों 47 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने धर्मक्रान्तियाँ या क्रियोद्धार किये। जैन धर्म एक गत्यात्मक धर्म है। अपने मूल तत्त्वों को संरक्षित रखते हुए उसने देश, काल और परिस्थितियों के परिवर्तन के साथ-साथ अपनी व्यवस्थाओं में भी परिवर्तन स्वीकार किया। अत: विभिन्न परम्पराओं के जैन आचार्यों के द्वारा की गई धर्मक्रान्तियाँ जैन धर्म के लिए कोई नई बात नहीं थी, अपितु इसकी क्रान्तधमी विचार दृष्टि का ही परिणाम था। लोकाशाह के पूर्व भी धर्मक्रान्तियाँ हुई थी। उन धर्मक्रान्तियों या क्रियोद्धार की घटनाओं का हम संक्षिप्त विवरण यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं जैसा कि पूर्व में संकेत किया गया है कि भगवान् महावीर ने भी भगवान् पार्श्वनाथ की आचार-व्यवस्था को यथावत् रूप में स्वीकार नहीं किया था। यह ठीक है कि भगवान् पार्श्वनाथ और भगवान् महावीर की मूलभूत सिद्धान्तों में मौलिक अन्तर न हो, किन्तु उनकी आचार-व्यवस्थायें तो भिन्न-भिन्न रही ही है। जिनका जैनागमों में अनेक स्थानों पर निर्देश प्राप्त होता है। महावीर की परम्परा में इन दोनों महापुरुषों की आचारव्यवस्थाओं का समन्वय प्रथमत: सामायिक चारित्र और छेदोपस्थापनीय चारित्र (पङ्चमहाव्रतारोपण) के रूप में हुआ। फलत: मुनि आचार में एक द्विस्तरीय व्यवस्था की गई। भगवान् महावीर के द्वारा स्थापित यह आचार-व्यवस्था बिना किसी मौलिक परिवर्तन के भद्रबाहु के युग तक चलती रही, किन्तु उसमें भी देश कालगत परिस्थितियों के परिवर्तन के साथ आंशिक परिवर्तन तो अवश्य ही आये। उन परिस्थितिजन्य परिवर्तनों को मान्यता प्रदान करने हेतु आचार्य भद्रबाहु को जिनकल्प और स्थविकल्प तथा उत्सर्ग-मार्ग और अपवाद-मार्ग के रूप में पुनः एक द्वि-स्तरीय आचार-व्यवस्था को स्वीकृति देनी पड़ी। आचार्य भद्रबाह के प्रशिष्य और स्थूलिभद्र के शिष्य आर्य महागिरि एवं आर्य सुहस्ती के काल में जैन धर्म में जिनकल्प और स्थाविरकल्प ऐसी दो व्यवस्थायें स्वीकृत हो चुकी थी। वस्तुत: यह द्विस्तरीय आचार व्यवस्था इसलिए भी आवश्यक हो गई थी कि जिनकल्प का पालन करते हुए आत्मसाधना तो सम्भव थी,किन्तु संघीय व्यवस्थाओं से और विशेष रूप से समाज से जुड़कर जैन धर्म के प्रसार और प्रचार का कार्य जिनकल्प जैसी कठोर आचारचर्या द्वारा सम्भव नहीं था। अत: मुनिजन अपनी सुविधा के अनुरूप स्थविरकल्प और जिनकल्प में से किसी एक का पालन करते थे। फिर भी इस द्विस्तरीय आचार-व्यवस्था के परिणामस्वरूप संघ में वैमनस्य की स्थिति का निर्माण नहीं हो पाया था। आर्य महागिरि और आर्य सुहिस्त के काल तक संघ में द्विस्तरीय आचार-व्यवस्था होते हुए भी सौहाद्र बना रहा,किन्तु कालान्तर में यह स्थिति सम्भव नहीं रह पाई। जहाँ जिनकल्पी अपनी कठोर आचार के कारण श्रद्धा के केन्द्र थे वहीं दूसरी ओर स्थाविरकल्पी संघ या समाज से Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जुड़े होने के कारण उस पर अपना वर्चस्व रख रहे थे। आगे चलकर वर्चस्व की इस होड़ में जैन धर्म भी दो वर्गों में विभाजित हो गया, जो श्वेताम्बर और दिगम्बर नाम से कालान्तर में प्रसिद्ध हुए। आचार्य भद्रबाहु के द्वारा रचित 'निशीथ', 'दशाश्रुतस्कन्ध', 'बृहत्कल्प' एवं 'व्यवहार सूत्र' में उत्सर्ग और अपवाद के रूप में अथवा जिनकल्प और स्थविकल्प के रूप में इस द्विस्तरीय आचार-व्यवस्था को स्पष्ट रूप से मान्यता प्रदान की गई है। जहाँ मूल आगम ग्रन्थों में अपवाद के क्वचित ही निर्देश उपलब्ध होते हैं वहाँ इन छेदग्रन्थों में हमें अपवाद- मार्ग की विस्तृत व्याख्या भी प्राप्त होती है। आगे चलकर आर्यभद्र द्वारा रचित नियुक्तियों में जिनभद्रमणि द्वारा रचित 'विशेषावश्यक' आदि भाष्यों में और जिनदासमहत्तर रचित चूर्णियों में इस अपवाद-मार्ग का खुला समर्थन देखा जाता है। यह सत्य है कि कोई भी आचार-व्यवस्था या साधना-पद्धति अपवाद मार्ग को पूरी तरह अस्वीकृत करके नहीं चलती। देश,कालगत परिस्थितियों कुछ ऐसी होती है जिसमें अपवाद को मान्यता देनी पड़ती है किन्तु आगे चलकर अपवाद-मार्ग की यह व्यवस्था सुविधावाद और आचार शौथिल्यता का कारण बनती है जो सुविधा-मार्ग से होती हुई आचार शैथिल्यता की पराकाष्ठा तक पहुँच जाती है। जैन संघ में ऐसी परिस्थितियाँ अनेक बार उत्पन्न हुई और उसके लिए समय-समय पर जैनाचार्यों की धर्मक्रान्ति या क्रियोद्वार करना पड़ा। - आचार-व्यवस्था को लेकर विशेष रूप से सचेल और अचेल साधना के सन्दर्भ में प्रथम विवाद वी.नि.