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________________ वर्चस्व क्षेत्र में प्रवेश करने में भी रोक देते थे। इस्लाम के प्रभाव के साथ-साथ भट्टारकों एवं यतियों के आचार शैथिल्य एवं धर्माचरण के क्षेत्र में कर्मकाण्डों का वर्चस्व ऐसी स्थितियाँ थी कि जिसने लोकाशाह को धर्मक्रान्ति हेतु प्रेरणा दी। लोकाशाह ने मूर्तिपूजा, कर्मकाण्ड और आचार शैथिल्य का विरोध कर जैन धर्म को एक नवीन दिशा दी। उनकी इस साहसपूर्ण धर्मक्रान्ति का प्रभाव यह हुआ कि प्राय: सम्पूर्ण उत्तर-पश्चिम भारत में लाखों की संख्या में उनके अनुयायी बन गये। कालान्तर में उनके अनुयायियों का यह वर्ग गुजराती लोकागच्छ, नागौरी लोकागच्छ और लाहौरी लोकागच्छ के रूप में तीन भागों में विभाजित हो गया, किन्तु श्वेताम्बर मूर्तिपूजक यति परम्परा के प्रभाव से शनैः शनै: आचार शैथिल्य की ओर बढ़ते हुए इसने पुन: यदि परम्परा का रूप ले लिया फलत: लोकाशाह की धर्मक्रान्ति के लगभग १५० वर्ष पश्चात् पुन: एक नवीन धर्मक्रान्ति की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी। इसी लोकागच्छ यति परम्परा में से निकल कर जीवराजजी, लवजीऋषिजी, धर्मसिंहजी, धर्मदासजी, मनोहरदासजी, हरजीस्वामीजी आदि ने पुनः एक धर्मक्रान्ति का उद्घोष किया और आगमसम्मत मुनि आचार पर विशेष बल दिया, फलतः स्थानकवासी सम्प्रदाय का उदय हुआ। स्थानकवासी परम्परा का उद्धव एवं विकास किसी एक व्यक्ति से एक ही काल में नहीं हुआ, अपितु विभिन्न व्यक्तियों द्वारा अलग-अलग समय में हुआ अतः विचार और आचार के क्षेत्र में मतभेद बने रहे। जिसका परिणाम यह हुआ कि यह सम्प्रदाय अपने उदय काल में ही अनेक उपसम्प्रदायों में विभाजित रहा। १७वीं शताब्दी में इसी स्थानकवासी सम्प्रदाय से निकल कर रघुनाथजी के शिष्य भीखणजी स्वामी ने श्वेताम्बर तेरापंथ की स्थापना की। इनके स्थानकवासी परम्परा से पृथक होने के मूलत: दो कारण रहे- एक ओर स्थानकवासी परम्परा के साधुओं ने भी यति परम्परा के समान ही अपनी-अपनी परम्परा के स्थानकों को निर्माण करवाकर उनमें निवास करना प्रारम्भ कर दिया तो दूसरी ओर भीखणजी स्वामी का आग्रह यह रहा कि दया व दान की ये सभी प्रवृत्तियाँ जो सावध है और जिनके साथ किसी भी रूप में हिंसा जुड़ी हुई है, चाहे वह हिंसा एकेन्द्रिय जीवों की हो, धर्म नहीं मानी जा सकती। कालान्तर में आचार्य भीखणजी का यह सम्प्रदाय पर्याप्त रूप से विकसित हुआ और आज जैन धर्म के एक प्रबुद्ध सम्प्रदाय के रूप में जाना पहचाना जाता है। इसे तेरापंथ के नवें आचार्य तुलसीजी और दसवें आचार्य महाप्रज्ञजी ने नई ऊँचाइयाँ दी है। 57 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001700
Book TitleJain Dharma ki Aetihasik Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year
Total Pages72
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size7 MB
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