Book Title: Jain Dharma ki Aetihasik Vikas Yatra Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Prachya Vidyapith ShajapurPage 22
________________ वहाँ हिन्दू धर्म प्रवृत्तिप्रधान। फिर भी यह मानना उचित होगा कि ये दोनों धर्म प्रवृत्ति और निवृत्ति के समन्वय से ही निर्मित हुए हैं। जैनधर्म के अनुसार भी भगवान् ऋषभदेव ने दीक्षित होने के पूर्व प्रवृत्तिमान अर्थात् परिवार धर्म, समाज धर्म, राज्य धर्म आदि का उपदेश दिया था। पूर्व में यह स्पष्ट किया जा चुका है कि इस समन्वय का प्रथम प्रयत्न हमें 'ईशावास्योपनिषद्' में स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। अतः आज जहाँ उपनिषदों को प्राचीन श्रमण-परम्परा के परिप्रेक्ष्य में समझने की आवश्यकता है, वहीं जैन और बौद्ध परम्परा को भी औपनिषदिक परम्परा के परिप्रेक्ष्य में समझने की आवश्यकता है, जिस प्रकार वासना और विवेक, प्रेय और श्रेय, परस्पर भिन्न-भिन्न होकर भी मानव व्यक्ति के ही अंग है उसी प्रकार निवृत्तिप्रधान श्रमणधारा और प्रवृत्तिप्रधान वैदिकधारा दोनों भारतीय संस्कृति के ही अंग हैं। वस्तुतः कोई भी संस्कृति ऐकान्तिक निवृत्ति या ऐकान्तिक प्रवृत्ति के आधार पर प्रतिष्ठित नहीं हो सकती है। जैन और बौद्ध परम्पराएँ भारतीय संस्कृति का वैसे ही अभिन्न अंग है, जैसे हिन्दू-परम्परा। यदि औपनिषदिक धारा को वैदिकधारा से भिन्न होते हुए भी वैदिक या हिन्दू-परम्परा का अभिन्न अंग माना जाता है तो फिर जैन और बौद्ध परम्पराओं को उसका अभिन्न अंग क्यों नहीं माना जा सकता? यदि सांख्य और मीमांसक अनीश्वरवादी होते हुए भी आज हिन्दूधर्म-दर्शन के अंग माने जाते हैं, तो फिर जैन व बौद्ध धर्म को अनीश्वरवादी कहकर उससे कैसे भिन्न किया जा सकता है? वस्तुतः हिन्द कोई एक धर्म और दर्शन न होकर, एक व्यापक परम्परा का नाम है या कहें कि वह विभिन्न वैचारिक एवं साधनात्मक परम्पराओं का समूह हैं उसमें ईश्वरवाद-अनीश्वरवाद, द्वैतवाद-अद्वैतवाद, प्रवृत्ति-निवृत्ति, ज्ञानकर्म सभी कुछ तो समाहित है। उसमें प्रकृति-पूजा जैसे धर्म के प्रारंभिक लक्षणों से लेकर अद्वैत की उच्च गहराइयाँ तक सभी कुछ तो उसमें सन्निविष्ट हैं। अतः हिन्दू उस अर्थ में कोई एक धर्म नहीं है जैसे यहूदी, ईसाई या मूसलमान। हिन्दू एक संश्लिष्ट परम्पर है, एक सांस्कृतिक धरा है जिसमें अनेक धाराएँ समाहित हैं। अतः जैन और बौद्ध धर्म को हिन्दू परम्परा से नितान्त भिन्न नहीं माना जा सकता। जैन और बौद्ध भी उसी अध्यात्म-पक्ष के अनुयायी हैं जिसके औपनिषिदिक ऋषि थे। उनकी विशेषता यह है कि उन्होंने भारतीय समाज के दलित वर्ग के उत्थान तथा जन्मना जातिवाद, कर्मकाण्ड व पुरोहितवाद से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया। उन्होंने उस धर्म का प्रतिपादन किय जो जनसामान्य का धर्म था और जिसे कर्मकाण्डों की अपेक्षा नैतिक सद्गुणों पर अधिष्ठित किया गया था। उन्होंने भारतीय समाज को पुराहित वर्ग के धार्मिक शोषण से मुक्त किया। वे विदेशी नहीं है, इसी माटी की सन्तान 16 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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