सं. ६०६ या ६०९ तद्नुसार विक्रम की प्रथम-द्वितीय शताब्दी में हुआ। यह विवाद मुख्यता आर्य शिवभूति और आर्य कृष्ण के मध्य हुआ था। जहाँ आर्य शिवभूति ने अचेल पक्ष को प्रमुखता दी, वहीं आर्य कृष्ण सचेल पक्ष के समर्थक रहे। आर्य शिवभूति की आचार क्रान्ति के परिणामस्वरूप उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ में बोटिक या यापनीय परम्परा का विकास हुआ जिसने आगमों और स्त्रीमुक्ति को स्वीकार करते हुए भी यह माना कि साधना का उत्कृष्ट मार्ग तो अचेल धर्म ही है। लोगों के भावनात्मक और आस्थापरक पक्ष को लेकर महावीर के पश्चात कालान्तर में जैन धर्म में मूर्तिपूजा का विकास हुआ। यद्यपि महावीर के निर्वाण के १५० वर्ष के पश्चात से ही जैन धर्म में मूर्तिपूजा के प्रमाण मिलने प्रारम्भ हो जाते हैं। लोहानीपुर पटना से मिली जिन प्रतिमाएँ और कंकाली टीला मथुरा से मिली जिन प्रतिमायें इस तथ्य के प्रबल प्रमाण है कि ईसा पूर्व ही जैनों में मूर्तिपूजा की परम्परा अस्तित्व में आ गई थी। यहाँ हम मूर्तिपूजा सम्बन्धी पक्ष-विपक्ष की इस चर्चा में न पडकर तटस्थ दृष्टि से यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि कालक्रम से जैन धर्म की मूर्ति पूजा में अन्य परम्पराओं 49 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के प्रभाव से कैसे-कैसे परिवर्तन हुए और उसका मुनि वर्ग के जीवन पर क्या और कैसा प्रभाव पड़ा? मन्दिर और मूर्तियों के निर्माण के साथ ही जैन साधुओं की आचार शैथिल्य को तेजी से बढ़ावा मिला तथा श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में मठ या चैत्यवासी और वनवासी ऐसी दो परम्पराओं का विकास हुआ। मन्दिर और मूर्ति के निर्माण तथा उसकी व्यवस्था हेतु भूमिदान आदि भी प्राप्त होने लगे और उनके स्वामित्व का प्रश्न ही खड़ा होने लगा। प्रारम्भ में जो दान सम्बन्धी अभिलेख या ताम्र पत्र मिलते हैं उनमें दान मन्दिर, प्रतिमा या संघ को दिया जाता था- ऐसे उल्लेख है। लेकिन कालान्तर में आचार्यों के नाम पर दान पत्र लिखे जाने लगे। परिणामस्वरूप मुनिगण न केवल चैत्यवासी बन बैठे अपितु वे मठ, मन्दिर आदि की व्यवस्था से जुड़ गये। सम्भवत: यही कारण रहा है कि दान आदि उनके नाम से प्राप्त होने लगे। इस प्रकार मुनि जीवन में सुविधावाद और आचार शैथिल्य का विकास हुआ। आचार शैथिल्य ने श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में अपना आधिपत्य कर लिया। श्वेताम्बर में यह चैत्यवासी यति परम्परा के रूप में और दिगम्बर में षठवासी भट्टारक परम्परा के रूप में विकसित हुई। यद्यपि इस परम्परा ने जैन धर्म एवं संस्कृति को बचाये रखने में तथा जैन विद्या के सरंक्षण और समाज सेवा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण कार्य किया। चिकित्सा के क्षेत्र में भी जैन यतियों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा, किन्तु दूसरी ओर सुविधाओं के उपयोग, परिग्रह के संचयन ने उन्हें अपने श्रवण जीवन से च्युत भी कर दिया। इस परम्परा के विरोध में दिगम्बर आचार्य कन्दकन्द ने लगभग ६ठीं शती में और श्वेताम्बर आचार्य हरिभद्र ने ८वीं शती में क्रान्ति के स्वर मुखर लिये। आचार्य कुन्दकुन्द के द्वारा जो क्रान्ति की गई वह मुख्य रूप से परम्परागत धर्म के स्थान पर आध्यात्मिक धर्म के सन्दर्भ में थी। यद्यपि उन्होंने 'अष्टपाहुड' में विशेष रूप से 'चारित्रपाहुड', 'लिंगपापुड' आदि में आचार शैथिल्य के सन्दर्भ में भी अपने स्वर मुखरित किये थे, किन्तु ये स्वर अनसुने ही रहे, क्योंकि परवर्ती काल में भी यह भट्टारक परम्परा पुष्ट ही होती रही। आचार्य कुन्दकुन्द के पश्चात उनके ग्रन्थों के प्रथम टीकाकार आचार्य अमृतचन्द ने जैन संघ को एक आध्यात्मिक दृष्टि देने का प्रयत्न किया जिसका समाज पर कुछ प्रभाव पड़ा किन्तु भट्टारक परम्परा की यथावत रूप में महिमामंडित होती रहा। इसी प्रकार श्वेताम्बर परम्परा में भी सुविहिनमार्ग, संविप्नपक्ष आदि के रूप में यदि परम्परा के विरोध में स्वर मुखरित हए और खरतरगच्छ, तपागच्छ आदि अस्तित्व में भी आये, किन्तु ये सभी यति परम्परा के प्रभाव से अपने को अलिप्त नहीं रख सके। श्वेताम्बर परम्परा में ८वीं शती से चैतन्यवास का विरोध प्रारम्भ हुआ था। आचार्य 50 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिभद्र ने अपने ग्रन्थ 'सम्बोधनप्रकरण' के द्वितीय अध्याय में इन चैत्यवासी यतियों के क्रियाकलापों एवं आचार शैथिल्य पर तीखे व्यंग्य किये और उनके विरूद्ध क्रान्ति का शंखनाद किया, किन्तु युगीन परिस्थितियों के परिणामस्वरूप हरिभद्र की क्रान्ति के ये स्वर भी अनसुने ही रहे। यति वर्ग सुविधावाद, परिग्रह संचय आदि की प्रवृत्तियों में यथावत जुड़ा रहा। हमें ऐसा कोई भी साक्ष्य उपलब्ध नहीं होता जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि आचार्य हरिभद्र की इस क्रान्तिधर्मिता के परिणामस्वरूप चैत्यवासी यतियों पर कोई व्यापक प्रभाव पड़ा हो। श्वेताम्बर परम्परा में चैत्यवास का स्वबल विरोध चन्द्रकुल के आचार्य वर्धमान सुरि ने किया। उन्होंने ने चैत्यवास के विरूद्ध सर्वप्रथम सुविहित मुनि परम्परा की पुन: स्थापना की। यह परम्परा आगे चलकर खरतरगच्छ के नाम से विख्यात हुई। इनका काल लगभग ११वीं शताब्दी माना जाता है। यद्यपि सुविहित मार्ग की स्थापना से आगम पर आधारित मुनि आचार-व्यवस्था को नया जीवन तो प्राप्त हुआ, किन्तु यदि परम्परा नामशेष नहीं हो पाई। अनेक स्थलों पर श्वेताम्बर यतियों का इतना प्रभाव था कि उनके अपने क्षेत्रों में किसी अन्य सुविहित मुनि का प्रवेश भी सम्भव नहीं हो पाता था। चैत्यवासी यति परम्परा तो नामशेष नहीं हो पाई, अपितु हुआ यह कि उस यति परम्परा के प्रभाव से संविग्न मुनि परम्परा पुनः पुन: आक्रान्त होती रही और समय-समय पर पुनः क्रियोद्वार की आवश्यकता बनी रही। इस प्रकार हम देखते हैं कि श्वेताम्बर परम्परा में प्रत्येक सौ-डेढ.