Book Title: Jain Dharma ki Aetihasik Vikas Yatra
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 53
________________ मध्य युग में कला एवं साहित्य के क्षेत्र में जैनों का महत्त्वपूर्ण अवदान यद्यपि मध्यकाल जैनाचार की दृष्टि से शिथिलाचार एवं सुविधावाद का युग था, फिर भी कला और साहित्य के क्षेत्र में जैनों ने महनीय अवदान प्रदान किया। खजुराहो श्रवणबेलगोल, आबू (देलवाड़ा), तारंगा, रणकपुर, देवगढ़ आदि का भव्य शिल्प और स्थापत्य कला जो ९वीं शती से १४वीं शती के बीच में निर्मित हुई, आजभी जैन समाज का मस्तक गौरव से ऊँचा कर देती है। अनेक प्रौढ़ दार्शनिक एवं साहित्यिक ग्रन्थों की रचनाएँ भी इन्हीं शताब्दियों में हुई। श्वेताम्बर परम्परा में हरिभद्र, अभयदेव, वादिदेवसूरि, हेमचन्द्र, मणिभद्र, मल्लिसेन, जिनप्रभ आदि आचार्य एवं दिगम्बर परम्परा में विद्यानन्दी, शाकाटायन, प्रभाचन्द्र जैसे समर्थ विचारक भी इसी काल के है। मन्त्र-तन्त्रके साथ चिकित्सा के क्षेत्र में भी जैन आचार्य आगे आये। इस युग के भट्टारकों और जैन यतियों ने साहित्य एवं कलात्मक मन्दिरों का निर्माण तो किया ही साथ ही चिकित्सा के माध्यम से जनसेवा के क्षेत्र में भी वे पीछे नहीं रहे। लोकाशाह के पूर्व की धर्मक्रान्तियाँ भारतीय श्रमण परम्परा एक क्रान्तधर्मी परम्परा रही है। उसने सदैव ही स्थापित रुढ़ि और अन्धविश्वासों के प्रति क्रान्ति का स्वर मुखर किया है। इसके अनुसार वे परम्परागत धार्मिक रुढ़ियाँ जिनके पीछे कोई सार्थक प्रयोजन निहित नहीं है, धर्म के शव के समान है। शव पूजा या प्रतिष्ठा का विषय नहीं होता बल्कि विसर्जन का विषय होता है, अत: अन्ध और रुढ़िवादी परम्पराओं के प्रति क्रान्ति आवश्य और अपरिहार्य होती है। श्रवण धर्मों अथवा जैन धर्म का प्रादुर्भाव इसी क्रान्ति दृष्टि के परिणामस्वरूप हुआ है। भगवान् ऋषभदेव ने अपने युग के अनुरूप लौकिक और आध्यात्मिक क्षेत्रों में अपनी व्यवस्थायें दी थी। परवर्ती, तीर्थंकरों ने अपने युग और परिस्थिति के अनुरूप उसमें भी परिवर्तन किये। परिवर्तन और संशोधन का यह क्रम महावीर के युग तक चला। भगवान् महावीर ने भगवान् ‘पार्श्वनाथ' के धर्म मार्ग और आचार-व्यवस्था मे अपने युग के अनुरूप विविध परिवर्तन किये। भगवान महावीर ने जो आचार-व्यवस्था दी थी उसमें भी देश, काल और व्यक्तिगत परिस्थितियों के कारण कालान्तर में परिवर्तन आवश्यक हुए। फलत: जैनाचार्यों ने महावीर के साधना मार्ग और आचारव्यवस्था को उत्सर्ग मार्ग मानते हुए अपवाद मार्ग के रूप में देश कालगत परिस्थितियों के आधार पर नवीन मान्यताओं को स्थान दिया। अपवाद मार्ग की सृजना के साथ जो सुविधावाद जैन संघ में प्रविष्ट हुआ वह कालान्तर में आचार शैथिल्य का प्रतीक बन गया। उस आचार शैथिल्य के प्रति भी युग-युग में सुविहित मार्ग के समर्थक आचार्यों 47 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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