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वह जैन परम्परा के अनुरुप है। बौद्ध ग्रन्थ 'अगुतरनिकाय' में पूर्वकाल के सात तीर्थंकारों का उल्लेख किया है, उसमें अरक (अर) का भी उल्लेख है। इसी प्रकार 'थेरगाथा' में अजित थेर का उल्लेख है, उन्हें प्रत्येकबुद्ध कहा गया है। फिर भी मध्यवर्ती २२ तीर्थंकरों के सम्बन्ध में ऐतिहासिक साक्ष्य अधिक नहीं है, उनके प्रति हमारी आस्था का आधार जैन आगाम और जैन कथा ग्रन्थ ही हैं। महावीर और आजीवक परम्परा
जैनधर्म के पूर्व-इतिहास की इस संक्षिप्त रूपरेखा देने के पश्चात् जब हम पुनः महावीर के काल की ओर आते हैं तो 'कल्पसूत्र' एवं 'भगवती' में कुछ ऐसे सूचना सूत्र मिलते हैं, जिनके आधार पर ज्ञातपुत्र श्रमण महावीर के पार्श्वपत्यों के अतिरिक्त आजीवकों के साथ भी सम्बन्धों की पुष्टि होती है।
जैनागामों और आगमिक व्याख्याओं में यह माना गया है कि महावीर के दीक्षित होने के दूसरे वर्ष में ही मंखलीपुत्र गोशालक उनके निकट सम्पर्क में आया था, कुछ वर्ष दोनों साथ भी रहे किन्तु नियतिवाद और पुरुषार्थवाद सम्बन्धी मतभेदों के कारण दोनों अलग-अलग हो गये। हरमन जेकोबी ने तो यह कल्पना भी की है कि महावीर की निर्ग्रन्थ परम्परा में नग्नता आदि जो आचार-मार्ग की कठोरता है, वह गोशालक की आजीवक परम्परा का प्रभाव है। यह सत्य है कि गोशालक के पूर्व भी आजीवकों की एक परम्परा थी, जिसमें अर्जुन आदि आचार्य थे। फिर भी ऐतिहासिक साक्ष्य के अभाव में यह कहना कठिन है कि कठोर साधना की यह परम्परा महावीर से आजीवक परम्परा में की गई या आजीवक गोशालक के द्वारा महावीर की परम्परा में आई। क्योंकि इस तथ्य का कोई प्रमाण नहीं है कि महावीर से अलग होने के पश्चात् गोशालक आजीवक परम्परा से जुड़ा था या वह प्रारंभ में ही आजीविक परम्परा में दीक्षित होकर महावीर के पास आया था। फिर भी इतना निश्चित है कि ईसा की प्रथम-द्वितीय शताब्दी के बाद तक भी इस आजीवक परम्परा का अस्तित्व रहा है। यह निर्ग्रन्थों एवं बौद्धों की एक प्रतिस्पर्धी श्रमण परम्परा थी जिसके श्रमण भी जैनों की दिगम्बर शाखा के समान नग्न रहते थे। जैन और आजीवक दोनों परम्पराएँ प्रतिस्पर्धी होकर भी एक-दूसरे को अन्य परम्पराओं की अपेक्षा अधिक सम्मान देती थीं, इस तथ्य की पुष्टि हमें बौद्ध पिटक साहित्य में उपलब्ध व्यक्तियों के षट्विध वर्गीकरण से होती है। वहाँ निर्ग्रन्थों को अन्य परम्परा के श्रमणों से ऊपर और आजीवक परम्परा से नीचे स्थान दिया गया है। इस प्रकार आजीवकों के निर्ग्रन्थ संघ से जुड़ने एवं अलग होने की यह घटना निर्ग्रन्थ परम्परा की एक महत्त्वपूर्ण घटना है। साथ ही निर्ग्रन्थों के प्रति अपेक्षाकृत उदार भाव
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