सौ वर्ष के पश्चात् पुनः पुनः आचार शैथिल्य के विरूद्ध और संविग्न मार्ग की स्थापना के निमित्त धर्म क्रान्तियाँ होती रही। खरतरगच्छ की धर्मक्रान्ति के पश्चात अंचलगच्छ एवं तपागच्छ के आचार्यों द्वारा पुनः क्रियोद्धार किया गया और आगम अनुकूल मुनि आचार की स्थापना के प्रयत्न वि.सं. १९६९ में आचार्य आर्यरक्षित (अंचलगच्छ) तथा वि.सं. १२८५ में आचार्य जगच्चन्द्र (तपागच्छ) के द्वारा किया गया। इसी तरह एक अन्य प्रयत्न वि.सं. १२१४ या १२५० में आगमिकगच्छ एवं तपागच्छ की स्थापना के रूप में हुआ। आगमिकगच्छ ने न केवल चैत्यवास एवं यक्षयक्षी की पूजा का विरोध किया, अपितु सचित द्रव्यों से जिन-प्रतिमा की पूजा का भी विरोध किया। यहाँ हम देखते हैं कि दिगम्बर परम्परा में जहाँ बनारसीदास आदि के प्रभाव से लगभग १६वीं शती में सचित्त द्रव्य से पूजन का विरोध हुआ, वहीं श्वेताम्बर परम्परा में दो शती पूर्व ही इस प्रकार का विरोध जन्म ले चुका था। यद्यपि आगमिकगच्छ अधिक जीवंत नहीं रह पाया और कालक्रम से उसका अन्त भी हो गया, फिर भी खरतरगच्छ, तपागच्छ और अंचलगच्छ अपने प्रभाव के कारण अस्तित्व में बने रहे। किन्तु ये तीनों परम्परायें भी चैत्यवासी-यतिवासी परम्परा से अप्रभावित नहीं रह सकीं। 51 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिस संविग्न मुनि परम्परा को पुनर्जीवित करने के लिए जो ये परम्परायें अस्तित्व में आई थी, वे अपने उस कार्य में सफल नहीं हो सकी। खरतरगच्छ, अंचलगच्छ और यहाँ तक कि तपागच्छ में भी यतियों का वर्चस्व स्थापित हो गया। मात्र यही नहीं मन्दिर और मूर्ति सम्बन्धी आडम्बर बढ़ता ही गया और श्रमण वर्ग जिसका लक्ष्य आत्मा-साधना था, वह इन कर्मकाण्डों का पुरोहित होकर रह गया। तप और त्याग के द्वारा आत्मविशुद्धि का मार्ग मात्र आगमों में ही सीमित रह गया। यथार्थ जीवन से उनका कोई सम्बन्ध नहीं रह पाया। ऐसी स्थिति में पुन: एक समय क्रान्ति की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी। चैत्यवास का विरोध और संविग्न सम्प्रदायों का आविर्भाव जैन परम्परा में परिवर्तन की लहर पुनः सोलहवीं शताब्दी में आई। जब अध्यात्मप्रधान जैन धर्म का शुद्ध स्वरूप कर्मकाण्ड के घोर आडम्बर के आवरण में धूमिल हो रहा था और मुस्लिम शासकों के मूर्तिभजक स्वरूप से मूर्तिपूजा के प्रति आस्थाएँ विचलित हो रही थी, तभी मुसलमानों की आडम्बर रहित सहज धर्म साधना ने हिन्दुओं की भाँति जैनों को भी प्रभावित किया। हिन्दू धर्म में अनेक निर्गुण भक्तिमार्गी सन्तों के आविर्भाव के समान ही जैन धर्म में भी ऐसे सन्तों का आविर्भाव हुआ जिन्होंने धर्म के नाम पर कर्मकाण्ड और आडम्बरयुक्त पूजा पद्धति का विरोध किया। फलतः जैन धर्म की श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों ही शाखाओं में सुधारवादी आन्दोलन का प्रादूर्भाव हुआ। इनमें श्वेताम्बर परम्परा में लोकाशाह और दिगम्बर परम्परा में सन्त तारणस्वामी तथा बनारसीदास प्रमुख थे। यद्यपि बनारसीदास जन्मना श्वेताम्बर परम्परा के थे, किन्तु उनका सुधारवादी आन्दोलन दिगम्बर परम्परा से सम्बन्धित था। लोकाशाह ने श्वेताम्बर परम्परा में मूर्तिपूजा तथा धार्मिक कर्मकाण्ड और आडम्बरों का विरोध किया। इनकी परम्परा आगे चलकर लोकागच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुई। इसी से आगे चलकर सत्रहवीं शताब्दी में श्वेताम्बर स्थानकवासी परम्परा विकसित हुई। जिसका पुनः एक विभाजन १८वीं शती में शुद्ध निवृत्तिमार्गी जीवनदृष्टि एवं अहिंसा की निषेधात्मक व्याख्या के आधार पर श्वेताम्बर तेरापंथ के रूप में हुआ। दिगम्बर परम्परा में बनारसीदास ने भट्टारक परम्परा के विरूद्ध अपनी आवाज बुलन्द की और सचित्त द्रव्यों से जिन-प्रतिमा के पूजन का निषेध किया, किन्तु ताराणस्वामी तो बनारसीदास से भी एक कदम आगे थे। उन्होंने दिगम्बर परम्परा में मूर्तिपूजा का निषेध कर दिया। मात्र यही नहीं, उन्होंने धर्म के आध्यात्मिक स्वरूप की 52 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनः प्रतिष्ठा की। बनारसीदास की परम्परा जहाँ दिगम्बर तेरापंथ के नाम से विकसित हुई, वही तारणस्वामी का वह आन्दोलन तारणपंथ या समैया के नाम से पहचाना जाने लगा। तारणतंथ के चैत्यालयों में मूर्ति के स्थापन पर शास्त्र की प्रतिष्ठा की गई। इस प्रकार सोलहवीं शताब्दी में जैन परम्परा में इस्लाम धर्म के प्रभाव के फलस्वरूप एक नया परिवर्तन आया और अमूर्तिपूजक सम्प्रदायों का जन्म हुआ फिर भी पुरानी परम्पराएँ यथावत चलती रही। एक ओर अध्यात्म साधना, जो श्रमण संस्कृति की प्राण थी वह तत्कालीन यतियों के जीवन में कहीं भी दिखाई नहीं पड़ रही थी। धर्म कर्मकाण्ड से इतना बोझल बन गया था कि उसकी अन्तरात्मा दब- सी गई थी। धर्म का सहज, स्वाभाविक स्वरूप विलुप्त हो रहा था और उसके स्थान पर धार्मिक कर्णकाण्डों के रूप में धर्म पर सम्पत्तिशाली लोगों का वर्चस्र बढ़ रहा था। धर्म के नाम पर केवल ऐहिक हितों की सिद्धि ही प्रयत्न हो रहे थे। दूसरी ओर इस्लाम के देश में सुस्थापित होने के परिणामस्वरूप एक आडम्बर विहीन सरल और सहज धर्म का परिचय जनसाधारण को प्राप्त हुआ । तीसरी ओर मन्दिर और मूर्ति जिस पर उस