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चलकर भिक्षा हेतु भी पात्र का उपयोग प्रारम्भ हो गया होगा। इसके अतिरिक्त बीमार और अतिवृद्ध भिक्षुओं की परिचर्या के लिए भी पात्र में आहार लाने और ग्रहण करने की परम्परा प्रचलित हो गई होगी। मथुरा में ईसा की प्रथम द्वितीय शती की एक जैन श्रमण की प्रतिमा मिली है जो अपने हाथ में एक पात्र युक्त झोली और दूसरे में प्रतिलेखन (रजोहरण) लिए हुए है। इस झोली का स्वरूप आज श्वेताम्बर परम्परा में, विशेष रूप से स्थानकवासी और तेरापंथी परम्पर में प्रचलित झोली के समान है। यद्यपि मथुरा के अंकनों में हाथ में खुला पात्र भी प्रदर्शित है। इसके अतिरिक्त मथुरा के अंकन में मुनियों एवं साध्वियों के हाथ में मुख वस्त्रिका (मुँह - पत्ति) और प्रतिलेखन (रजोहरण) के अंकन उपलब्ध होते हैं। प्रतिलेखन के अंकन दिगम्बर परम्परा में प्रचलित मयूरपिच्छ और श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित रजोहरण दोनों ही आकारों में मिलते हैं। यद्यपि स्पष्ट साहित्यिक और पुरातात्विक साक्ष्य के अभाव में यह कहना कठिन है कि वे प्रतिलेखन मयूरपिच्छ के बने होते थे या अन्य किसी वस्तु के । दिगम्बर परम्पर में मान्य यापनीय ग्रन्थ मूलाचार और भगवती आराधना में प्रतिलेखन (पडिलेहण) और उसके गुणें का तो वर्णन है किन्तु यह स्पष्ट उल्लेख नहीं है कि वे किस वस्तु के बने होते थे। इस प्रकार ईसा की प्रथम शती के पूर्व उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ में वस्त्र, पात्र, झोली, मुखस्त्रिका और प्रतिलेखन (रजोहरण) का प्रचलन था। सामान्यतया मुनि नग्न ही रहते थे और साध्वियाँ साड़ी पहनती थीं। मुनि वस्त्र का उपयोग विशेष परिस्थिति में मात्र शीत एवं लज्जा - निवारण हेतु करते थे । मुनियों के द्वारा सदैव वस्त्र धारण किये रहने की परम्परा नहीं थी। इसी प्रकार अंकनों में मुखवस्त्रिका भी हाथ में ही प्रदर्शित है, न कि वर्तमान स्थानकवासी और तेरापंथी परम्पराओं के अनुरूप मुख पर बंधी हुई दिखाई गई है। प्राचीन स्तर के श्वेताम्बर आगम ग्रन्थ भी इन्हीं तथ्यों की पुष्टि करते हैं। श्वेताम्बर परम्परा में मुनि के जिन १४ उपकरणों का उल्लेख मिला है, वे सम्भवतः ईसा की दूसरी-तीसरी शती तक निश्चित हो गये थे।
महावीर के पश्चात् निर्ग्रन्थ संघ में हुए संघ- भेद
महावीर के निर्वाण और मथुरा के अंकन के बीच लगभग पाँच सौ वर्षों के इतिहास से हमें जो महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ मिलती हैं वे निह्नवों के दार्शनिक एवं वैचारिक मतभेदों एवं संघ के विभिन्न गणों, शाखाओं, कुलों एवं सम्भोगों में विभक्त होने से सम्बन्धित हैं। ‘आवश्यकनिर्युक्ति' सात निह्नवों का उल्लेख करती है, इनमें से जामालि और तिष्यगुप्त तो महावीर के समय में हुए थे, शेष पाँच आषाढ़भूति, अश्वामित्र, गंग, रोहगुप्त और गोष्टमहिल महावीर निर्वाण के पश्चात् २१४ वर्ष से ५८४ वर्ष के बीच हुए। वे निह्नव किन्हीं दार्शनिक प्रश्नों पर निर्ग्रन्थ संघ की परम्परागत मान्यताओं से
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