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ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन् अत्र अवतर अवतर संवोषट् । ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन् अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन् अत्र मम सन्निहतो भवभव वषट् । ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन् स्वस्थानं गच्छ गच्छ जः जः जः ।
ये मन्त्र जैन दर्शन की मूलभूत मान्यताओं के प्रतिकूल है, क्योंकि जहाँ ब्राह्मण परम्परा का यह विश्वास है कि आह्वान करने पर देवता आते हैं और विसर्जन करने पर चले जाते हैं। वहाँ जैन परम्परा में सिद्धावस्था को प्राप्त तीर्थङ्कर न तो आह्वान करने पर उपस्थित हो सकते हैं और न विसर्जन करने पर जा ही सकते हैं। पं. फूलचन्दजी ने 'ज्ञानपीठ पूजांजलि' की भूमिका में विस्तार से इसकी चर्चा की है तथा आह्वान एवं विसर्जन सम्बन्धी जैन मन्त्रों की ब्राह्मण मन्त्रों से समानता भी दिखलाई है । तुलना कीजिये
आवाहनं नैव जानामि नैव जामामि पूजनम् । विसर्जनं न जानामि क्षमस्व परमेश्वर । । १ । । मन्त्रहीनं क्रियाहीनं द्रव्यहीनं तथैव च । तत्सर्व क्षम्यतां देव रक्ष रक्ष जिनेश्वर । । २ । । विसर्जनपाठ इसके स्थान पर ब्राह्मणधर्म में ये श्लोक उपलब्ध होते हैंआवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम् । पूजनं नैव जानामि क्षमस्व परमेश्वर । । १ । । मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं जनार्दन ।
यत्पूजितं मया देव परिपूर्ण तदस्तु मे ।। २।।
इसी प्रकार पंचोपचारपूजा, अष्टद्रव्यपूजा, यक्ष का विधान, विनायक - मन्त्र स्थापना, यज्ञोपवीतधारण आदि भी जैन परम्परा के अनुकूल नहीं है। किन्तु जब पौराणिक धर्म का प्रभाव बढ़ने लगा तो पंचोपचारपूजा आदि विधियों का प्रवेश हुआ। दसवीं शती के अनन्तर इन विधियों को इतना महत्त्व प्राप्त हुआ कि पूर्व प्रचलित विधि गौण हो गई। प्रतिमा के समक्ष रहने पर भी आह्वान सन्निविकरण, पूजन और विसर्जन क्रमशः पंचकल्याणकों की स्मृति के लिए व्यवहृत होने लगे। पूजा को वैयावृत्त का अंग माना जाने लगा तथा एक प्रकार से इसे 'आहारदान' के तुल्य महत्त्व प्राप्त हुआ। इस प्रकार पूजा
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