समय का धर्म अधिष्ठित था, मुस्लिम आक्रान्ताओं द्वारा ध्वस्त किये जा रहे थे। ऐसी स्थिति में जनसाधारण को एक अध्यात्मपूर्ण, तप और त्यागमय, सरल, स्वाभाविक, आडम्बर और कर्मकाण्ड विहीन धर्म की अपेक्षा थी, जो मुस्लिम आक्रान्ताओं के द्वारा ध्वस्त उसके श्रद्धा केन्द्रों से उद्वेलित उसकी आत्मा को सम्यक आधार दे सकें। अमूर्तिपूजक परम्पराओं का उद्धव विक्रम की प्रथम सहस्त्राब्दी पूर्ण होते-होते इस देश पर मुस्लिम आक्रमण प्रारम्भ हो चुका था। उस समय मुस्लिम आक्रान्ताओं का लक्ष्य मात्र भारत से धन-सम्पदा को लूटकर ले जाना था, किन्तु धीरे-धीरे भारत की सम्पदा और उसकी उर्वर भूमि उनके आकर्षण का केन्द्र बनी और उन्होंने अपनी सत्ता को यहाँ स्थापित करने का प्रयत्न किया। सत्ता के स्थापना के साथ ही इस्लाम ने भी इस देश की मिट्टी पर अपने पैर जमाने प्रारम्भ कर दिये थे। यद्यपि मुस्लिम शासक भी एक-दूसरे को उखाड़ने में लगे हुए थे। एक ओर हुमायूँ और शेरशाह सूरि का संघर्ष चल रहा था, तो दूसरी ओर दिल्ली में मुस्लिम शासकों के वर्चस्व के कारण इस्लाम अपने पैर इस धरती पर जमा रहा था। मुस्लिम शासकों का लक्ष्य भी सत्ता और सम्पत्ति के साथ-साथ अपने धर्म की स्थापना बन गया था, क्योंकि वे जानते थे कि उनकी सल्तनत तभी कायम रह सकती है जब 53 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस देश में इस्लाम की सत्ता स्थापित हो । अतः मुस्लिम शासकों ने इस देश में इस्लाम को फैलाने और अपने पैर जमाने के लिए पर्याप्त सुविधाएँ प्रदान की । इस्लाम की स्थापना और उसके पैर जमने के साथ ही उसका सम्पर्क अन्य भारतीय परम्पराओं से हुआ। भारतीय चिन्तकों ने इस्लाम के सांस्कृतिक और धार्मिक पक्ष पर ध्यान देना प्रारम्भ किया। फलतः भारतीय जनमानस ने यह पाया कि इस्लाम कर्मकाण्ड से मुक्त एक सरल और सहज उपासना विधि है। इस पारम्परिक सम्पर्क के परिणामस्वरूप देश में एक ऐसी सन्त परम्परा का विकास हुआ जिसने हिन्दू धर्म को कर्मकाण्डों से मुक्त कर एक सहज उपासना पद्धति प्रदान की । हम देखते हैं कि १४वीं, १५वीं और १६वीं शताब्दी में इस देश में निर्गुण उपासना पद्धति का न केवल विकास हुआ, अपितु वह उपासना की एक प्रमुख पद्धति बन गई। उस युग में भारतीय जनमानस कठोर जातिवाद और वर्णवाद से तो ग्रसित था ही साथ ही, धर्म के क्षेत्र में कर्मकाण्ड का प्रभाव इतना हो गया था कि धर्म में से आध्यात्मिक पक्ष गौण हो गया था और मात्र कर्मकाण्डों की प्रधानता रह गई थी। एक ओर धर्म का सहज आध्यात्मिक स्वरूप विलुप्त हो रहा था तो दूसरी ओर धार्मिक मतान्धता और सत्ता बल को पाकर मुस्लिम शासक देश भर में मन्दिरों, मूर्तियों को तोड़ रहे थे और मन्दिरों की सामग्री से मस्जिदों का निर्माण कर रहे थे। इसका परिणाम यह हुआ कि मन्दिरों और मूर्तियों पर से लोगों की आस्था घटने लगी । मन्दिरों और मूर्तियों के विषय में जो महत्त्वपूर्ण किंवदंतियाँ प्रचलित थी वह आँखों के सामने ही धूलधूसरित हो रही थी। मुस्लिम धर्म की सहज और सरल उपासना-पद्धति भारतीय जनमानस को आकर्षित कर रही थी। इस सबके परिणामस्वरूप भारीतय धर्मों में मूर्तिपूजा और कर्मकाण्ड के प्रति एक विद्रोह की भावना जागृत हो रही थी। अनेक सन्त यथा- कबीर, दादू, नानक, रैदास आदि हिन्दू धर्म में क्रान्ति का शंखनाद कर रहे थे। धर्म के नाम पर प्रचलित कर्मकाण्ड के प्रति लोगों के मन में समर्थन का भाव कम हो रहा था। यही कारण है कि इस काल में भारतीय संस्कृति में अनेक ऐसे महापुरुषों ने जन्म लिया जिन्होंने धर्म को कर्मकाण्ड से मुक्त कराकर लोगों को एक सरल, सहज और आडम्बर विहीन साधना पद्धति दी। जैन धर्म भी इस प्रभाव से अछूता नहीं रह सका । गुप्तकाल जैन धर्म में चैत्यवास के प्रारम्भ के साथ-साथ कर्मकाण्ड की प्रमुखता बढ़ती गई थी । कर्मकाण्डों के शिकंजे में धर्म की मूल आत्मा मर चुकी थी। धर्म पंडों और पुरोहितों द्वारा शोषण का माध्यम बन गया था। सामान्य जनमानस खर्चीले, आडम्बरपूर्ण आध्यात्मिकता से शून्य 54 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मकाण्ड को अस्वीकार कर रहे थे। ऐसी स्थिति में जैन धर्म के दोनों ही प्रमुख सम्प्रदायों में तीन विशिष्ट पुरुषों ने जन्म लिया। श्वेताम्बर परम्परा में लोकाशाह और दिगम्बर परम्परा में बनारसीदास तथा तारणस्वामी । एक ओर मन्दिर और मूर्तियों को तोड़ा जाना और देश पर मुस्लिम शासकों का प्रभाव बढ़ना, दूसरी ओर कर्मकाण्ड से मुक्त सहज और सरल इस्लाम धर्म से हिन्दू और जैन मानस का प्रभावित होना, जैन धर्म में इन अमूर्तिपूजक धर्म - सम्प्रदायों की उत्पत्ति का किसी सीमा तक कारण माना जा सकता है। लोकाशाह का जन्म वि.