________________
जुड़े होने के कारण उस पर अपना वर्चस्व रख रहे थे। आगे चलकर वर्चस्व की इस होड़ में जैन धर्म भी दो वर्गों में विभाजित हो गया, जो श्वेताम्बर और दिगम्बर नाम से कालान्तर में प्रसिद्ध हुए।
आचार्य भद्रबाहु के द्वारा रचित 'निशीथ', 'दशाश्रुतस्कन्ध', 'बृहत्कल्प' एवं 'व्यवहार सूत्र' में उत्सर्ग और अपवाद के रूप में अथवा जिनकल्प और स्थविकल्प के रूप में इस द्विस्तरीय आचार-व्यवस्था को स्पष्ट रूप से मान्यता प्रदान की गई है। जहाँ मूल आगम ग्रन्थों में अपवाद के क्वचित ही निर्देश उपलब्ध होते हैं वहाँ इन छेदग्रन्थों में हमें अपवाद- मार्ग की विस्तृत व्याख्या भी प्राप्त होती है। आगे चलकर आर्यभद्र द्वारा रचित नियुक्तियों में जिनभद्रमणि द्वारा रचित 'विशेषावश्यक' आदि भाष्यों में और जिनदासमहत्तर रचित चूर्णियों में इस अपवाद-मार्ग का खुला समर्थन देखा जाता है।
यह सत्य है कि कोई भी आचार-व्यवस्था या साधना-पद्धति अपवाद मार्ग को पूरी तरह अस्वीकृत करके नहीं चलती। देश,कालगत परिस्थितियों कुछ ऐसी होती है जिसमें अपवाद को मान्यता देनी पड़ती है किन्तु आगे चलकर अपवाद-मार्ग की यह व्यवस्था सुविधावाद और आचार शौथिल्यता का कारण बनती है जो सुविधा-मार्ग से होती हुई आचार शैथिल्यता की पराकाष्ठा तक पहुँच जाती है। जैन संघ में ऐसी परिस्थितियाँ अनेक बार उत्पन्न हुई और उसके लिए समय-समय पर जैनाचार्यों की धर्मक्रान्ति या क्रियोद्वार करना पड़ा। - आचार-व्यवस्था को लेकर विशेष रूप से सचेल और अचेल साधना के सन्दर्भ में प्रथम विवाद वी.नि.सं. ६०६ या ६०९ तद्नुसार विक्रम की प्रथम-द्वितीय शताब्दी में हुआ। यह विवाद मुख्यता आर्य शिवभूति और आर्य कृष्ण के मध्य हुआ था। जहाँ आर्य शिवभूति ने अचेल पक्ष को प्रमुखता दी, वहीं आर्य कृष्ण सचेल पक्ष के समर्थक रहे। आर्य शिवभूति की आचार क्रान्ति के परिणामस्वरूप उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ में बोटिक या यापनीय परम्परा का विकास हुआ जिसने आगमों और स्त्रीमुक्ति को स्वीकार करते हुए भी यह माना कि साधना का उत्कृष्ट मार्ग तो अचेल धर्म ही है।
लोगों के भावनात्मक और आस्थापरक पक्ष को लेकर महावीर के पश्चात कालान्तर में जैन धर्म में मूर्तिपूजा का विकास हुआ। यद्यपि महावीर के निर्वाण के १५० वर्ष के पश्चात से ही जैन धर्म में मूर्तिपूजा के प्रमाण मिलने प्रारम्भ हो जाते हैं। लोहानीपुर पटना से मिली जिन प्रतिमाएँ और कंकाली टीला मथुरा से मिली जिन प्रतिमायें इस तथ्य के प्रबल प्रमाण है कि ईसा पूर्व ही जैनों में मूर्तिपूजा की परम्परा अस्तित्व में आ गई थी। यहाँ हम मूर्तिपूजा सम्बन्धी पक्ष-विपक्ष की इस चर्चा में न पडकर तटस्थ दृष्टि से यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि कालक्रम से जैन धर्म की मूर्ति पूजा में अन्य परम्पराओं
49
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org