Book Title: Jain Dharma ki Aetihasik Vikas Yatra
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 56
________________ के प्रभाव से कैसे-कैसे परिवर्तन हुए और उसका मुनि वर्ग के जीवन पर क्या और कैसा प्रभाव पड़ा? मन्दिर और मूर्तियों के निर्माण के साथ ही जैन साधुओं की आचार शैथिल्य को तेजी से बढ़ावा मिला तथा श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में मठ या चैत्यवासी और वनवासी ऐसी दो परम्पराओं का विकास हुआ। मन्दिर और मूर्ति के निर्माण तथा उसकी व्यवस्था हेतु भूमिदान आदि भी प्राप्त होने लगे और उनके स्वामित्व का प्रश्न ही खड़ा होने लगा। प्रारम्भ में जो दान सम्बन्धी अभिलेख या ताम्र पत्र मिलते हैं उनमें दान मन्दिर, प्रतिमा या संघ को दिया जाता था- ऐसे उल्लेख है। लेकिन कालान्तर में आचार्यों के नाम पर दान पत्र लिखे जाने लगे। परिणामस्वरूप मुनिगण न केवल चैत्यवासी बन बैठे अपितु वे मठ, मन्दिर आदि की व्यवस्था से जुड़ गये। सम्भवत: यही कारण रहा है कि दान आदि उनके नाम से प्राप्त होने लगे। इस प्रकार मुनि जीवन में सुविधावाद और आचार शैथिल्य का विकास हुआ। आचार शैथिल्य ने श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में अपना आधिपत्य कर लिया। श्वेताम्बर में यह चैत्यवासी यति परम्परा के रूप में और दिगम्बर में षठवासी भट्टारक परम्परा के रूप में विकसित हुई। यद्यपि इस परम्परा ने जैन धर्म एवं संस्कृति को बचाये रखने में तथा जैन विद्या के सरंक्षण और समाज सेवा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण कार्य किया। चिकित्सा के क्षेत्र में भी जैन यतियों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा, किन्तु दूसरी ओर सुविधाओं के उपयोग, परिग्रह के संचयन ने उन्हें अपने श्रवण जीवन से च्युत भी कर दिया। इस परम्परा के विरोध में दिगम्बर आचार्य कन्दकन्द ने लगभग ६ठीं शती में और श्वेताम्बर आचार्य हरिभद्र ने ८वीं शती में क्रान्ति के स्वर मुखर लिये। आचार्य कुन्दकुन्द के द्वारा जो क्रान्ति की गई वह मुख्य रूप से परम्परागत धर्म के स्थान पर आध्यात्मिक धर्म के सन्दर्भ में थी। यद्यपि उन्होंने 'अष्टपाहुड' में विशेष रूप से 'चारित्रपाहुड', 'लिंगपापुड' आदि में आचार शैथिल्य के सन्दर्भ में भी अपने स्वर मुखरित किये थे, किन्तु ये स्वर अनसुने ही रहे, क्योंकि परवर्ती काल में भी यह भट्टारक परम्परा पुष्ट ही होती रही। आचार्य कुन्दकुन्द के पश्चात उनके ग्रन्थों के प्रथम टीकाकार आचार्य अमृतचन्द ने जैन संघ को एक आध्यात्मिक दृष्टि देने का प्रयत्न किया जिसका समाज पर कुछ प्रभाव पड़ा किन्तु भट्टारक परम्परा की यथावत रूप में महिमामंडित होती रहा। इसी प्रकार श्वेताम्बर परम्परा में भी सुविहिनमार्ग, संविप्नपक्ष आदि के रूप में यदि परम्परा के विरोध में स्वर मुखरित हए और खरतरगच्छ, तपागच्छ आदि अस्तित्व में भी आये, किन्तु ये सभी यति परम्परा के प्रभाव से अपने को अलिप्त नहीं रख सके। श्वेताम्बर परम्परा में ८वीं शती से चैतन्यवास का विरोध प्रारम्भ हुआ था। आचार्य 50 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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