Book Title: Jain Dharma ki Aetihasik Vikas Yatra
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

Previous | Next

Page 45
________________ कर्मकाण्ड के रूप में ही विकसित होते गये। अनेक आन्तरिक एवं बाह्य साक्ष्यों से यह सुनिश्चित हो जाता है कि इनमें अधिकांश कर्मकाण्ड वैदिक या ब्राह्मण परम्परा अथवा दूसरी अन्य परम्पराओं के प्रभाव से आये हैं। जैन परम्परा मूलतः श्रमण परम्परा का ही एक अंग है और इसलिए यह अपने प्रारम्भिक रूप में कर्मकाण्ड की विरोधी एवं आध्यात्मिक साधना प्रधान रही है। मात्र यही नहीं 'उत्तराध्ययन' जैसे प्राचीन जैन ग्रन्थों में स्नान, हवन, यज्ञ आदि कर्मकाण्डों के विरोध से भी यही परिलक्षित होता है। जैसा हम पूर्व में बता चुके हैं कि उत्तराध्यन की यह विशेषता है कि उसने धर्म के नाम पर किये जाने वाले इन कर्मकाण्डों एवं अनुष्ठानों को एक आध्यात्मिक रूप प्रदान किया था। तत्कालीन ब्राह्मण वर्ग ने यज्ञ, श्राद्ध और तर्पण के नाम पर कर्मकाण्डों एवं अनुष्ठानों के माध्यम से सामाजिक शोषण की जो प्रक्रिया प्रारम्भ की थी, जैन परम्परा ने उसका खुला विरोध किया था । वस्तुतः वैदिक कर्मकाण्ड की विरोधी जनजातियों एवं भक्तिमार्गी परम्पराओं में धार्मिक अनुष्ठान के रूप में पूजा-विधि का विकास हुआ और श्रमण परम्परा में तपस्या और ध्यान का। समाज में यक्ष- पूजा के प्राचीनतम उल्लेख जैनागमों में उपलब्ध है। जनसाधारण में प्रचलित भक्तिमार्गी धारा का प्रभाव जैन और बौद्ध धर्मों पर भी पड़ा और उनमें तप, संयम एवं ध्यान के साथ-साथ जिन एवं बुद्ध की पूजा की भावना विकसित हुई। परिणामतः प्रथम स्तूप, चैत्य आदि के रूप में प्रतीक पूजा प्रारम्भ हुई, फिर सिद्धायतन (जिन मन्दिर) आदि बने और बुद्ध एवं जिन प्रतिमा की पूजा होने लगी, परिणामस्वरूप जिन-पूजा, दान आदि को गृहस्थ का मुख्य कर्तव्य माना गया। दिगम्बर परम्परा में तो गृहस्थ के लिए प्राचीन षडावश्यकों के स्थान पर षट् दैनिक कृत्यों जिन-पूजा, गुरु- सेवा, स्वाध्याय, तप, संयम एवं दान की कल्पना की गई। हमें 'आचारांग', 'सूत्रकृतांग', 'उत्तराध्ययन', 'भगवती' आदि प्राचीन आगमों में जिन-पूजा की विधि का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है। इनकी अपेक्षा परवर्ती आगमों 'स्थानांग' आदि में जिन-प्रतिमा एवं जिन - मन्दिर (सिद्धायतन) के उल्लेख है, किन्तु उनमें पूजा सम्बन्धी किसी अनुष्ठान की चर्चा नहीं है। जबकि 'राजप्रश्नीय' में सूर्याभदेव और 'ज्ञाताधर्मकथा' में द्रौपदी के द्वारा जिन - प्रतिमाओं के पूजन के उल्लेख हैं । यह सब बृहद् हिन्दू परम्परा का जैन धर्म पर प्रभाव है। 'हरिवंशपुराण' में जिनसेन ने जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप और नैवैद्य का उल्लेख किया है। इस उल्लेख में भी अष्टद्रव्यों का क्रम यथावत् नहीं है और न जल का पृथक निर्देश ही है। स्मरण रहे कि प्रतिमा- प्रक्षालन की प्रक्रिया का अग्रिम 39 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72