Book Title: Jain Dharma ki Aetihasik Vikas Yatra
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 57
________________ हरिभद्र ने अपने ग्रन्थ 'सम्बोधनप्रकरण' के द्वितीय अध्याय में इन चैत्यवासी यतियों के क्रियाकलापों एवं आचार शैथिल्य पर तीखे व्यंग्य किये और उनके विरूद्ध क्रान्ति का शंखनाद किया, किन्तु युगीन परिस्थितियों के परिणामस्वरूप हरिभद्र की क्रान्ति के ये स्वर भी अनसुने ही रहे। यति वर्ग सुविधावाद, परिग्रह संचय आदि की प्रवृत्तियों में यथावत जुड़ा रहा। हमें ऐसा कोई भी साक्ष्य उपलब्ध नहीं होता जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि आचार्य हरिभद्र की इस क्रान्तिधर्मिता के परिणामस्वरूप चैत्यवासी यतियों पर कोई व्यापक प्रभाव पड़ा हो। श्वेताम्बर परम्परा में चैत्यवास का स्वबल विरोध चन्द्रकुल के आचार्य वर्धमान सुरि ने किया। उन्होंने ने चैत्यवास के विरूद्ध सर्वप्रथम सुविहित मुनि परम्परा की पुन: स्थापना की। यह परम्परा आगे चलकर खरतरगच्छ के नाम से विख्यात हुई। इनका काल लगभग ११वीं शताब्दी माना जाता है। यद्यपि सुविहित मार्ग की स्थापना से आगम पर आधारित मुनि आचार-व्यवस्था को नया जीवन तो प्राप्त हुआ, किन्तु यदि परम्परा नामशेष नहीं हो पाई। अनेक स्थलों पर श्वेताम्बर यतियों का इतना प्रभाव था कि उनके अपने क्षेत्रों में किसी अन्य सुविहित मुनि का प्रवेश भी सम्भव नहीं हो पाता था। चैत्यवासी यति परम्परा तो नामशेष नहीं हो पाई, अपितु हुआ यह कि उस यति परम्परा के प्रभाव से संविग्न मुनि परम्परा पुनः पुन: आक्रान्त होती रही और समय-समय पर पुनः क्रियोद्वार की आवश्यकता बनी रही। इस प्रकार हम देखते हैं कि श्वेताम्बर परम्परा में प्रत्येक सौ-डेढ.सौ वर्ष के पश्चात् पुनः पुनः आचार शैथिल्य के विरूद्ध और संविग्न मार्ग की स्थापना के निमित्त धर्म क्रान्तियाँ होती रही। खरतरगच्छ की धर्मक्रान्ति के पश्चात अंचलगच्छ एवं तपागच्छ के आचार्यों द्वारा पुनः क्रियोद्धार किया गया और आगम अनुकूल मुनि आचार की स्थापना के प्रयत्न वि.सं. १९६९ में आचार्य आर्यरक्षित (अंचलगच्छ) तथा वि.सं. १२८५ में आचार्य जगच्चन्द्र (तपागच्छ) के द्वारा किया गया। इसी तरह एक अन्य प्रयत्न वि.सं. १२१४ या १२५० में आगमिकगच्छ एवं तपागच्छ की स्थापना के रूप में हुआ। आगमिकगच्छ ने न केवल चैत्यवास एवं यक्षयक्षी की पूजा का विरोध किया, अपितु सचित द्रव्यों से जिन-प्रतिमा की पूजा का भी विरोध किया। यहाँ हम देखते हैं कि दिगम्बर परम्परा में जहाँ बनारसीदास आदि के प्रभाव से लगभग १६वीं शती में सचित्त द्रव्य से पूजन का विरोध हुआ, वहीं श्वेताम्बर परम्परा में दो शती पूर्व ही इस प्रकार का विरोध जन्म ले चुका था। यद्यपि आगमिकगच्छ अधिक जीवंत नहीं रह पाया और कालक्रम से उसका अन्त भी हो गया, फिर भी खरतरगच्छ, तपागच्छ और अंचलगच्छ अपने प्रभाव के कारण अस्तित्व में बने रहे। किन्तु ये तीनों परम्परायें भी चैत्यवासी-यतिवासी परम्परा से अप्रभावित नहीं रह सकीं। 51 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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