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परम्पराओं के अतिरिक्त पूर्व प्रचलित परम्पराओं में भी ऐतिहासिक महत्त्व की अनेक घटनाएँ घटित हुई। उनमें एक महत्त्वपूर्ण घटना यह है कि दिगम्बर परम्परा में जो नग्न मुनि परम्परा शताब्दियों से नामशेष या विलुप्त हो चुकी थी, वह आचार्य शान्तिसागरजी से पुनजीवित हुई। आज देश में पर्याप्त संख्या में दिगम्बर मुनि है। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में इस शती में विभिन्न गच्छों और समुदायों के मध्य एकीकरण के प्रयास तो हुए, किन्तु वे अधिक सफल नहीं हो पाये। दूसरे इस शती में चैत्यवासी यति परम्परा प्रायः क्षीण हो गई। कुछ यतियों को छोड़ यह परम्परा नामशेष हो रही है, वहीं संविग्न मुनि संस्था में धीरे-धीरे आचार शैथिल्य में वृद्धि हो रही है और कुछ संविग्न पक्षीय मुनि धीरे-धीरे यतियों के समरूप आचार करने लगे हैं। यह एक विचारणीय पक्ष है। स्थानकवासी समाज की दृष्टि से यह शती इसलिए महत्त्वपूर्ण कही जा सकती है कि इस शती में इस विकीर्ण समाज जोड़ने के महत्त्वपूर्ण प्रयत्न हुए। अजमेर और सादड़ी घाणेराव में दो महत्त्वपूर्ण साधु सम्मेलन हुए जिनकी फलश्रुति के रूप में विभिन्न सम्प्रदाय एक-दूसरे के निकट आई। सादड़ी सम्मेलन में गुजरात और मारवाड़ के कुछ सम्प्रदायों को छोड़कर समस्त स्थानकवासी मुनि संघ वर्द्धमान स्थानकवासी श्रवण संघ के रूप में एक जुट हुआ किन्तु कालान्तर में कुछ सम्प्रदाय पुन: पृथक भी हुए। इस शती में तेरापंथ सम्प्रादय ने जैन धर्म-दर्शन से सम्बन्धित साहित्य का प्रकाशन कर महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। सामान्य रूप से यह शती आध्यात्मिक चेतना की जागृति के साथ जैन साहित्य के लेखन, सम्पादन, प्रकाशन और प्रसार की दृष्टि से अति महत्त्वपूर्ण रही है। साथ ही जैन धर्मानुयायी के विदेश गमन से इसे एक अन्तर्राष्ट्रीय धर्म होने का गौरव प्राप्त हुआ है। ___इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन धर्म की सांस्कृतिक चेतना भारतीय संस्कृति के आदिकाल से लेकर आज तक नवोन्मेष को प्राप्त होती रही है। वह एक गतिशील जीवन्त परम्परा के रूप में देश कालगत परिस्थितियों के साथ समन्वय करते हुए उसने अपनी गतिशीलता का परिचय दिया है। सन्दर्भ १. 'उत्तराध्ययन' २५/२७, २१। २. धम्मपद' ४०१-४०३। ३. 'उत्तराध्ययन' १२/४४।
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