________________
है। मनुष्य की इस स्वाभाविक प्रवृत्ति का यह परिणाम हुआ कि हिन्दू धर्म के प्रभाव से जैन परम्परा में भी अनुष्ठानों का आध्यात्मिक स्वरूप पूर्णतया स्थिर न रह सका, उसमें विकृति आई। वस्तुतः इन्हीं विकृतियों के निराकरण के लिए स्थानकवासी अमूर्तिपूजक परम्परा अस्तित्व में आई। सत्य तो यह है कि जैन धर्म का अनुयायी आखिर वही मनुष्य है जो भौतिक जीवन में सुख-समृद्धि की कामना से मुक्त नहीं है। अत: जैन आचार्यों के लिए यह आवश्यक हो गया कि वे अपने उपासकों की जैन धर्म में श्रद्धा बनाये रखने के लिए जैनधर्म के साथ कुछ ऐसे अनुष्ठानों को भी जोड़ें, जो अपने उपासकों के भौतिक कल्याण में सहायक हों। निवृत्तिप्रधान, अध्यात्मवादी एवं कर्मसिद्धान्त में अटल विश्वास रखने वाले जैनधर्म के लिए यह न्यायसंगत तो नहीं था, फिर भी एक ऐतिहासिक सत्य है कि उसमें यह प्रवृत्ति विकसित हुई, जिसका निराकरण आवश्यक था।
जैनधर्म का तीर्थङ्कर व्यक्ति के भौतिक कल्याण में साधक या बाधक नहीं हो सकता है, अत: जैन अनुष्ठानों में जिन-पूजा के साथ-साथ यक्ष-यक्षियों के रूप में शासन देवता तथा देवी की पूजा की कल्पना विकसित हुई और यह माना जाने लगा कि तीर्थङ्कर अथवा अपनी उपासना से शासन देवता (यक्ष-यक्षी) प्रसन्न होकर उपासक का कल्याण करते हैं। शासनरक्षक देवी-देवताओं के रूप में सरस्वती, लक्ष्मी, अम्बिका, पद्मावती, चक्रेश्वरी, काली आदि अनेक देवियों तथा मणिभद्र, घण्टाकर्ण महावीर, पार्श्वयक्ष आदि यक्षों, दिक्पालों एवं अनेक क्षेत्रपालों (भैरवों) को जैन परम्परा में स्थान मिला। इन सबकी पूजा के लिए जैनों ने विभिन्न अनुष्ठानों को किंचित परिवर्तन के साथ हिन्दू परम्परा से ग्रहण कर लिया। 'भैरव पद्मावतीकल्प' आदि ग्रन्थों से इसकी पुष्टि होती है। जिन-पूजा और प्रतिष्ठा की विधि में वैदिक परम्परा के अनेक ऐसे तत्त्व भी जुड़ गये जो जैन परम्परा के मूलभूत मन्तव्यों से भिन्न है। आज हम यह देखते हैं कि जैन परम्परा में चक्रेश्वरी, पद्मावती, अम्बिका, घण्टाकर्ण महावीर, नाकोड़ा-भैरव, भौमियाजी, दिक्पाल, क्षेत्रफाल आदि की उपासना प्रमुख होती जा रही है। जैन धर्म में पूजा और उपासना का यह दूसरा पक्ष जो हमारे सामने आया, वह मूलतः हिन्दू या ब्राह्मण परम्परा का प्रभाव ही है। जिन-पूजा एवं अनुष्ठान विधियों में अनेक ऐसे मन्त्र मिलते हैं जिन्हें ब्राह्मण परम्परा के तत्सम्बन्धी मन्त्रों का मात्र जैनीकरण कहा जा सकता है। उदाहरण के रूप में जिस प्रकार ब्राह्मण परम्परा में इष्ट देवता की पूजा के समय उसका आह्वान और विर्सजन किया जाता है, उसी प्रकार जैन परम्परा में भी पूजा के समय जिन के आह्वान और विसर्जन के मन्त्र बोले जाते हैं। यथा -
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org