Book Title: Jain Dharma ki Aetihasik Vikas Yatra
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 54
________________ ने धर्मक्रान्तियाँ या क्रियोद्धार किये। जैन धर्म एक गत्यात्मक धर्म है। अपने मूल तत्त्वों को संरक्षित रखते हुए उसने देश, काल और परिस्थितियों के परिवर्तन के साथ-साथ अपनी व्यवस्थाओं में भी परिवर्तन स्वीकार किया। अत: विभिन्न परम्पराओं के जैन आचार्यों के द्वारा की गई धर्मक्रान्तियाँ जैन धर्म के लिए कोई नई बात नहीं थी, अपितु इसकी क्रान्तधमी विचार दृष्टि का ही परिणाम था। लोकाशाह के पूर्व भी धर्मक्रान्तियाँ हुई थी। उन धर्मक्रान्तियों या क्रियोद्धार की घटनाओं का हम संक्षिप्त विवरण यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं जैसा कि पूर्व में संकेत किया गया है कि भगवान् महावीर ने भी भगवान् पार्श्वनाथ की आचार-व्यवस्था को यथावत् रूप में स्वीकार नहीं किया था। यह ठीक है कि भगवान् पार्श्वनाथ और भगवान् महावीर की मूलभूत सिद्धान्तों में मौलिक अन्तर न हो, किन्तु उनकी आचार-व्यवस्थायें तो भिन्न-भिन्न रही ही है। जिनका जैनागमों में अनेक स्थानों पर निर्देश प्राप्त होता है। महावीर की परम्परा में इन दोनों महापुरुषों की आचारव्यवस्थाओं का समन्वय प्रथमत: सामायिक चारित्र और छेदोपस्थापनीय चारित्र (पङ्चमहाव्रतारोपण) के रूप में हुआ। फलत: मुनि आचार में एक द्विस्तरीय व्यवस्था की गई। भगवान् महावीर के द्वारा स्थापित यह आचार-व्यवस्था बिना किसी मौलिक परिवर्तन के भद्रबाहु के युग तक चलती रही, किन्तु उसमें भी देश कालगत परिस्थितियों के परिवर्तन के साथ आंशिक परिवर्तन तो अवश्य ही आये। उन परिस्थितिजन्य परिवर्तनों को मान्यता प्रदान करने हेतु आचार्य भद्रबाहु को जिनकल्प और स्थविकल्प तथा उत्सर्ग-मार्ग और अपवाद-मार्ग के रूप में पुनः एक द्वि-स्तरीय आचार-व्यवस्था को स्वीकृति देनी पड़ी। आचार्य भद्रबाह के प्रशिष्य और स्थूलिभद्र के शिष्य आर्य महागिरि एवं आर्य सुहस्ती के काल में जैन धर्म में जिनकल्प और स्थाविरकल्प ऐसी दो व्यवस्थायें स्वीकृत हो चुकी थी। वस्तुत: यह द्विस्तरीय आचार व्यवस्था इसलिए भी आवश्यक हो गई थी कि जिनकल्प का पालन करते हुए आत्मसाधना तो सम्भव थी,किन्तु संघीय व्यवस्थाओं से और विशेष रूप से समाज से जुड़कर जैन धर्म के प्रसार और प्रचार का कार्य जिनकल्प जैसी कठोर आचारचर्या द्वारा सम्भव नहीं था। अत: मुनिजन अपनी सुविधा के अनुरूप स्थविरकल्प और जिनकल्प में से किसी एक का पालन करते थे। फिर भी इस द्विस्तरीय आचार-व्यवस्था के परिणामस्वरूप संघ में वैमनस्य की स्थिति का निर्माण नहीं हो पाया था। आर्य महागिरि और आर्य सुहिस्त के काल तक संघ में द्विस्तरीय आचार-व्यवस्था होते हुए भी सौहाद्र बना रहा,किन्तु कालान्तर में यह स्थिति सम्भव नहीं रह पाई। जहाँ जिनकल्पी अपनी कठोर आचार के कारण श्रद्धा के केन्द्र थे वहीं दूसरी ओर स्थाविरकल्पी संघ या समाज से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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