सं. १४७५ के आसपास हुआ। यद्यपि उस काल तक मुस्लिमों का साम्राज्य तो स्थापित नही हो सका था, किन्तु देश के अनेक भागों में धीरे-धीरे मुस्लिम शासकों ने अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया था। गुजरात भी इससे अछूता नहीं था। इस युग की दूसरी विशेषता यह थी कि अब तक इस देश में स्थापित मुस्लिम शासक साम्राज्य का स्वप्न देखने लगे थे, किन्तु उसके लिए आवश्यक था भारत की हिन्दू प्रजा को अपने विश्वास में लेना। अतः मोहम्मद तुगलक, बाबर, हुमायूँ आदि ने इस्लाम के प्रचार और प्रसार को अपना लक्ष्य रखकर भी हिन्दुओं को प्रशासन में स्थान देना प्रारम्भ किया, फलतः हिन्दू सामन्त और राज्य कर्मचारी राजा के सम्पर्क में आये। फलतः पर कर्मकाण्डमुक्त जाति-पाति के भेद से रहित और भातृ-भाव से पूरित इस्लाम का अच्छा पक्ष भी उनके सामने आया जिसने यह चिन्तन करने पर बाध्य कर दिया कि यदि हिन्दू धर्म या जैन धर्म को बचाये रखना है तो उसको कर्मकाण्ड से मुक्त करना आवश्यक है। इसी के परिणामस्वरूप जैन परम्परा में अमूर्तिपूजक सम्प्रदायों का न केवल उद्धव हुआ, अपितु अनुकूल अवसर को पाकर वह तेजी से विकसित भी हुई। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में स्थानकवासी परम्परा का और दिगम्बर सम्प्रदाय में ताराणपंथ के उदय के नेपथ्य में इस्लाम की कर्मकाण्ड मुक्त उपासना पद्धति का प्रभाव दिखता है । यद्यपि जैन धर्म की पृष्ठभूमि भी कर्मकाण्ड मुक्त ही रही है, अतः यह स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता है कि इन दो सम्प्रदायों की उत्पत्ति के पीछे मात्र इस्लाम का ही पूर्ण प्रभाव था । परम्परा के अनुसार यह मान्यता है कि लोकाशाह की मुस्लिम शासन ने न केवल अपने खजांची के रूप में मान्यता दी थी, अपितु उनके धार्मिक आन्दोलन को एक मूक स्वीकृति तो प्रदान की थी, लोकाशाह का काल मोहम्मद तुगलक की समाप्ति के बाद शेरशाह सूरि और बाबर का सत्ताकाल था । मुस्लिम बादशाह से अपनी आजीविका पाने के साथ-साथ हिन्दू अधिकारी मुस्लिम धर्म और संस्कृति से प्रभावित हो रहे थे। ऐसा लगता है कि अहमदाबाद के मुस्लिम शासक के साथ काम करते हुए उनके धर्म की 55 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अच्छाइयों का प्रभाव भी लोकाशाह पर पड़ा। दूसरी ओर उस युग में हिन्दू-धर्म के समान जैन धर्म भी मुख्यत: कर्मकाण्डी हो गया था। धीरे-धीरे उसमें से धर्म का आध्यात्मिक पक्ष विलुप्त होता जा रहा था। चैत्यवासी यति कर्मकाण्ड के नाम पर अपनी आजीविका को संबल बनाने के लिए जनमानस का शोषण कर रहे थे। अपनी अक्षरों की सुन्दरता के कारण लोकाशाह को जब प्रतिलिपि करते समय आगम ग्रन्थों के अध्ययन का मौका मिला तो उन्होंने देखा कि आज जैन मुनियों के आचार में भी सिद्धान्त और व्यवहार में बहुत बड़ी खाई आ गई है। साधकों के जीवन में आई सिद्धान्त और व्यवहार की यह खाई जनसामान्य की चेतना में अनेक प्रश्न खड़े कर रही थी। लोकाशाह के लिए यह एक अच्छा मौका था कि वे कर्मकाण्ड से मुक्त और आध्यात्मिक साधना से युक्त किसी धर्म परम्परा का विकास कर सकें। लोकाशाह पूर्व जैन संघ की क्या स्थिति थी? इस सम्बन्ध में थोड़ा विचार पूर्व में कर चुके हैं। लोकाशाह के पूर्व १४वीं, १५वीं शती में जैन संघ मुख्य रूप से तीन सम्प्रदायों में विभक्त था-श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय। इसमें भी लगभग ५वीं शती में अस्तित्व में आई यापनीय परम्परा अब विलुप्ति के कगार पर थी। एक-दो भट्टारक गद्दियों के अतिरिक्त स्वतन्त्र रूप से उसका कोई अस्तित्व नहीं रह गया था। अत: मूलत: श्वेताम्बर और दिगम्बर ये दो परम्परायें ही अस्तित्व में थी। जहाँ तक दिगम्बर परम्परा का प्रश्न है तो उस काल में मुनि और आर्या संघ का कोई अस्तित्व नहीं रह गया था। मात्र भट्टारकों की ही प्रमुखता थी, किन्तु भट्टारक त्यागी वर्ग के प्रतिनिधि होकर भी मुख्यत: मठवासी बने बैठे थे। मठ की सम्पत्ति की वृद्धि और उसका संरक्षण उनका प्रमुख कार्य रह गया था। उत्तर भारत और दक्षिण भारत दोनों में ही स्थान-स्थान पर भट्टारकों की गद्दियाँ थी और धीरे-धीरे सामान्तों की तरह ये भी अपने क्षेत्रों और अनुयायियों पर अपना शासन चला रहे थे। भट्टारकों में भी अनेक संघ यथा- काष्ठा. माथुर, मूल, लाड़वागढ़, द्रविड़ आदि थे। जो कि कुछ गण या गच्छों में विभाजित थे। जहाँ तक श्वेताम्बर परम्परा का प्रश्न है उसमें संविग्न और सुविहित मुनियों का पूर्ण अभाव तो नहीं हुआ था, फिर भी चैत्यवासी यतियों की ही प्रमुखता थी। समाज पर वर्चस्व यति वर्ग का ही था और उनकी स्थिति भी मठवासी भट्टारकों के समान ही थी। धार्मिक क्रियाकाण्डों के साथ यति वर्ग मन्त्र-तन्त्र और चिकित्सा आदि से जुड़ा हुआ था। यह मात्र कहने की दृष्टि से ही त्यागी वर्ग कहा जाता है। वस्तुत: आचार की अपेक्षा से उनके पास उस युग के अनुरूप भोग की सारी सुविधायें उपलब्ध होती थी। यति वर्ग इतना प्रभावशाली था कि वे अपने प्रभाव से संविग्न एवं सुविहित मुनियों को अपने 56 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्चस्व क्षेत्र में प्रवेश करने में भी रोक देते थे। इस्लाम के प्रभाव के साथ-साथ भट्टारकों एवं यतियों के आचार शैथिल्य एवं धर्माचरण के क्षेत्र में कर्मकाण्डों का वर्चस्व ऐसी स्थितियाँ थी कि जिसने लोकाशाह को धर्मक्रान्ति हेतु प्रेरणा दी। लोकाशाह ने मूर्तिपूजा, कर्मकाण्ड और आचार शैथिल्य का विरोध कर जैन धर्म को एक नवीन दिशा दी। उनकी इस साहसपूर्ण धर्मक्रान्ति का प्रभाव यह हुआ कि प्राय: सम्पूर्ण उत्तर-पश्चिम भारत में लाखों की संख्या में उनके अनुयायी बन गये। कालान्तर में उनके अनुयायियों का यह वर्ग गुजराती लोकागच्छ, नागौरी लोकागच्छ और लाहौरी