Book Title: Jain Dharma ki Aetihasik Vikas Yatra Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Prachya Vidyapith ShajapurPage 41
________________ वटगोहली से प्राप्त ताम्रपत्र में पंचस्तूपान्वय के अस्तित्व की भी सूचना मिलती है। इस युग का श्वेतपट महाश्रमण संघ अनेक कुलों एवं शाखाओं में विभक्त था, जिसका सम्पूर्ण विवरण कल्पसूत्र एवं मथुरा के अभिलेखों से प्राप्त होता है। महावीर के निर्वाण के पश्चात् से लेकर ईसा की पाँचवीं शती तक एक हजार वर्ष की इस सुदीर्घ अवधि में अर्द्धमागधी आगम साहित्य का निर्माण एवं संकलन होता रहा है। अत: आज हमें जो आगम उपलब्ध है, वे न तो एक व्यक्ति की रचना है और न एक काल की। मात्र इतना ही नहीं, एक ही आगम में विविध कालों की सामग्री संकलित है। इस अवधि में सर्वप्रथम ई.पू. तीसरी शती में पाटलीपुत्र में प्रथम वाचना हुई, सम्भवत: इस वाचना में अंगसूत्रों एवं पापित्य परम्परा के पूर्व साहित्य के ग्रंथों का संकलन हुआ। पूर्व साहित्य के संकलन का प्रश्न इसलिए महत्त्वपूर्ण बन गया था कि पार्खापत्य परम्परा लुप्त होने लगी थी। इसके पश्चात् आर्य स्कन्दिल की अध्यक्षता में मथुरा में और आर्य नागार्जुन की अध्यक्षता में वल्लभी में समानान्तर वाचनाएँ हुईं, जिनमें अंग, उपांग आदि आगम संकलित हुए। इसके पश्चात वीर निर्माण ९८० अर्थात ई. सन् की पाँचवीं शती में वल्लभी में देवर्द्धिक्षमाश्रमण के नेतृत्व में अन्तिम वाचना हुई। वर्तमान आगम इसी वाचना का परिणाम है। फिर भी देवर्द्धि इन आगमों के सम्पादक ही हैं, रचनाकार नहीं। उन्होंने मात्र ग्रंथों को सुव्यविस्थत किया। इन ग्रन्थों की सामग्री तो उनके पहले की है। अर्धमागधी आगमों में जहाँ 'आचारांग' एवं 'सूत्रकृतांग' के प्रथम श्रुतस्कंध, 'ऋषिभाषित', 'उत्तराध्ययन', 'दशवैकालिक' आदि प्राचीन स्तर के अर्थात् ई.पू. के ग्रन्थ है, वहीं 'समवायांग', वर्तमान 'प्रश्नव्याकरण' आदि पर्याप्त परवर्ती अर्थात् लगभग ई.स. की पाँचवीं शती के हैं। 'स्थानांग', 'अंतकृतदशा', 'ज्ञाताधर्मकथा' और 'भगवती' का कुछ अंश प्राचीन (अर्थात् ई.पू. का) है, तो कुछ पर्याप्त परवर्ती है। उपांग साहित्य में अपेक्षाकृत रूप में 'सूर्यप्रज्ञप्ति', 'राजप्रश्नीय', 'प्रज्ञापना' प्राचीन है। उपांगों की अपेक्षा भी छेद-सूत्रों की प्राचीनता निर्विवाद है। इसी प्रकार प्रकीर्णक साहित्य में अनेक ग्रंथ ऐसे हैं, जो कुछ अंगों और उपांगों की अपेक्षा भी प्राचीन है। फिर भी सम्पूर्ण अर्धमागधी आगम साहित्य को अन्तिम रूप लगभग ई. सन् की छठी शती के पूर्वार्ध में मिला, यद्यपि इसके बाद भी इसमें कुछ प्रक्षेप और परिवर्तन हुए हैं। ईसा की छठी शताब्दी के पश्चात् से दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी के मध्य तक मुख्यत: आगमिक व्याख्या साहित्य के रूप में नियुक्ति, भाष्य, चूर्णी और टीकाएँ लिखी गई। यद्यपि कुछ नियुक्तियाँ प्राचीन भी है। इस काल में इस आगमिक व्याख्याओं के अतिरिक्त स्वतंत्र ग्रन्थ भी लिखे गये। इस काल के प्रसिद्ध आचार्यों में सिद्धसेन, जिनभद्रगणि, शिवार्य, वट्टकेर, कुन्दकुन्द, आकलंक, समन्तभद्र, 35 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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