Book Title: Jain Dharma ki Aetihasik Vikas Yatra Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Prachya Vidyapith ShajapurPage 64
________________ स्थानकवासी और तेरापंथ के उदय के पश्चात क्रमश: बीसवीं शती के पूर्वार्द्ध, मध्य और उत्तरार्द्ध में विकसित जैन धर्म के सांस्कृतिक इतिहास की दृष्टि से जो तीन परम्पराएँ अति महत्त्वपूर्ण है, उनमें श्रीमद् राजचन्द्र की अध्यात्मप्रधान परम्परा में विकसित 'कविपंथ', स्थानकवासी परम्परा से निकलकर बनारसीदास के दिगम्बर तेरापंथ को नवजीवन देने वाले कानजीस्वामी का निश्चयनय प्रधान 'कानजी पंथ' तथा गुजरात के ए.एम. पटेल के द्वारा स्थापित दादा भगवान का सम्प्रदाय मुख्य है। यद्यपि ये तीनों सम्प्रदाय मूलत: जैन धर्म की आध्यात्मप्रधान दृष्टि को लोकर ही विकसित हुए। श्रीमद् राजचन्द्रजी जिन्हें महात्मा गाँधी ने गुरु का स्थान दिया था, जैन धर्म में किसी सम्प्रदाय की स्थापना की दृष्टि से नहीं, मात्र व्यक्ति के आध्यात्मिक जागरण की उपेक्षा से जनसाधारण की जैन धर्म के आध्यात्मक प्रधान सारभूत तत्त्वों का बोध दिया। श्रीमद राजचन्द्र आध्यात्मिक प्रज्ञासम्पन्न आशु कवि थे। अत: उनका अनुयायी कविपंथ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। कानजीस्वामी कुन्दकुन्द के 'समयसार' आदि ग्रन्थों का अध्ययन कर बनारसीदास और श्रीमद् राजचन्द्र की अध्यात्मक प्रधान दृष्टि को ही जन-जन में प्रसारित करने का प्रयत्न किया, किन्तु वहाँ श्रीमद् राजचन्द्र ने निश्चय और व्यवहार दोनों पर समान बल दिया वहाँ कानजी स्वामी की दृष्टिकोण मूलत: निश्चय प्रधान रहा। दोनों की विचारधाराओं में यही मात्र मौलिक अन्तर माना जा सकता है। व्यक्ति की आन्तरिक विशुद्धि और आध्यात्मिक विकास दोनों का ही मूल लक्ष्य है। ऐसा कहा जाता है कि श्री एम.के. पटेल को सन् १९५७ में ज्ञान का प्रकाश मिला और उन्होंने भी अपने उपदेशों के मध्यम से व्यक्ति के आन्तरिक विकारों की विशद्धि पर ही विशेष बल दिया। फिर भी जहाँ कानजीस्वामी ने क्रमबद्ध पर्याय की बात कही वहाँ श्री एम.के. पटेल जो आगे चलकर दादा भगवान के नाम से प्रसिद्ध हुए ने अक्रम विज्ञान की बात कही। अक्रम विज्ञान का मूल अर्थ केवल इतना ही है कि आध्यात्मिक प्रकाश की यह घटना कभी भी घटित हो सकती है। आध्यात्मिक बोध कोई यांत्रिक घटना नहीं है। वह प्राकृतिक निमयों से भी ऊपर है। दादा भगवान की परम्परा का वैशिष्टय यह है कि उन्होंने अध्यात्मक के क्षेत्र में जैन एवं हिन्दू परम्परा की समरूपता का अनुभव किया और इसी आधार पर जहाँ तीर्थंकर परमात्मा की आराधना को लक्ष्य बनाया वहीं वासदेव और शिव को भी अपने आराध्य के रूप में स्वीकार किया। इस प्रकार उनकी परम्परा हिन्दू और जैन अध्यात्म का एक मिश्रण है। २०वीं शती में विकसित इन तीनों परम्पराओं का वैशिष्टय यह है कि वे विकास पर सर्वाधिक बल देती है। उनकी दृष्टि में आचार शुद्धि में पूर्व विचार शुद्धि या दृष्टि शुद्धि आवश्यक है। इन नवीन पृथक भूत 58 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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