Book Title: Jain Dharma ki Aetihasik Vikas Yatra
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 20
________________ और अन्य श्रमण परम्पराओं ने मात्र उसे मुखर ही किया है। हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि वैदिक कर्मकाण्ड के प्रति यदि किसी ने पहली आवाज उठाई तो वे औपनिषदिक ऋषि ही थे। उन्होंने ही सबसे पहले कहा था कि ये यज्ञरूपी नौकाएँ अदृढ़ हैं, ये आत्मा के विकास में सक्षम नहीं हैं। यज्ञ आदि वैदिक कर्मकाण्ज्ञों की नवीन आध्यात्मिक दृष्टि से व्याख्या करने का कार्य औपनिषिदक ऋषियों और गीता के प्रवक्ता का है। महावीर एवं बुद्धकालीन जैन और बौद्ध परम्पराएँ तो औपनिषिदक ऋषियों के द्वारा प्रशस्त किये गए पथ पर गतिशील हुई हैं। वे वैदक कर्मकाण्ड, जन्मना जातिवाद और मिथ्या विश्वास के विरोध में उठे हुए औपनिषिदक ऋषियों के स्वर के ही मुखरित रूप है। जैन और बौद्ध परम्पराओं में औपनिषदिक ऋषियों की अर्हत् ऋषियों के रूप में स्वीकृति इसका स्पष्ट प्रमाण है। यह सत्य है कि श्रमणों ने यज्ञों में पशुबलि, जन्मना वर्ण-व्यवस्था और वेदों के प्रामाण्य से इन्कार किया और इस प्रकार वे भारतीय संस्कृति के समुद्धारक के रूप में ही सामने आये, किन्तु हमें यह भी नहीं भूलना चाहिये कि भारतीय संस्कति में आई इन विकृतियों के परिमार्जन करने की प्रक्रिया में वे स्वयं ही कहीं न कहीं उन विकृतियों से प्रभावित हो गए है। वैदिक कर्मकाण्ड अब पूजा-विधानों एवं तन्त्र-साधना के नये रूप में बौद्ध, जैन और अन्य श्रमण परम्पराओं में प्रविष्ट हो गया है और उनकी साधनापद्धति का एक अंग बन गया है। आध्यात्कि विशुद्धि के लिये किये जानेवाला ध्यान अब भौतिक सिद्धियों के निमित्त किया जाने लगा है। जहाँ एक ओर भारतीय श्रमणपरम्परा ने वैदिक परम्परा को आध्यात्मिक जीवन-दृष्टि के साथ-साथ तप, त्याग, संन्यास और मोक्ष की अवधारणाएँ प्रदान की, वहीं दूसरी ओर तीसरी-चौथी शती से वैदिक परम्परा के प्रभाव से पूजा-विधान और तान्त्रिक साधनाएँ जैन और बौद्ध परम्पराओं में प्रविष्टि हो गई। अनके हिन्दू देव-देवियाँ प्रकारान्तर में जैनधर्म एवं बौद्धधर्म में स्वीकार कर ली गई। जैनधर्म में यक्ष-यक्षणियों एवं शासन-देवता की अवधारणाएँ हिन्दू देवताओं का जैनीकरण मात्र है। अनेक हिन्दू देवियाँ जैसे - काली, महाकाली, ज्वालामालिनि अम्बिका, चक्रेश्वरी, पद्मावती, सिद्धायिक, तीर्थङ्करों की शासन-रक्षक देवियों के रूप में जैनधर्म का अंग बन गईं। इसी प्रकार श्रुत-देवता के रूप में सरस्वती और सम्पत्ति प्रदार के रूप में लक्ष्मी की उपासना भी जैनधर्म में ही होने लगी और हिन्दू-परम्परा का गणेश पार्श्व-यक्ष के रूप में लोकमंगल का देवता बन गया। वैदिक परम्परा के प्रभाव से जैन मंदिरों में भी अब यज्ञ होने लगे और पूजा-विधान में हिन्दू देवताओं की तरह तीर्थङ्करों का आह्वान एवं विसर्जन किया जाने लगा। हिन्दुओं की पूजा-विधि को भी मन्त्रों में कुछ शाब्दिक परिवर्तनों के साथ जैनों ने स्वीकार कर 14 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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