लोकागच्छ के रूप में तीन भागों में विभाजित हो गया, किन्तु श्वेताम्बर मूर्तिपूजक यति परम्परा के प्रभाव से शनैः शनै: आचार शैथिल्य की ओर बढ़ते हुए इसने पुन: यदि परम्परा का रूप ले लिया फलत: लोकाशाह की धर्मक्रान्ति के लगभग १५० वर्ष पश्चात् पुन: एक नवीन धर्मक्रान्ति की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी। इसी लोकागच्छ यति परम्परा में से निकल कर जीवराजजी, लवजीऋषिजी, धर्मसिंहजी, धर्मदासजी, मनोहरदासजी, हरजीस्वामीजी आदि ने पुनः एक धर्मक्रान्ति का उद्घोष किया और आगमसम्मत मुनि आचार पर विशेष बल दिया, फलतः स्थानकवासी सम्प्रदाय का उदय हुआ। स्थानकवासी परम्परा का उद्धव एवं विकास किसी एक व्यक्ति से एक ही काल में नहीं हुआ, अपितु विभिन्न व्यक्तियों द्वारा अलग-अलग समय में हुआ अतः विचार और आचार के क्षेत्र में मतभेद बने रहे। जिसका परिणाम यह हुआ कि यह सम्प्रदाय अपने उदय काल में ही अनेक उपसम्प्रदायों में विभाजित रहा। १७वीं शताब्दी में इसी स्थानकवासी सम्प्रदाय से निकल कर रघुनाथजी के शिष्य भीखणजी स्वामी ने श्वेताम्बर तेरापंथ की स्थापना की। इनके स्थानकवासी परम्परा से पृथक होने के मूलत: दो कारण रहे- एक ओर स्थानकवासी परम्परा के साधुओं ने भी यति परम्परा के समान ही अपनी-अपनी परम्परा के स्थानकों को निर्माण करवाकर उनमें निवास करना प्रारम्भ कर दिया तो दूसरी ओर भीखणजी स्वामी का आग्रह यह रहा कि दया व दान की ये सभी प्रवृत्तियाँ जो सावध है और जिनके साथ किसी भी रूप में हिंसा जुड़ी हुई है, चाहे वह हिंसा एकेन्द्रिय जीवों की हो, धर्म नहीं मानी जा सकती। कालान्तर में आचार्य भीखणजी का यह सम्प्रदाय पर्याप्त रूप से विकसित हुआ और आज जैन धर्म के एक प्रबुद्ध सम्प्रदाय के रूप में जाना पहचाना जाता है। इसे तेरापंथ के नवें आचार्य तुलसीजी और दसवें आचार्य महाप्रज्ञजी ने नई ऊँचाइयाँ दी है। 57 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी और तेरापंथ के उदय के पश्चात क्रमश: बीसवीं शती के पूर्वार्द्ध, मध्य और उत्तरार्द्ध में विकसित जैन धर्म के सांस्कृतिक इतिहास की दृष्टि से जो तीन परम्पराएँ अति महत्त्वपूर्ण है, उनमें श्रीमद् राजचन्द्र की अध्यात्मप्रधान परम्परा में विकसित 'कविपंथ', स्थानकवासी परम्परा से निकलकर बनारसीदास के दिगम्बर तेरापंथ को नवजीवन देने वाले कानजीस्वामी का निश्चयनय प्रधान 'कानजी पंथ' तथा गुजरात के ए.एम. पटेल के द्वारा स्थापित दादा भगवान का सम्प्रदाय मुख्य है। यद्यपि ये तीनों सम्प्रदाय मूलत: जैन धर्म की आध्यात्मप्रधान दृष्टि को लोकर ही विकसित हुए। श्रीमद् राजचन्द्रजी जिन्हें महात्मा गाँधी ने गुरु का स्थान दिया था, जैन धर्म में किसी सम्प्रदाय की स्थापना की दृष्टि से नहीं, मात्र व्यक्ति के आध्यात्मिक जागरण की उपेक्षा से जनसाधारण की जैन धर्म के आध्यात्मक प्रधान सारभूत तत्त्वों का बोध दिया। श्रीमद राजचन्द्र आध्यात्मिक प्रज्ञासम्पन्न आशु कवि थे। अत: उनका अनुयायी कविपंथ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। कानजीस्वामी कुन्दकुन्द के 'समयसार' आदि ग्रन्थों का अध्ययन कर बनारसीदास और श्रीमद् राजचन्द्र की अध्यात्मक प्रधान दृष्टि को ही जन-जन में प्रसारित करने का प्रयत्न किया, किन्तु वहाँ श्रीमद् राजचन्द्र ने निश्चय और व्यवहार दोनों पर समान बल दिया वहाँ कानजी स्वामी की दृष्टिकोण मूलत: निश्चय प्रधान रहा। दोनों की विचारधाराओं में यही मात्र मौलिक अन्तर माना जा सकता है। व्यक्ति की आन्तरिक विशुद्धि और आध्यात्मिक विकास दोनों का ही मूल लक्ष्य है। ऐसा कहा जाता है कि श्री एम.के. पटेल को सन् १९५७ में ज्ञान का प्रकाश मिला और उन्होंने भी अपने उपदेशों के मध्यम से व्यक्ति के आन्तरिक विकारों की विशद्धि पर ही विशेष बल दिया। फिर भी जहाँ कानजीस्वामी ने क्रमबद्ध पर्याय की बात कही वहाँ श्री एम.के. पटेल जो आगे चलकर दादा भगवान के नाम से प्रसिद्ध हुए ने अक्रम विज्ञान की बात कही। अक्रम विज्ञान का मूल अर्थ केवल इतना ही है कि आध्यात्मिक प्रकाश की यह घटना कभी भी घटित हो सकती है। आध्यात्मिक बोध कोई यांत्रिक घटना नहीं है। वह प्राकृतिक निमयों से भी ऊपर है। दादा भगवान की परम्परा का वैशिष्टय यह है कि उन्होंने अध्यात्मक के क्षेत्र में जैन एवं हिन्दू परम्परा की समरूपता का अनुभव किया और इसी आधार पर जहाँ तीर्थंकर परमात्मा की आराधना को लक्ष्य बनाया वहीं वासदेव और शिव को भी अपने आराध्य के रूप में स्वीकार किया। इस प्रकार उनकी परम्परा हिन्दू और जैन अध्यात्म का एक मिश्रण है। २०वीं शती में विकसित इन तीनों परम्पराओं का वैशिष्टय यह है कि वे विकास पर सर्वाधिक बल देती है। उनकी दृष्टि में आचार शुद्धि में पूर्व विचार शुद्धि या दृष्टि शुद्धि आवश्यक है। इन नवीन पृथक भूत 58 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्पराओं के अतिरिक्त पूर्व प्रचलित परम्पराओं में भी ऐतिहासिक महत्त्व की अनेक घटनाएँ घटित हुई। उनमें एक महत्त्वपूर्ण घटना यह है कि दिगम्बर परम्परा में जो नग्न मुनि परम्परा शताब्दियों से नामशेष या विलुप्त हो चुकी थी, वह आचार्य शान्तिसागरजी से पुनजीवित हुई। आज देश में पर्याप्त संख्या में दिगम्बर मुनि है। