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विकास अभिषेक है जो अपेक्षाकृत और भी परवर्ती है।
'पद्मपुराण', 'पंचविंशनि' ( पद्मनन्दिकृत), 'आदिपुराण', 'हरिवंशपुराण', 'वसुनन्दि श्रावकाचार' आदि ग्रन्थों से अष्टद्रव्यों का फलादेश भी ज्ञात होता है। यह माना गया है कि अष्टद्रव्यों द्वारा पूजन करने से ऐहिक और पारलौकिक अभ्युदयों की प्राप्ति होती है। 'भावसंग्रहट में भी अष्टद्रव्यों का पृथक-पृथक फलादेश बताया गया है।
डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री द्वारा प्रस्तुत विवरण हिन्दू परम्परा के प्रभाव से दिगम्बर परम्परा में पूजा - द्रव्यों के क्रमिक विकास को स्पष्ट कर देता है। श्वेताम्बर परम्परा में हिन्दूओं की पंचोपचारी पूजा से अष्टप्रकारी पूजा और उसी से सत्रह भेदी पूजा विकसित हुई। यह सर्वोपचारी या सत्रह भेदी पूजा वैष्णवों की षोडशौपचारी पूजा का ही रूप है और बहुत कुछ रूप में इसका उल्लेख 'राजप्रश्नीय' में उपलब्ध है।
इस समग्र चर्चा में हमें ऐसा लगता है कि जैन परम्परा में सर्वप्रथम धार्मिक अनुष्ठान के रूप में षडावश्यकों का विकास हुआ। उन्हीं षडावश्यकों में स्तवन या गुणस्तुति का स्थान था, उसी से आगे चलकर भावपूजा प्रचलित हुई और फिर द्रव्यपूजा की कल्पना सामने आई, किन्तु द्रव्यपूजा का विधान केवल श्रावकों के लिए हुआ। तत्पश्चात् श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में जिन पूजा सम्बन्धी जटिल विधिविधानों का जो विस्तार हुआ, वह सब ब्राह्मण परम्परा का प्रभाव था। आगे चलकर जिन मन्दिर के निर्माण एवं जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा के सम्बन्ध में हिन्दुओं का अनुसरण करके अनेक प्रकार के विधि-विधान बने। पं. फूलचंदजी सिद्धान्तशास्त्री ने 'ज्ञानपीठ पूजांजलि' की भूमिका में और डॉ. नेमिचन्दजी शास्त्री ने अपने एक लेख 'पुष्पकर्मदेवपूजा : विकास एवं विधि' जो उनकी पुस्तक 'भारतीय संस्कृति के विकास में जैन वाङ्मय का अवदान' (प्रथम खण्ड), पृ. ३७१ पर प्रकाशित है, में इस बात को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है कि जैन परम्परा में पूजा- द्रव्यों का क्रमशः विकास हुआ है। यद्यपि पुष्प-पूजा प्राचीनकाल से ही प्रचलित है फिर भी यह जैन परम्परा के आत्यन्तिक अहिंसा सिद्धान्त से मेल नहीं खाती है। एक ओर तो पूजा-विधान का पाठ जिसमें होने वाली एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा का प्रायश्चित हो और दूसरी ओर पुष्प, जो स्वयं एकेन्द्रिय जीव है, उन्हें जिन - प्रतिमा को समर्पित करना कहाँ तक संगतिपूर्ण हो सकता है। वह प्रायश्चित पाठ निम्नलिखित है
ईयापथे प्रचलताद्य मया प्रमादात्, एकेन्द्रियप्रमुखजीवनिकायबाधा ।
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