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में इस शती में विभिन्न गच्छों और समुदायों के मध्य एकीकरण के प्रयास तो हुए, किन्तु वे अधिक सफल नहीं हो पाये। दूसरे इस शती में चैत्यवासी यति परम्परा प्रायः क्षीण हो गई। कुछ यतियों को छोड़ यह परम्परा नामशेष हो रही है, वहीं संविग्न मुनि संस्था में धीरे-धीरे आचार शैथिल्य में वृद्धि हो रही है और कुछ संविग्न पक्षीय मुनि धीरे-धीरे यतियों के समरूप आचार करने लगे हैं। यह एक विचारणीय पक्ष है। स्थानकवासी समाज की दृष्टि से यह शती इसलिए महत्त्वपूर्ण कही जा सकती है कि इस शती में इस विकीर्ण समाज जोड़ने के महत्त्वपूर्ण प्रयत्न हुए। अजमेर और सादड़ी घाणेराव में दो महत्त्वपूर्ण साधु सम्मेलन हुए जिनकी फलश्रुति के रूप में विभिन्न सम्प्रदाय एक-दूसरे के निकट आई। सादड़ी सम्मेलन में गुजरात और मारवाड़ के कुछ सम्प्रदायों को छोड़कर समस्त स्थानकवासी मुनि संघ वर्द्धमान स्थानकवासी श्रवण संघ के रूप में एक जुट हुआ किन्तु कालान्तर में कुछ सम्प्रदाय पुन: पृथक भी हुए। इस शती में तेरापंथ सम्प्रादय ने जैन धर्म-दर्शन से सम्बन्धित साहित्य का प्रकाशन कर महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। सामान्य रूप से यह शती आध्यात्मिक चेतना की जागृति के साथ जैन साहित्य के लेखन, सम्पादन, प्रकाशन और प्रसार की दृष्टि से अति महत्त्वपूर्ण रही है। साथ ही जैन धर्मानुयायी के विदेश गमन से इसे एक अन्तर्राष्ट्रीय धर्म होने का गौरव प्राप्त हुआ है। ___इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन धर्म की सांस्कृतिक चेतना भारतीय संस्कृति के आदिकाल से लेकर आज तक नवोन्मेष को प्राप्त होती रही है। वह एक गतिशील जीवन्त परम्परा के रूप में देश कालगत परिस्थितियों के साथ समन्वय करते हुए उसने अपनी गतिशीलता का परिचय दिया है। सन्दर्भ १. 'उत्तराध्ययन' २५/२७, २१। २. धम्मपद' ४०१-४०३। ३. 'उत्तराध्ययन' १२/४४। 59 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. 'अंगुत्तरनिकाय', 'सुत्तनिपात', 'उद्धृत्त-भगवान बुद्ध (धर्मानन्द कौसाम्बी), पृ.- २६। ५. 'भगवान बुद्ध' (धर्मानन्द कौसाम्बी) पृ.- २३६-२३९। ६. 'गीता', ४/३३, २६-२८। ७. उत्तराध्ययन' १२/४६। ८. 'उत्तराध्ययन' ९/४०, देखिये- 'गीता' (शा.) ४/२६-२८ ९. 'धम्मपद' १०६। १०. 'सम्बोधप्रकरण', गुर्वाधिकार। 60 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानवता की, प्रेम की, सहजता, सरलता, अनुशासन, स्पष्टवादिता, सौम्यता, संयमता, परोपकारिता, धर्म की गहनता, वाणी में मधुरता, चेहरे पर तेज, संस्कारों की खूशबू से मर्यादित जीवन-यात्रा के मुसाफिर श्री गुलाबचन्द जी झाड़चूर किश Pa IPS | जन्म: 3 अक्टूबर, 1918 • स्वर्गवास : 14 फरवरी, 2007 दुनिया की नज़रों में जीना हमको सीखाया आपने सिखाया हँसना अब रोने को न कहना कम Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धन्य हुई वह पारिवारिक सद्गृहस्थी रूपी बगिया, जिसमें जन्म लिया एक ऐसे फूल ने जिसकी खूशबू से समस्त मानव जगत् महक उठा। धन्य हुई उस माँ की रत्नकुक्षी, जिससे इस गुलाब का जन्म हुआ।धन्य हुए वे पिता, जिन्होंने जन्म दिया ऐसे गुलाब को जिसने पूरे जैन जगत् में अपने गुणों की खूशबू बिखेर दी। जी हाँ, जयपुर की गलियों में पले-बढ़े श्री गुलाबचन्द जी झाड़चूर का जन्म 3 अक्टूबर, 1918 को पिता श्री फूलचन्द झाड़चूर के घर, माता श्रीमती बसन्तीदेवी की रत्नकुक्षी से हुआ। बचपन दिल्ली के मालीवाड़ा में बीता। तत्पश्चात् जोहरी बाजार के सोन्थलीवालों का रास्ता स्थित मकान में बीता। यहीं से आपने अपना जवाहरात का व्यवसाय किया और उसे बुलन्दियों को छुआ। आपका विवाह जैन जगत् के प्रतिष्ठित एवं सुविख्यात श्री राजरूप टाँक की सुपुत्री शान्तिदेवी के साथ हुआथा।आपकी गृहस्थी में सात पुत्र क्रमश: श्री नेमिचन्द जी, रिखबचन्द जी, शीतलचन्द जी, रमेशचन्द जी, सुनीलकुमार जी, श्रीचन्द जी एवं विनयचन्द जी तथा एकबहन एवं चार पुत्रियाँ और आठ पौत्र व एक पौत्री है, सभी सत्संस्कारित। __आप सहजता, सरलता की प्रतिमूर्ति के रूप में विख्यात थे। आपके चेहरे पर कभी शिकन नहीं देखी गयी। क्रोध की कोई लकीर कभी आपके चेहरे पर नहीं देखी गयी। आप आधुनिक विचारधारा के धनी थे। मीडिया, खासतौर पर सामाजिक, धार्मिक मीडिया के प्रबल पक्षधर थे। आप कई समाचार-पत्रों के संरक्षक थे, जो इस बात का परिचायक है कि आप धार्मिक अखबारों को कितना अधिक प्रोत्साहन देते थे। यही परम्परा आज भी आपके परिवार में कायम है। आपके सुपुत्र श्री नेमिचन्द जी स्वयं गुडमॉर्निंग इण्डिया के संस्था संरक्षक हैं, जो इस बात को प्रमाणित करती है कि आपका परिवार धार्मिक अखबारों के प्रोत्साहन के प्रति कितना सजग है। on International Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धार्मिक क्षेत्र में भी आपने अपना लोहा मनवाया। अनेकानेक धार्मिक कार्यक्रमों में आपकी उपस्थिति ही उस कार्यक्रम की सफलता की मोहर लगाती थी। आप कई संस्थाओं से जुड़े रहे, जिनमें ज्वेलर्स एसोसिएशन, कुशल संस्था, श्रीमाल सभा आदि प्रमुख हैं। यही नहीं आप धार्मिक कार्य में व्यस्त रहते और दूसरों को भी धार्मिक राह पर चलने के लिए प्रोत्साहित करते थे। मानव सेवा, जीव दया को आप प्राथमिकता देते थे । आप कभी किसी पर गुस्सा नहीं करते थे । बकौल शीतल जैन (झाड़चूर) नाराज नहीं होना यानी गुस्सा नहीं करना आपकी सबसे बड़ी खासियत थी । आपमें मिलनसारिता एवं स्पष्टवादिता के अलावा भी कई गुण थे | आपने अनेक धार्मिक यात्राएँ कीं । व्यवसायिक क्षेत्र में भी आपने अनेक कीर्तिमान स्थापित किए, जिनमें 31 / 33, खाराकुआँ, मुम्बई -2 में सबसे पहले आपने अपना ऑफिस सन् 1947 में खोला एवं वहाँ पर आपने आढ़त का कार्य चालू किया। आज आपके सुपुत्रगण आपके व्यवसायिक साम्राज्य को आगे बढ़ाने में अग्रणी रहे हैं। अमेरिका, जापान, बैंकाक जैसे दूरस्थ स्थानों पर भी जवाहरात के कार्यालय खोले । जयपुर में विदेशी ग्राहकों को लाने का श्रेय भी आपको ही है। आप न केवल धार्मिक, सामाजिक बल्कि साहित्य के प्रति भी खासी रुचि रखते थे। आपने साहित्य के प्रति अपनी रुचि को निखारते हुए 'रत्नमाला' नामक पुस्तक का भी सम्पादन किया, जो कि पूर्व में दोहों के रूप में लिखित थी, लेकिन आपने उसका सुन्दर सरलीकरण एवं अनुवाद कर पुन: सम्पादित किया, जो जवाहरात के क्षेत्र में आने वाले नये लोगों को Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खासा सम्बल देती है। आप शास्त्रों के अच्छे खासे ज्ञाता थे। चिकित्सा के भी आप अच्छे जानकर थे, खासतौर पर आयुर्वेदिक चिकित्सा का आपको अच्छा खासा ज्ञान था। स्पष्टवादिता आपकी विशेषता थी। ___ सुसंस्कारों के प्रतीक, धर्म और ज्ञान के प्रतीक, सादगी और सरलता के प्रतीक, सामाजिक एकता और समरसता के प्रतीक सबको प्यार, सबसे प्रेम करने वाले श्री गुलाबचन्द जी झाड़चूर का स्वर्गवास भी प्रेम दिवस यानी वेलेंटाइन-डे पर हुआ।आपका निधन सम्पूर्ण जैन समाज का ही नहीं, बल्कि मानव जाति की अपूरणीय क्षति है। आपके परिवारजन ने संकट और दुःख की घड़ी में भी अपना आत्मबल और आपा नहीं खोया और दु:खद स्थिति होने के बावजूद आपके परिजनों ने आपके नेत्रदान किए, जिससे आपकी आँखों की रोशनी से दो अन्धेरी जिन्दगियों में रोशनी कर गयीं। __ आप अपने नाम के ही अनुरूप सामाजिक एकता और प्रेम की खुशबू से समाज को महकाते रहे। आप चले गये, लेकिन संस्कारों का बीजारोपण कर गए, जो आपके परिवार में निरन्तर वृद्धि की ओर अग्रसर रहेगा। आपके बताये मार्ग पर चलकर आपके सिद्धान्तों पर खरा उतरने का प्रयास करना ही आपको सच्ची श्रद्धांजलि होगी। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. सागरमल जैन जन्म जन्म स्थान अकादमिक उपलब्धियाँ : प्रवक्ता म.प्र. शास. शिक्षा सेवा सहायक प्राध्यापक प्राध्यापक (प्रोफेसर) निदेशक, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी लेखन सम्पादन प्रधान सम्पादक सम्प्रति विदेश भ्रमण 4: : पुरस्कार : प्रदीपकुमार रामपुरिया पुरस्कार : स्वामी प्रणवानन्द पुरस्कार डिप्टीमल पुरस्कार आचार्य हस्तीमल स्मृति सम्मान 10 सदस्य : अकादमिक समिति : 40 : दि. 22.02.1932 शाजापुर (म.प्र.) साहित्यरत्न : 1954 एम.ए. (दर्शन शास्त्र) : 1963 पी-एच.डी. : 1969 1964-67 1968-85 1985-89 1979-97 30 पुस्तकें, 60 लघु पुस्तिकाएँ 150 पुस्तकें जैन विद्या विश्वकोष (पार्श्वनाथ विद्यापीठ की महत्वाकांक्षी परियोजना) 'श्रमण' त्रैमासिक शोध पत्रिका 1986, 1998 1987 1992 1994 विद्वत परिषद्, भोपाल विश्वविद्यालय, भोपाल; जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनूं • मानद निदेशक, आगम, अहिंसा, समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर । : • संस्थापक, प्रबंध न्यासी एवं निदेशक प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर (म.प्र.) ' सचिव, प्रबन्ध समिति, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी। शिकागो, राले, ह्यूस्टन, न्यू जर्सी, उत्तरी करोलीना, वाशिंगटन, सेनफ्रांसिस्को, लॉस एंजिल्स, फिनीक्स, सेंट लुईस, पिट्सबर्ग, टोरण्टो, न्यूयार्क, कनाडा और यू. के. । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राच्य विद्यापीठ : एक परिचय डॉ. सागरमल जैन पारमार्थिक शिक्षण न्यास द्वारा सन् 1997 से संचालित प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर आगरा-मुम्बई राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित है। इस संस्थान का मुख्य उद्देश्य भारतीय प्राच्य विद्याओं के उच्च स्तरीय अध्ययन, प्रशिक्षण एवं शोधकार्य के साथ-साथ भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों को पुन: प्रतिष्ठित करना है। इस विद्यापीठ में जैन, बौद्ध और हिन्दू धर्म आदि के लगभग 10,000 दुर्लभ ग्रन्थ उपलब्ध है / इसके अतिरिक्त 700 हस्त लिखित पाण्डुलिपियाँ है। यहाँ 40 पत्र-पत्रिकाएँ भी नियमित आती है। इस परिसर में साधु-साध्वियों, शोधार्थियों और मुमुक्षुजनों के लिए अध्ययन-अध्यापन के साथ-साथ निवास, भोजन आदि की भी उत्तम व्यवस्था है। शोधकार्यों के मार्गदर्शन एवं शिक्षण हेतु डॉ. सागरमलजी जैन का सतत् सानिध्य प्राप्त है। इसे विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन द्वारा शोध संस्थान के रूप में मान्यता प्रदान की गई है। For Printed abAkratiaOffset, OJJAIN Ph. 0734-25617209982767aforg